माता-पिता तो बच्चों को हर हाल में सहारा देते हैं। – अर्चना खंडेलवाल

गिरिजा ने दवाई का पैकेट उठाया तो देखा उसमें गोली नहीं थी, उसे याद आया कि दवाई तो कल रात को ही खत्म हो गई थी उसने विकास को लाने को बोला तो था, पर शायद वो भूल गया होगा, उसने उसके कमरे का दरवाजा खटखटाया तो अंदर से आवाज नहीं आई, वो चुपचाप वापस आ गई।

अपने कमरे में पहुंचकर देखा तो उनके पति कौशलनाथ जी सवेरे की सैर करके आ चुके थे। आप आ गये वो देखते ही बोली, आपके लिए चाय बना दूं? उन्होंने पूछा।

हां, बना दो और ये दवाई भी ले लेना, उन्होंने जेब से निकालकर पैकेट थमा दिया।

आप इतनी सर्दी में इतना दूर क्यूं गये? अपनी थोड़ी सी सैर करके वापस आ जाते। मैंने विकास को कल बोला तो था।

हां,वो हमेशा की तरह भूल गया और वो फीकी हंसी हंसने लगे। गिरिजा मैं तेरी तरह बेटे की ओर नहीं देखता हूं, मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है, मैं तेरा और मेरा पेट पाल लूंगा और दोनों की दवाईयां और बाकी के खर्चे भी पूरी कर लूंगा, ये तो तेरी जिद है वरना मैं ये घर छोड़कर चला जाऊं और वो कुर्सी पर बैठ गये, जब से लकवा आया था बड़ी मुश्किल से ठीक हुए थे, अभी भी अच्छे से चल नहीं पाते हैं फिर भी अपने काम तो सभी कर लेते हैं, गिरिजा के काम भी खुद ही कर देते हैं। कौशलनाथ जी अब रिटायर हो गये थे, अच्छी पेंशन भी मिल रही थी पर शरीर से ही लाचार हो गये थे, गिरिजा की भी तबीयत ठीक नहीं रहती थी, उच्च रक्तचाप और मधुमेह की दवाईयां चल रही थी, काफी थकान और कमजोरी रहती है, आधे समय तो वो बिस्तर पर ही रहती थी, कभी-कभी चाय बना देती थीं, इससे ज्यादा कुछ ना कर पाती थीं।

 

पति -पत्नी दोनों ही बुढ़ापे में शरीर से लाचार हो जाएं तो मुश्किल हो जाती है। कौशलनाथ जी बैंक में मैनेजर के पद पर थे, सालों काम किया पर रिटायरमेन्ट के बाद जीवन ही बदल गया, सब कुछ खाली हो गया था।

एक रात अचानक लकवा आ गया, वो गिरिजा पर निर्भर हो गये थे। बड़ी मुश्किल से चलने फिरने लायक हुए थे।

एकमात्र बेटे विकास को पाला कभी किसी चीज की कमी महसूस नहीं होने दी, विकास की शादी चेतना से करवा दी जो उसी के ऑफिस में काम करती थी।



चेतना अपने काम में व्यस्त रहती थी, और घर की देखरेख में ज्यादा ध्यान नहीं देती थी, ऑफिस से आकर भी वो कभी अपने सास-ससुर के पास ना तो बैठती थी ना ही कभी उनके हाल पूछती थी, घर तो कौशलनाथ जी का ही था, फिर भी वो एक मेहमान की तरह रह रहे थे। दोनों बेटे बहू कमाने और अपनी जिंदगी जीने में मस्त थे।

घर में हर काम के लिए नौकर लगे हुए थे, खाना बनाने वाली वो ही खाना बनाकर जाती थी जिसको बनाने के लिए चेतना बोलती थी, वो खाना बनाकर रख जाती थी तो गिरिजा लेकर खा लेती थी, जो सब्जी पसंद नहीं आती थी वो भी खानी पड़ती थी, तीखी तेज मसालेदार सब्जी गले में नीचे नहीं उतरती थी, उन लोगों को दही खाने की भी आदत थी पर वो भी घर में जमाती ही नहीं थी, पैकेट का दही उन्हें पसंद नहीं आता था।

