मायके की दीवाली – शुभ्रा बनर्जी 

“मम्मी! हम इस बार भी दीवाली नहीं मनाएंगे क्या?” आशू की मायूस आवाज सुनकर नेहा सहम गई।”क्यों बेटा? तुमने ऐसा क्यों सोचा?

नेहा ने उसे पुचकारते हुए पूछा।

“मम्मी काॅलोनी में सभी के यहां दीवाली की तैयारी शुरू हो गई है।और तुम हो कि पिछले कई दिनों से ऐसे ही गुमसुम बैठी हो।”बोलो ना मम्मी हम पटाखे भी नहीं जलाएंगे क्या इस साल?”

नेहा की आंखों में आंसू आ गए।दूर खड़ी इशू को उसने पास बुलाया और अपनी गोद में बैठा लिया।”हमारी ईशू रानी भी उदास है क्या?भैया की तरह”

“नहीं मम्मी मैं उदास बिल्कुल नहीं हूं”।

“मम्मी !मम्मी!लो बुआ का फोन है।”

देखना पक्का हमें अपने पास आने के लिए कहेंगी।हम चलेंगे न ना मम्मी?”

नेहा ने बिना कुछ कहे फोन ले लिया आशू से”प्रणाम दीदी। अच्छा किया जो आपने फोन कर लिया।मुझे समझ ही नहीं आ रहा दीदी।क्या करूं?”

“अरे!क्या हुआ नेहा?किस बात की परेशानी है?मुझे बताओ तो सही।”

“दीदी पिछले साल कोविड का गई आपके भाई विवेक को।दो छोटे छोटे बच्चों की जिम्मेदारी मुझे सौंपकर,वो चले गए।कितने शौक से बच्चों के साथ दीवाली की तैयारी करते थे,विवेक।

पापा हमें अपने साथ ले गए थे।भैया ने ईशू और आशू को पटाखे लाकर भी दिया था,पर इन लोगों ने नहीं जलाया।ईशू बोली मम्मी पापा भगवान जी के पास गएं हैं ना।सो रहें होंगें।पटाखों की आवाज़ से जग जाएंगे।”



तब पापा और भैया ने भी अपने घर में दीवाली नहीं मनाई।

और अब देखिए दीदी हमारे पापा भी हमें छोड़कर चले गए।मैं अभागन उन्हें आखिरी बार देख भी नहीं पाई। बच्चों की परीक्षा चल रहीं थीं।और फिर बारिश भी रुकने का नाम नहीं ली उन दिनों।”

सच है नेहा।”होनी को कौन टाल सकता है?

तेरहवीं कब की है?

“२५ को है दीदी तेरहवीं।मेरा मन छटपटा रहा है।समझ नहीं आ रहा क्या करूं?”

देखो नेहा?”पापा के जाने का दुख तो कम हो नहीं सकता।पर तुम अगर अभी मायके जाओगी तो बच्चे इस बार भी दीवाली नहीं बना पाएंगे।तुम एक काम करो।पहले दीवाली में मेरे पास आ जाओ बच्चों को लेकर।बाद में अपने मायके चले जाना।वो भी समझेंगे तुम्हारी मजबूरी।चलो रिजर्वेशन करवा लो जल्दी और फिर मुझे बता देना। तुम्हारे जीजाजी को स्टेशन भेज दूंगी।”

“जी दीदी”

नेहा भी सोचने लगी,सच ही तो है , बच्चों का मन उदास है।मैं दीदी के यहां ही लेकर चली जाती हूं।भैया को बता दूंगी।वो समझ जाएगा।

चलो भाटिया अंकल को टिकट करने के लिए कह दूं अभी,वरना तत्काल में भी टिकट नहीं मिलेगा।

तभी डोरबेल बजी।नेहा ने जैसे ही दरवाजा खोला सामने भाटिया अंकल को देखकर चौंक गई।

“अरे!अंकल आप,मैं अभी आपके पास ही आ रही थी।टिकट करवाने‌के लिए।”

भाटिया अंकल ने एक लिफाफा नेहा के हांथ में दिया औश्र बोले-१५०० रुपए हुएं हैं बेटा।अभी थोड़ी क्या?

“पर अंकल ये क्या है?नेहा अब भी असमंजस में थी।

“आज सुबह स्कूल जाते समय आशू आया था दुकान पर ईशू के साथ।उसी “ने कहा दादू टिकट करवा दीजिए।”

ओह!”आशू ने कहा आपसे?”

पैसे अभी लातीं हूं अंकल।नेहा अंदर से जाकर पैसे लेकर आई और भाटिया अंकल को दे दिया।

“नमस्ते अंकल”

नमस्ते बेटा।संभलकर जाना बच्चों को लेकर।”



नेहा दरवाजा बंद कर के सामने कुर्सी पर बैठ गई।आशू ने अंकल‌को बोला टिकट करने के लिए।कितना उतावला है वो अपनी बुआ के घर जाने के लिए।और एक मैं हूं कि उदास होकर अपने पापा के जाने का शोक मना रहीं हूं।ये मैं ठीक नहीं कर रही।विवेक को भी अच्छा नहीं लगता होगा।

“मम्मी! मम्मी!हम आ गए।”

आशू ,ईशू का हांथ पकड़कर अंदर आ गया।

“मम्मी क्या सोच रही हो आप?”

