माँ – कल्पना मिश्रा 

लोग इकट्ठे हो रहे थे। चिरनिद्रा में लीन माँ की अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू होने लगी। उनको नहलाया जा रहा था.. वैसे तो ये काम बहुयें करती हैं और देवरानी अपना फर्ज़ निभा भी रही थी लेकिन मैं तो बस पत्थर सी बनी माँ को देखे जा रही थी।तब मात्र साढ़े चौदह बरस की बच्ची ही तो थी मैं.. जब इस घर में ब्याह कर आई थी। एकदम अल्हड़,लापरवाह सी! कोई काम नही कर पाती थी, मायके में दादी की दुलारी जो थी। लेकिन ससुराल में सासु माँ के बीमार पड़ने पर जब पहली बार किसी तरह रोटी बनाई तो मोटी और कच्ची बनाई जिसे खाते ही बाबूजी माँ पर चिल्ला दिये थे ” राजू की अम्मा, बहुरिया को कुछ सिखाओ,एक तो मोटी और दूजे कच्ची रोटी बनाई है इसने” सुनकर मां ने धीरे से शांत कराया था “अरे अभी बच्ची ही तो है,पर होशियार है, देखना धीरे-धीरे सब सीख जायेगी।” फिर ठीक होते ही खुद सारी रोटियाँ सेंकने के बाद दो तीन रोटी की लोई बचा लेतीं और बड़े प्यार से खेल-खेल में रोटी बेलना, सेंकना सिखातीं। फिर कभी सब्ज़ियाँ काटना, सब्ज़ी बनाना, दाल,चावल में पानी नमक का अंदाजा बताना,,, सिलाई, बुनाई ,कढ़ाई आदि सब कुछ खेल खेल में सिखाती रहतीं। अगर कभी कुछ ना हो पाता या ख़राब भी हो जाता तो भी सबसे तारीफ़ ही करतीं कि “देखो हमारी बहुरिया सब काम कितना अच्छा करने लगी है। अब बुद्धू थोड़े ना है,देखना सब कर लेगी” 

और सच में,,धीरे-धीरे मैं कब घर के कामकाज में पारंगत हो गई, पता ही नही चला। 

“दीदी,ये लो, माँ के माथे में चंदन का टीका लगा दो” देवरानी ने चंदन भरी कटोरी देते हुए कहा तो मैं चौंक पड़ी। चुनरी की जगह सफेद धोती,सूना माथा, सूने हाथ,पैर… माँ का ये रूप देखकर मैं तड़प उठी। मेरे कान में उनकी कही बातें गूंजने लगी “दुल्हिन,हमारी बड़ी चाहत है कि हम इस दुनिया से सुहागन ही जातें। लाल लाल चुनरी,हाथ में भर-भर चूड़ियाँ, पैरों में बिछुए, खूब चौड़ा महावर, माथे पर सिंदूर की बड़ी सी बिंदी… और  ..और…माँग में सिंदूर तुम्हारे बाबूजी भरते तो कितना अच्छा लगता। पर ये तो अब हो नही सकता ना।अब सबका सोचा हुआ सब कुछ पूरा भी तो नही होता ना? किस्मत वाले होते हैं वो लोग…”  कहते-कहते उनके आँसू भरभराकर बह निकले “पर हमारी एक इच्छा पूरी कर देना… जब हमारी आख़री विदाई हो तो हमारे माथे पर चंदन ना लेपना बल्कि एक बड़ी लाल बिंदी ज़रूर लगा देना। तुम्हारे बाबूजी के पास सूना माथा लेकर नही जाना चाहते,काहे कि उनके सामने हम कभी बगैर बिंदी के रहे नही थे ना” उन्होने मेरा हाथ कसकर पकड़ लिया…”बिटिया, करोगी ना हमारी ये इच्छा पूरी?”




 

“दीदी, टीका लगाओ ना,भइया कह रहे हैं कि देर हो रही है”  देवरानी की आवाज़ सुनकर मैंने उसका हाथ पकड़ लिया.. “नही सुनीता, अंदर से जाकर मेरी अलमार से बड़ी लाल बिंदी का पत्ता ले आओ प्लीज़… माँ की अंतिम इच्छा पूरी करना है मुझे।” 

वहाँ मौजूद सब महिलायें मेरा मुँह ताकने लगी “अब ये क्या अनर्थ कर रही है यह,विधवा के लाल बिंदी?” उनमें फुसफुसाहट शुरू हो गई …पर अपनी उस माँ के लिए मैं उनकी परवाह क्यों करती? जिसने मुझे हमेशा बहू नही बल्कि एक बेटी से बढ़कर माना था, जिन्होंने मेरी जन्मदात्री से ज़्यादा मुझे प्यार दिया ,जिनकी स्नेहिल छाया में मैं पली, बढ़ी… उनकी आख़िरी इच्छा मैं कैसे ना पूरी करती? और माँ ही क्यों,,शायद दुनिया की हर औरत सुहागन बनकर ही इस संसार से विदा लेना चाहती होगी।

 

माथे पर बिंदी लगते ही माँ का चेहरा दमक उठा। “देखा माँ ,बाकी तो मैं कुछ नही कर पाई ,पर मैने आपकी ये इच्छा पूरी कर दी। जाओ माँ, बाबूजी आपका इंतज़ार कर रहे होंगे ,क्योंकि अब आपकी माँग तो वही सजायेंगे ना?” मैं बुदबुदाई और प्यार से उनका मुँह सहलाते हुए मैंने उनके गाल पर अंतिम चुंबन अंकित कर दिया।

 

 

कल्पना मिश्रा 

कानपुर

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