एक दिन उन्होंने चेतना से कह दिया कि रसोई में कौशलनाथ जी और मेरा खाना मैं खुद बनाकर खा लिया करूंगी इस पर वो गुस्सा हो गई, फिर तो हम घर के सभी काम वालियों की छुट्टी कर देते हैं, सारा काम भी आप ही कर लिया करो, अलग से खाना बनाओगे तो दिन भर रसोई फैली रहेगी, जाने कितना तेल और घी का नुक़सान करोगे, इसलिए जो बैठै बिठाएं मिल रहा है वो ही खा लीजिए।

 

गिरिजा चुप हो गई, आजकल के जमाने में पढ़ी लिखी नौकरीपेशा बहू के साथ मुझ जैसी गंवार का रहना मुश्किल है, मुझे तो जैसे अक्ल ही नहीं है, मैंने तो विकास को पाला ही नहीं था, मुझे तो खाना बनाना आता ही नहीं है, घी तेल का कोई हिसाब ही नहीं आता, और वो कौशलनाथ जी के कांधे पर सिर रखकर रोने लगती थी। यूं तो घर में सब सुख सुविधाएं थी पर फिर भी दोनों खुद को लाचार महसूस करते थे, दोनों आपस में ही एक दूसरे से दुःख दर्द बांट लिया करते थे।

विकास और चेतना तो कभी आकर तबीयत भी नहीं पूछते थे। सुबह उठकर जिम चले जाते थे, नाश्ता करके ऑफिस, शाम को देर तक आते तो अपने लैपटॉप में काम करते रहते थे,रात तक मूवी या टीवी में व्यस्त रहते थे। दोनों के पास अपने बच्चे को पैदा करने का भी समय नहीं था। शादी को तीन साल हो गये थे, एक दिन गिरिजा ने बच्चे के लिए पूछ लिया तो चेतना ने उनका मुंह बंद करवा दिया, आज तो पूछ लिया पर आगे से मत पूछना, मेरी मर्जी है मैं बच्चे पैदा करूं ना करूं? अभी तो मुझे बहुत काम करने हैं, और बड़ी वाली कार और बड़ा घर लेना है, बच्चे के आते ही सौ खर्चे लग जायेंगे, सिर्फ बच्चे पैदा करना ही एक औरत की जिम्मेदारी नहीं होती है, उसकी अपनी भी कोई जिंदगी होती है।

गिरिजा जी ने फिर कभी नहीं पूछा, उन्हें बार-बार अपमान के घूंट पीना अच्छा नहीं लगता था। वो वैसे ही अपनी और अपने पति की बीमारी से परेशान थी, शरीर में कोई भी बीमारी लगे वो शरीर को तोडकर रख देती है,वो भरसक कोशिश करती थी कि वो स्वस्थ रहें क्योंकि उन्हें पता था कि बीमार आदमी कोई भी हो वो सबको बोझ ही लगता है।

 

एक सुबह जब वो उठी तो देखा घर में कोई हलचल नहीं हो रही है, उन्होंने हर कमरे को खोलकर देखा तो पता लगा कि घर में विकास और चेतना नहीं हैं। उन्होंने कौशलनाथ जी से पूछा तो उन्हें भी पता नहीं था। उन्होंने अपनी अलमारी खोलकर देखा तो पता लगा कि उसमें रखा नकद और गहने सभी गायब हो चुके थे, वो सब समझ गये, बच्चों ने धोखे से घर में रखा हुआ सभी सोना हथिया लिया और उन्हें धोखा दे दिया। वो पिता होने के नाते चुप ही रहें।



कुछ घंटों बाद दोनों आयें और बोले कि हमने अमुक सोसायटी में बड़ा सा फ्लैट बुक करा लिया है, कुछ महीनों बाद फ्लैट मिल जायेगा तो फिर हम दोनों वहीं पर रहने चले जायेंगे, आप दोनों भी फिर गांव के पुश्तैनी घर में चले जाना,और अपना बंदोबस्त कर लेना,विकास ने बोला।

नहीं बेटा, मैं और तेरी मां तो इसी घर में रहेंगे, अब गांव के उस खंडहर में जाकर हम क्या करेंगे? वहां कुछ सुविधाएं भी नहीं हैं।

ये घर तो हम बेच रहे हैं, हमने सब बात पक्की कर ली है आपको तो फिर गांव जाना ही पड़ेगा, चेतना ने कहा।

घर बेच रहे हों…!! पर ये घर तो तेरी मां के नाम पर है, तू कैसे बेच सकता है ? कौशलनाथ जी बोले।