कुछ हुआ है क्या आपको?”

“नहीं नहीं बेटा!अभी अभी भाटिया अंकल आए थे।ये टिकट देकर गएं हैं”।

ओह!वाह!टिकट हो ही गईं ।चलो मम्मी पैकिंग करते हैं।

“हां हां बेटा!चलो जल्दी मेरी मदद करो दोनों।कल सुबह की ट्रेन होगी ना।१० बजे की होगी।उसी में तो जाते थे हम सभी ,पापा के साथ”

नहीं मम्मी “शाम की है ट्रेन।”

क्यों फिर तो पहुंचते पहुंचते रात हो जाएगी।

नेहा कपड़े पैक करते करते मानो ख़ुद में ही बड़बड़ा रही थी।

“ये देखो मम्मी ,तुमने अभी तक टिकट भी नहीं देखा, लिफाफा खोलकर।”

“हां बेटा!पता नहीं मैं कहां खो गई?

अच्छा किया तूने दादू से आज सुबह

ही कह दिया था टिकट के लिए।”

नेहा एक नज़र टिकट पर डालने की कोशिश करने लगी।आशू ने टिकट उसके सामने लहराया।

ये क्या?ये तो दिल्ली से सुल्तानपुर जाने की ट्रेन है?



हमें तो लखनऊ जाना है ना बेटा?नेहा का गला जैसे भर आया, आंसुओं को संभालना अब मुश्किल होने लगा।

तभी आशू और ईशू नेहा से लिपट गए।”अरे!क्या हुआ?”

“मम्मी दादू ने कोई ग़लती नहीं की।हम सुल्तानपुर ही जा रहें हैं।नानू के घर।””क्या!पर क्यों बेटा?हमें तो बुआ ने बुलवाया था लखनऊ।”

“हम नानू की तेरहवीं के बाद चलेंगें मम्मी, लखनऊ।”

नेहा के हांथ पैर कांपने लगे।जी एकदम से मितलाने लगा।दोनों बच्चों को सीने से लगाकर दहाड़ मार कर रोने लगी नेहा।मानो पापा के जाने का दुख जो इतने दिनों से उसने अपने दिल में दबाकर रखा था,आज सैलाब बनकर आंखों के रास्ते से बहने लगा।

इतनी कम उम्र में ये दोनों इतने समझदार कैसे हो गए?विवेक !देख रहे हो ना!शायद तुमसे ही इन्हें निर्णय लेने का बल मिला है।

आशू ने मम्मी के आंसू पोंछे।”अब जल्दी पैकिंग कर लो मम्मी।फ़िर बाजार भी जाना है ना।नानू की पसंद की मिठाई खरीदना है।”

ईशू जो कि मुश्किल से ग्यारह साल की थी,अम्मा की तरह नेहा के सिर पर हांथ फेरते हुए बोली”मम्मी जैसे हमें अपने पापा के जाने का दुख है,आपको भी तो आपके पापा के जाने का दुख होगा।जैसे हमने पिछले साल दीवाली नहीं मनाई पापा की याद में,आपका भी तो मन नहीं कर रहा होगा ना दीवाली मनाने का।

फ़िर आप क्यों नहीं बोली कि आपको नानू के घर जाना है?”

नेहा निरुत्तर ईशू को देखती रह गई।

और मम्मी”जब दादाजी और दादीजी गए थे भगवान के पास ,आपने तो पापा के साथ सारे नियम माने थे।साल भर ना कोई त्योहार मनाया,ना बाहर कहीं खांईं,।तो फिर आपके पापा के जाने का दुख आपका अकेले का क्यों होगा?हम तीनों सारे नियम मानेंगे न मम्मी।”

नेहा अपलक ईशू को देखती रह गई।

“हां मम्मी!”हम नानू के घर जाकर छत में से अपने पापा को दीया दिखाएंगे और आप अपने पापा को।दोनों तो अब साथ में ही होंगे ना मम्मी, भगवान जी के पास?”

हां आशू हां”तुम दोनों ने आज मुझे बहुत बड़ा उपहार दिया है।एक सीख दी है मेरे बच्चों ने आज मुझे।मायके के सुख ही नहीं बांटने चाहिए,दुख भी बांटने चाहिए।

“थैंक यू बच्चों।”

“आज तुम दोनों ने मुझे दीक्षित कर दिया।मुझे संतान का दायित्व समझा दिया।कितनी सहजता से मां के मन की पीड़ा समझ ली तुमने।और कितनी सरलता से मुझे कर्तव्य का पालन करना सिखा दिया।आज तुम दोनों ने मेरे मन की सारी वेदना धोकर,मुझे मोक्ष दे दिया।”

चलो तैयारी कर लेतें हैं।मेरे मायके की दीवाली स्पेशल होगी इस बार।छत पर तुम्हारे नानू और पापा से भी मिलना है ना दीवाली पर”।

शुभ्रा बनर्जी 

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