माँ की खांसी – नरेश वर्मा 

   रात्रि के बारह बज रहे थे।माँ कीं खांसी का दौरा था कि रुकने का नाम ही नहीं ले रहा था ।खांसी के धँसके बहु-बेटे के बग़ल वाले कमरे तक दस्तक दे रहे थे ।

 “ उफ़्फ़ ! माँ जी न ख़ुद सोतीं हैं और न किसी को सोने देती हैं ।”- बहु अलका भुनभुनाई।

 “ कानों में तकिया दबाओ और सो जाओ, और भगवान के लिए मुझे भी सोने दो।”-पति राजेश ने झुंझलाते हुए कहा ।

    तकिये और कान की जुगलबंदी तो अलबत्ता नहीं हुई पर दिल में दबे ग़ुबार की रागिनी सप्तम स्वर में अवश्य बजने लगी-“ खांसी क्या यदि बाहर ढोल भी बजें तो तुम्हारे खुर्राटों में फ़र्क़ पढ़ने से रहा ,पर मुझ से आरी चलने जैसी ये खांसी बर्दाश्त नहीं होती।सुबह जल्दी मैं उठूँ , बच्चों का नाश्ता मैं बनाऊँ, तुम्हारा टिफ़िन मैं तैयार करूँ, भागते-दौड़ते बस पकड़ कर आफिस मैं जाऊँ ।वहाँ बॉस और आफिस की टेंशन मैं झेलूँ ।ले दे के बचा रात का सुकून तो वह तुम्हारी अम्मा जी की खौंऽऽ..खौंऽऽ से नसीब नहीं होता।यह खांसी अब मेरे बर्दाश्त से बाहर है ।”

  “ तो तुम क्या चाहती हो, अम्मा के मुँह में तौलिया ठूँस दूँ ।”-पति राजेश ने दबी जवान में तल्ख़ी से कहा ।

  “ मैंने ऐसा तो नहीं कहा किंतु इसका कोई रास्ता तो निकालना ही होगा ।”- ग़ुस्से का पारा थोड़ा ढलान पर था।

  “ डाक्टर,हकीम,बैद्य सब को तो आज़मा लिया, इस पर भी खांसी नहीं रुकती तो मैं क्या करूँ ? “

  बग़ल वाले कमरे से वार्ता की झंकार बाहर अम्मा (सावित्री) के कमरे तक आ रही थी।अम्मा को भी पता था कि बहु -बेटे के कमरे की वार्ता का केन्द्र बिन्दु वह ही हैं।वह अपराधी भाव से खांसी के धसकों को दबाने का भरपूर प्रयास करती हैं ।किंतु वह भी क्या करें -‘ ख़ैर खून खांसी ख़ुशी  ‘ क्या किसी के रोके रुक सकी है ? अम्मा धीरे से उठती हैं….दबा के डिब्बे से मुलेठी ढूँढने के प्रयास में मेज़ पर रखा गिलास गिर जाता है ।रात के सन्नाटे में गिलास गिरने की झनझनाहट बम के गोले सी गूंज उठती है ।

 बग़ल के कमरे में अब तक फूट रहे तड़तड़िया छोटे पटाखों के मध्य गिलास गिरने की झनझनाहट ने सुतली बम का सा धमाका कर दिया ।निष्कर्ष ..अलका तकिये सहित ड्राइंगरूम के सोफ़े पर सोई और पति राजेश अकेला पलंग पर ,खांसी को कोसता सोने के प्रयास में।



  इस घर के बम धमाकों के एपिसोड से अनजान सूर्य भगवान अपने नियत समय पर दस्तक दे देते हैं ।उठा पटक चिल्ल-पों के मध्य दोनों बच्चे सूखीं ब्रेड के टिफ़िन के साथ स्कूल धकिया दिए जाते हैं।अलका माथे पर पट्टी बाँधे आफिस से छुट्टी पर है ।आफिस कैंटीन से कुछ खा लेने के आदेश के साथ राजेश बिना टिफ़िन के विदा हो चुके हैं ।अम्मा घर के टेलीविजन पर चल रहे एपिसोड में अपनी भूमिका से पूर्णतः अवगत , दिखावे की माला जप रही हैं ।घर के मौसम की हवाएँ बता रहीं हैं कि आज कुछ न कुछ तो होना है ।और हुआ भी ।शाम की चाय पर गोल-मेज़ सम्मेलन हुआ।सम्मेलन वार्ता में सर्वसम्मत (जनाना वोट १००% मर्दाना वोट ३०%) से निर्णय लिया गया कि अम्मा को ओल्ड एज होम ( वार्षिक शुल्क-१५०००० रुपये) में भर्ती करा दिया जाए ।इस निर्णय में कुछ समस्याएँ संभावित थीं जैसे क्या अम्मा आसानी से ओल्ड एज होम जाने में राज़ी हो जाएँगी ।दूसरी समस्या कि अम्मा के जाने पर घर पर उनकी अनुपस्थिति को कैसे आस-पास मोहल्ले में न्यायोचित ठहराया जाएगा ।