ये घर अब चेतना के नाम पर है और चेतना का ही है, वो इसे जब चाहें बेच सकती है, विकास ने पेपर दिखाते हुए कहा तो उन्हें आश्चर्य हुआ।

हां, याद आया, उस दिन विकास ने मुझसे एक पेपर पर हस्ताक्षर करने  को कहा था, कह रहा था कि बैंक में कुछ काम है तो आपके हस्ताक्षर चाहिए, तो मैंने कर दिए, गिरिजा ने बोला।

 

मुझे क्या पता था कि इसकी मेरे घर पर नजर है, ये घर बेच देगा तो हम कहां पर रहेंगे और ये कहकर वो सुबकने लगीं। कौशलनाथ जी को कुछ समझ नहीं आ रहा था, उनके अपने बेटे बहू ने उन्हें इतना बड़ा धोखा दिया है।

 

दोनों ने घर बेच दिया और बड़ी सी सोसायटी में रहने को चले गए, कौशलनाथ जी अपनी पत्नी को लेकर गांव चले गए, अब अपने ही बेटे के खिलाफ किससे शिकायत करते? अकेले कहां इस उम्र में कोर्ट और कचहरी के चक्कर लगाते? वो अपने दिन बीता रहे थे और कुछ नहीं तो पेंशन का बड़ा सहारा था। गिरिजा जी ने भी अपने को संभाल लिया था, उनके जीवन की गाड़ी पटरी पर चलने लगी थी। आस पास के पडौसियों और रिश्तेदारों से मन लगने लगा था।



कुछ महीनों बाद एक सुबह वो उठे ही थे कि दरवाजा कोई खटखटा रहा था, उन्होंने दरवाजा खोला तो देखा सामने विकास और चेतना बदहाल खड़े थे। वो अपने बच्चों को इस हाल में देखकर बहुत दुखी हुए। उन्होंने दोनों को अंदर बुलाया, गिरिजा जी ने खाना खिलाया फिर वो दोनों रोने लगे और उनके चरणों में गिर पड़ें, आप दोनों हमें माफ कर दीजिए,ये सब हमारी गलती है, हमने आपको बहुत परेशान किया, दुखी किया, धोखे से सब हड़प लिया और आज हमारे साथ भी वो ही सब हुआ है। वक्त की मार ने हमें सबक सिखा ही दिया।

हमने जो कुछ आपसे छीना था, ईश्वर ने वो वापस हमसे छीन लिया है, हम दोनों ने धोखे से जेवर और घर लेकर उस फ्लैट में चले गए, उस घर को हमने अच्छे से सजा लिया था पर ये पता नहीं था कि मां बाप का दिल दुखाकर आज तक कोई भी सुखी नहीं हो पाया है।

 

उस बड़ी सोसायटी में हम गलत लोगों की संगत में आ गये, रोज शराब पीने लगे और जुआ खेलने लगे, बड़ी पार्टियों में यही सब तो होता है।

वही मेरी दोस्ती वीरेन से हुई, वीरेन बड़ा ही शातिर दिमाग वाला था, उससे जुएं में कोई जीत नहीं सकता था, दोस्तों ने मुझे उकसाया और मैं उसके साथ जुआ खेलने लगा। उसकी चालाकी के चलते मैं जुंए में सब हार गया, सारा सोना, नकद और वो फ्लैट भी जो हमारे सपनों का घर था।

 

इधर हमारी कंपनी में कर्मचारियों की छंटनी चल रही थी, जो पुराने लोग थे और मोटी पगार पाते थे, उन्हें सबसे पहले हटा दिया क्योंकि उनकी पगार बहुत ज्यादा थी, सबसे पहले मुझे और चेतना को निकाला गया, एक साथ दोनों की नौकरी चली गई, हम कुछ महीने एक कमरा किराये पर लेकर भी रहें थे ताकि दूसरी नौकरी ढूंढ सकें, पर जुआ खेलने और फ्लैट खोने के कारण हम बदनाम हो गये थे किसी ने हमें नई नौकरी नहीं दी। सब दोस्तों ने साथ भी छोड़ दिया। थोड़े बहुत पैसे थे वो भी खत्म हो गएं तो सोचा जिसका कोई नहीं होता है उसके मां -बाप तो जरूर होते हैं, इसी आस में आपके पास चले आएं ताकि आपसे माफी मांग सकें और सहारा भी मिल सकें। हम दोनों पैसे और पद के नशे में बहुत ऊपर उड़ रहे थे पर वक्त की मार से हमारी अक्ल ठिकाने आ गई है, इस वक्त की मार और भगवान के न्याय से कोई बच नहीं पाया है, हमें आपके सहारे की बहुत जरूरत है।

