लता – कमलेश राणा

बड़े अरमानों से रक्खा है बलम तेरी कसम

प्यार की दुनियां में ये पहला कदम। 

कमोबेश हर लड़की जब ससुराल में अपने पति के साथ गांठ जोड़कर महावर भरे पैरों से प्रवेश करती है तो उसके दिल और दिमाग में यही विचार चल रहे होते हैं चाहे वह किसी भी धर्म, जाति या प्रांत की हो। 

लता भी इन्हीं सुहाने सपनों को अपनी पलकों में समेटे शिरीष के साथ नवजीवन में प्रवेश कर रही थी। वह बहुत भावुक और कोमल हृदय की स्वामिनी थी और शिरीष इसके एकदम उलट स्वभाव का था संवेदनाओं से दूर दूर तक उसका कोई नाता नहीं था प्यार जताना तो मानो उसने सीखा ही नहीं था या इसे वह एक मर्द होने के नाते औरत के सामने झुकना समझता था। उसकी सोच थी कि औरत को जितना दबा कर रखा जाये उतना ही वह डर कर रहती है और गृहस्थ जीवन सुखी रहता है। 

वह गाहे बगाहे सबके सामने लता की बेइज्जती करना अपना अधिकार समझता। माता पिता की लाड़ली नाज़ों में पली लता सहम कर रह जाती… हर तरह से समझा कर देख लिया पर वह तो मानो चिकना घडा़ था जिस पर कोई असर नहीं होता कुछ दिन ससुराल में रहने के बाद वह लता को अपने साथ दूसरे शहर ले आया जहाँ वह जॉब करता था। 

यहाँ आ कर तो लता ने उसका एक अलग ही रूप देखा समाज़ से कटा हुआ एक ऐसा इंसान था जो अपने खोल के अंदर ही सिमटा हुआ था हर इंसान पर अविश्वास था उसे। वह लता को भी किसी से नहीं मिलने देता शायद उसकी सच्चाई उजागर होने का भय था उसे । वह जरूरत की हर वस्तु यहाँ तक कि चीनी, चाय पत्ती और साबुन तक ताले में रखता और अपने हाथ से जरूरत भर का सामान देता कहीं वह ज्यादा खर्च न कर ले कोई शिकायत करने पर शरीर पर लाल नीले निशान तोहफे में मिल जाते उसे। 




उफ्फ.. न जाने किस मिट्टी की बनी थी वह सब सहती रही पर मज़ाल है जुबान से एक भी शब्द किसी से कहा हो मायके या ससुराल में जब भी बाहर निकलती मुँह से हमेशा फूल ही झरते उसके पूरे मोहल्ले में उसकी व्यवहार कुशलता के चर्चे थे।  

उनके घर से सटा घर था मैं यदा कदा उनके घर चली जाती तो बहुत अजीब सा लगता । एक बार मैंने पूछा.. आंटी आप कुछ कहती क्यों नहीं? 

क्या कहूँ बेटा और किससे कहूँ? उन माता पिता से जिन्होंने विदा करते समय अपनी इज्जत का वास्ता देते हुए कहा था कि उसी घर के किसी कोने में मर जाना पर जग हंसाई करा के हमारी नाक मत कटवाना या उन सास ससुर से कहूँ जिन्होंने इस उम्मीद में अपने बिगडैल बेटे को मेरे पल्लू से बांध दिया कि शादी के बाद सब सुधर जाते हैं।

मैंने अपने नाम के अनुरूप एक कल्पना की थी पति के रूप में एक मजबूत वृक्ष की जिससे लिपट कर स्वनाम को धन्य करते हुए आकाश की ऊंचाईयों को छूने की पर इनके जैसे ठूंठ की तो बिल्कुल नहीं जिसमें कोई भाव ही नहीं… पर मैं हार नहीं मानूँगी मैं इनको छोड़कर नहीं जाऊंगी इनके आसपास लिपटती ही रहूँगी देखती हूँ कब तक इनके दिल में प्यार की कोंपल नहीं फूटती.. धैर्य के साथ बस उस पल का इंतज़ार कर रही हूँ .. अगर मैं चली गई तो इस ठूंठ के वृक्ष बनने की संभावना बिल्कुल खतम हो जायेगी। 

मैं धीरे धीरे इनका सोया हुआ आत्मविश्वास जगाने की कोशिश कर रही हूँ और मुझे पूरा विश्वास है कि एक दिन मेरी कोशिश कामयाब होगी और समाज़ में इनकी अलग पहचान और इज्जत होगी । 

उनकी इस दृढ़ इच्छाशक्ति ने बहुत प्रभावित किया मुझे और दिल से यही आवाज़ निकली.. हे प्रभु!!! इनके विश्वास का मान रखना। 




फिर आंटी के शरीर में परिवर्तन दिखने लगे वह माँ बनने वाली थी अब शिरीष अंकल जब देखो तब फलों से भरी थैली लाते दिख जाते उनके चेहरे पर अब वैसी खामोशी भी नहीं दिखती थी। कई बार दोनों शाम को घूमने भी निकल जाते वापस आते समय कई लोगों से हाय हलो भी हो जाती उनके प्रति लोगों की धारणा बदलने लगी थी। 

एक दिन उनके घर बेटे की किलकारियां गूंजने लगीं इसके बाद तो जीवन का उल्लास चेहरे पर दिखने लगा था उनके मेलजोल बढ़ने के साथ सामाजिक कार्यक्रमों में भी उपस्थिति दर्ज होने लगी उनकी.. आश्चर्य होता था कि यह गुण उन्होंने कहाँ और क्यों छुपा रखे थे अब तक। 

 मैं भी समय के साथ परिपक्व हो रही थी और इस इज्जत के पीछे लता आंटी की मेहनत , धैर्य और इंतज़ार को बखूबी समझ रही थी जिनके प्यार ने उनमें नये जीवन का संचार किया था। मैदान छोड़कर भागने में तारीफ नहीं है तारीफ तो तब है जब स्थितियों का डटकर सामना किया जाये और अनुकूल बनाने का भरसक प्रयास किया जाये। 

अब वह कह सकती थी.. 

मेरे दिल ने जो माँगा मिल गया

हो गई प्यार की हर तमन्ना जवां

#इज्जत

स्वरचित एवं अप्रकाशित

कमलेश राणा

ग्वालियर।

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