  इस पर निर्णय लिया कि समयानुकूल समस्या पर मंथन करा जाएगा

    समस्या नंबर एक को ही हल करना भारी पड़ रहा था।अम्मा ने ओल्ड एज होम में जाने से साफ़ इंकार कर दिया ।उनका तर्क था

कि मकान उनके पति ने बनवाया है अत: मकान उनका है ।यदि किसी को कोई समस्या है तो वह जाए ।वह क्यों जाएँ ?

बहु अलका ने जवान में अतिरिक्त मिठास घोलते हुए कहा-“ अम्मा जी इस घर परिवार की मालकिन तो आप ही हैं , हम कोई आपको हमेशा के लिए ओल्ड एज होम जाने के लिए नहीं कह रहे ।हमारी नौकरी की मजबूरी के कारण हमें एक महीने को चुनाव ड्यूटी के लिए बाहर जाना पड़ रहा है । हमें आपकी फ़िक्र बनी रहेगी, इस कारण आपको अकेले यहाँ नहीं छोड़ सकते ।सुविधा युक्त होम है , वहाँ आपको कोई तकलीफ़ नहीं होगी ।और सिर्फ़ एक महीने की ही तो बात है ।इसके बाद हम आपको वापिस ले आएँगे ।”

 बहु की मीठी चुपड़ी बातों से अम्मा पूर्णतः आश्वस्त तो नहीं हुई किंतु बेटे की मनुहार और क़समों से पिघल गईं।मन में सोचा कि चलो एक महीने की तो बात है ।किंतु अम्मा भूल गईं की यह श्रवण कुमार वाला युग नहीं है , जहाँ श्रवण कुमार कंधों पर माँ-बाप को ढोता रहा था ।यहाँ तो माँ कीं खांसी ही श्रवण कुमार को भारी पड़ रही थी ।और फिर पत्नी की इच्छा के आगे तो आधुनिक श्रवण कुमार वैसे ही एक टाँग पर ता थ्य्या कर रहे हैं ।जो भी हो अम्मा जाने को राज़ी हो गई ।सेवाश्रम धाम नाम के ओल्ड एज होम से डील कर ली गई ।अम्मा के जाने की तैयारियाँ ज़ोर-शोर से आरंभ हो गई ।यहाँ ज़ोर-शोर कहना शायद अतिशयोक्ति होगी क्योंकि एक बुढ़िया का सामान ही क्या ।एक अटैची, देसी-अंग्रेज़ी दवाओं का डिब्बा ,रामायण का गुटका, गुड़-चूरन ।और ख़रबूज़े के बीज साथ में उन्हें छीलने की चिमटी।

  अम्मा चली गई ।अम्मा घर से क्या गई घर भाँय-भाँय सा करने लगा ।विचित्र बात तो यह कि नींद का व्यवधान बनी खांसी का शोर नहीं था किंतु फिर भी बेटा-बहु रात भर करवटें बदलते रहे, नींद कोसों दूर थी।सच है कि हम दूसरों को धोखा दे सकते हैं पर स्वयं का अपराध बोध सदैव कचोटता है ।

 सबसे पहले काम वाली बाई ने तहक़ीक़ात के अंदाज़ से पूछा-“ आज अम्मा नज़र नहीं आ रहीं ? कहीं गई हैं क्या ?

  “ हाँ अपने भाई के यहाँ मुरादाबाद गई हैं ।”- अलका ने संक्षिप्त में उत्तर दिया ।

  बाई की उत्सुकता इस उत्तर से शांत नहीं हुई -“ पहले तो कभी अम्मा ने अपने भाई का ज़िक्र नहीं किया और फिर अचानक कैसे जाना हो गया।“

   “तो क्या वह तेरे से इजाज़त लेके जाती और फिर क्या हर बात तुझे बतलाई जायेगी ।देख वहाँ कोना छूट गया , अम्मा को छोड़ और ध्यान से पोंछा लगा।- अलका ने तल्ख़ी से कहा।



  अम्मा के अचानक चले जाने से संबंधित घटना की यह पहली तहक़ीक़ात थी जो घर की बाई से आरंभ हुई थी ।घर की बाई को किसी ख़बर के लगने का अर्थ दस घरों तक ख़बर का पहुँचना होता है ।अम्मा के यों अचानक चुपचाप चले जाने की ख़बर के पाँव लग गए थे ।एक महीना गुजर जाने पर भी अम्मा के नहीं लौटने पर मिलने जुलने वालों के मन में शंका होने लगी।बातों का बतंगण बनना स्वभाविक था।ख़बर में ट्विस्ट तब आया जब उस दिन बाई ने अलका से कहा-“ बीबी जी पता है लोग अम्मा के बारे में क्या क्या कह रहे हैं ।लोग कह रहे हैं कि बेटा बहु मकान क़ब्ज़ाने के लिए माँ को हरिद्वार के घाट पर छोड़ आए हैं ।”

