“डॉक्टर साहब, जब आप छुट्टी पर थे तब कोई आदमी एक बुढ़िया को यहाँ भर्ती कराकर चला गया है और तबसे आजतक वापस लौट कर नही आया। दिक्कत ये है कि वह बुढ़िया अपने बारे में कुछ भी नही बता पा रही है। हमनें बहुत कोशिश किया पर भर्ती कराने वाले ने अपना नाम, पता सब ग़लत लिखाया था। अब क्या करें हम? इतने दिन किसी को रख भी तो नही सकते” उसके छुट्टी से वापस आते ही रिसेप्शनिस्ट ने कहा।
“इतने दिन से भर्ती है और कोई खोज ख़बर नही ली बेटे ने? हद है, कैसा निर्मम,निर्दयी बेटा है जो अपनी ही माँ का उस समय साथ छोड़ गया जब सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है।और उस बुूढ़ी माई ने कुछ भी बताया, मतलब कोई भी ऐसी बात जिससे कुछ पता लगाया जा सके?” कोट उतारते हुए उसने अचरज से पूछा।
“नही डॉक्टर साहब! वो तो कुछ भी नही बोलती है। हाँ, कभी-कभी किसी बबुआ का नाम लेकर ज़रूर कुछ बुदबुदाया करती हैं।”
“बबुआ” ये नाम सुनकर उसके शरीर में जैसे झुरझुरी सी फैल गई। ज़ेहन में कुछ कौंध सा गया। कहीं ये वही तो नही हैं? “कहाँ हैं वो” कहते हुए वह लगभग दौड़ सा पड़ा।
हाँ वही थीं…पर बहुत ही बीमार और जर्जर सी। सिकुड़ी सी,गठरी सी बनी वह लेटी थीं।
उसे अपना बचपन याद आ गया। लगभग तीन-चार साल का ही तो था तब। अनाथालय के बगल में ही बने एक कमरे के घर में वह अपने बेटे के साथ किराये पर रहती थीं और किसी स्कूल में आया थीं । अम्मा उसे इतना प्यार करतीं कि किसी की पहचान लगाकर अक्सर उसे थोड़ी देर के लिए अपने घर ले आती, अपने हाथ से खिलातीं,पढ़ातीं और दुलराते हुए कहतीं “हमारा बबुआ डाक्टर बनेगा, फिर हमको दवाई देगा.. देगा ना बबुआ?'”
“हाँ,बनूँगा अम्मा और दवाई भी दूँगा” वह भी कह देता। “पर कैसे बनते हैं डॉक्टर?” तुतलाते हुए वह पूछता।
“खूब पढ़ने से और हमेशा अव्वल रहने से” कहकर वह लिपटा लेतीं।
फिर वह खूब पढ़ता, मन में उन्हें दवाई देने की ख़्वाहिश लिये हुए ..अब तो उस अनाथ की पूरी दुनिया अपनी अम्मा पर ही सिमट गई थी ।
वक्त गुज़रता गया। पढ़ाई में अव्वल होने की वजह से और अम्मा के वात्सल्य, उनकी प्रेरणा और सहृदय शिक्षकों की मदद से वह डॉक्टरी में चयनित होकर पढ़ाई करने के लिए दूसरे शहर चला गया। दूर होने और पढ़ाई की व्यस्तता की वजह से अम्मा से मिलने वह कम ही आ पाता। दो साल बाद ही घर ख़ाली करके अम्मा को उनका बेटा अपने गाँव लेकर चला गया पर छह साल बाद जब वह डॉक्टर बनकर वापस आया तो अम्मा की बहुत याद आई, पर किसी को भी उनके गाँव,घर का पता-ठिकाना ठीक से ना मालूम होने के कारण वह फिर कभी अपनी अम्मा से नही मिल पाया।
और आज वह यहाँ,इस हाल में ?उसका दिल रो दिया। वह उनके कान के पास आकर धीमे से फुसफुसाया “कैसी हो अम्मा! तुम्हारी इच्छा थी ना कि मैं डॉक्टर बनूँ? देखो
तुम्हारा बबुआ डॉक्टर बन गया है ,अब तुम्हें दवाई देगा।” सुनकर अचानक उनकी आँखों में एक चमक सी आ गई पर तुरंत ही वह चमक गायब भी हो गई “तुम कौन हो बच्चा?” बामुश्किल उनके मुँह से बहुत ही धीमी सी ,अस्फुट सी आवाज़ निकली। उसका दिल खुशी से धड़क उठा।
पर बचपन में “तेरी तो याददाश्त बहुत अच्छी है रे” कहने वाली अम्मा लाख कोशिशों के बाद भी उसे नही पहचान पाईं तो उसकी आँखे भर आईं ।
“सर,आप रो रहे हैं? आप जानते हैं क्या इन्हें?” रिसेप्शनिस्ट ने जानना चाहा।
“हाँ…जानता हूँ.. इनका बहुत बड़ा कर्ज़ है मुझ पर,,,,ममता का कर्ज़” वह धीरे से बुदबुदाया। फिर संयत होते हुए कहा “तुम इनके डिस्चार्ज पेपर्स तैयार करवाओ। अब ये मेरे साथ जायेगीं, अपने बबुआ के घर।”
#सहारा
कल्पना मिश्रा
कानपुर