 

विकास कहता जा रहा था, उसकी आंखों से आंसू बहते जा रहे थे, और चेतना भी चुपचाप शर्मिंदा सी कोने में खड़ी थी वो भी बोली।

मम्मी जी मुझे माफ़ कर दीजिए, मैंने आपके साथ बहुत बुरा व्यवहार किया, आप तो मेरी मां जैसी है और मैंने ही आपको बहुत तकलीफ़ दी, मेरी जिद की वजह से विकास ने आपके धोखे से हस्ताक्षर ले लिये थे, मैं ये ज़िद ना करती तो हमारे सिर पर आज छत तो रहती, मेरी वजह से आज ये बुरे दिन आये है।



चेतना, अब रोना बंद करो, कुछ तकलीफे और दर्द हमें सबक सिखाने भी आती है, चिंता मत करो तुम्हें अपनी भूल पर पछतावा है तो तुम्हारा अच्छा समय भी आयेगा, इंसान इंसान को धोखा देता है पर वो भुल जाता है कि सबसे बड़ा न्यायधीश तो वो ऊपर वाला है, वो सब बराबर कर देता है, उसकी लाठी में आवाज नहीं होती है।

 

  मां -बाप का मन तो होता ही मोम जैसा है, बच्चों के दर्द से एक सेकंड में पिघल जाता है, दोनों के आंसू पौंछकर गिरिजा जी ने  बच्चों को गले से लगा लिया, और खाना खिलाकर उन्हें सुला दिया।

कौशलनाथ जी चिंतित हो रहे थे, आखिर अभी तो बच्चों का शुरूआती जीवन है, दोनों को आगे बहुत जिंदगी जीनी है, उनकी पेंशन इतनी ज्यादा भी नहीं थी कि चारों का खर्चा  चल सकें फिर कोई दो रोटी की तो बात नहीं है, इसके अलावा भी और भी खर्चे होते हैं। वो चिंता के मारे सो नहीं पाएं थे, और कुछ ऐसा करना चाहते थे कि ताकि बच्चे जीवन भर गर्व से सिर उठाकर जी सकें।

 

उन्होंने पड़ोसी से बात की तो उन्होंने बताया कि उनके सेठ को एक तेज तर्रार दिमाग वाले इंसान की जरूरत है जो अच्छे से हिसाब कर सकें, और नीचे काम करने वाले कारीगरों से काम करवा सकें। विकास वहां पर साक्षात्कार देने गया, उसके सिर पर मां -बाप का आशीर्वाद था तो वो सफल हो गया और नौकरी करने लगा।

चेतना ने बच्चों को पढ़ाना शुरू किया, देखते ही देखते बहुत बच्चे आने लगे, उसने अपने गांव के घर को स्कूल में बदल दिया, स्कूल से अच्छी कमाई होने लगी। कौशलनाथ जी और चेतना स्कूल संभालने लगे, दो -तीन पढ़ाने के लिए टीचर भी रख लिये। अब गिरिजा जी का भी मन लगने लगा। घर के आंगन में बच्चों की चहल पहल थी पर उनका आंगन अभी तक भी सूना था। एक दिन चेतना पढ़ाते हुए चक्कर खाकर गिर पड़ी, तो पता चला कि वो मां बनने वाली हैं।

गिरिजा जी की आंखें भीग गई आखिर ईश्वर ने इतने कष्ट और पीड़ा के बाद उन्हें जीवन की सबसे बड़ी खुशी दे ही दी।  कुछ महीनों बाद उनके आंगन में उनका पोता खेल रहा था। अब दोनों पति -पत्नी अपने पोते के साथ खेलते थे, विकास और चेतना काम भी करते थे और उन दोनों की सेवा भी करते थे।

 

पाठकों,  जो मां -बाप का दिल दुखाते है वो कभी सुखी नहीं रह पाते हैं, इसलिए सदैव अच्छे कर्म करें, मां -बाप की सेवा करें, उनका आशीर्वाद आपको मिलता रहेगा और आप सदैव सफल और सुखी रहेंगे, और आप माता-पिता को सहारा दे या ना दें पर माता -पिता अपने बच्चों को हमेशा सहारा देते हैं।

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अर्चना खंडेलवालधन्यवाद

लेखिका

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