 सुन कर अलका सन्न रह गई।अब उसे अहसास हुआ कि उसे आते जाते देख कर लोग क्यों उसे हिक़ारत की नज़र से देखते और फुसफुसाने लगते हैं ।शाम की चाय पर पति पत्नी में चर्चा हुई तो राजेश ने भी स्वीकारा कि मोहल्ले वाले उसे देख कर मुँह सा बिचकाते हुए कन्नी काट कर निकल जाते हैं ।

 एक तो माँ को चुपचाप ओल्ड एज होम में डालने की आत्मग्लानि उपर से मोहल्ले में होने वाले सामाजिक बहिष्कार ने दोनों का मानसिक तनाव बड़ा दिया ।न दिन का चैन न रातों की नींद ।माँ कीं खांसी इतनी बड़ी समस्या नहीं थी जितना यह मानसिक तनाव ।जब यह तनाव बर्दाश्त के बाहर हो गया तो अलका ने राजेश से कहा-“ भगवान के लिए जाइये और अम्मा को घर वापिस ले आइये ।”

  “हमने जो इतने रुपये ओल्ड एज होम में जमा किए हैं , वो तो वापिस मिलने से रहे ।”- राजेश ने शंका प्रकट की।

  “ रुपयों को मारो गोली बस तुम अम्मा को ले आओ।



     अपने कलेजे के टुकड़ों औलाद के लिए जिस माँ ने न कभी दिन देखा न रात वह मात्र एक फुटबॉल बन के रह गई थी ।पहले ठोकर मारो , गोल चूक गया तो अपने पाले में वापिस ले आओ।राजेश ओल्ड एज होम में पहुँच गया था।आफिस से माँ सावित्री के कमरे की खोज ख़बर लेने के बाद राजेश ने देखा फूलों की बगिया के बीच पड़ी बेंच पर बैठी माँ बीज छील रही थी।

 राजेश को अचानक सामने देख कर सावित्री चौंक गई।मन में अनेक विचार कौंध गए।स्वयं को संयत करते मुस्करा कर सावित्री बोली-“ तो तुझे माँ की याद आ ही गई, बहु नहीं आई।”

 “ माँ घर चलो , मैं तुम्हें लेने आया हूँ ।”

सावित्री गंभीर हो गई, उसने उलाहना सा देते कहा-“ मैं क्या काठ की गुड़िया हूँ जिसकी कोई इच्छा अनिच्छा ही न हो ।जब मैं यहाँ आना नहीं चाहती थी तो मुझे भेजने का छल किया ।अब जब मेरा मन यहाँ रम गया है तो वापिस लेने आए हो।यहाँ सुख-दुख बाँटने वाली हमजोलियों से नाता जुड़ गया है ।यहाँ योगा ,मनोरंजन,सात्विक आहार,डाक्टर आदि सब है ,मैं यहाँ बहुत खुश हूँ ।कान खोल कर सुन लो रज्जु मैं अब उस घर में वापिस नहीं जाऊँगी जहां मेरी खांसी तक से चिड़ है ।और अब तो मेरी खांसी भी बिल्कुल ठीक हो गई है।”

 “ किंतु अम्मा बच्चे अपनी दादी को याद करते हैं ।”-राजेश ने शर्मिंदा होते कहा।

 “ यह भावनात्मक लॉलीपॉप किसी और को देना रज्जु ,मैं अब लौटने वाली नहीं ।

    माँ को वापिस ले जाने के समस्त दांव-पेंच फेल हो चुके थे ।इधर कुँआ उधर खाई।माँ टस से मस नहीं हुईं ।निराश ,दुखी स्वयं से शर्मिन्दा राजेश भारी कदमों से लौटने लगता है ।हारे हुए जुआरी की भाँति झुके कंधों से लौटते इंसान के कदम उस आवाज़ से थम जाते हैं जिस आवाज़ को अपने जन्म से सुनता और नकारता आ रहा था ।

 “ठहरो रज्जु…. रुक जाओ..। पूत कपूत हो सकता है पर माता कुमाता नहीं होती। मेरा सामान उठवाओ हम वापिस घर चल रहे हैं

     एक नन्ही भूरी चिड़िया चीं..चीं करती सफ़ेद बादल की ओर उड़ जाती है…… बाहर थ्री व्हीलर के इंजन की आवाज़ ओल्ड एज होम से दूर होती जाती है……………।

                                               समाप्त  

 

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