खूबसूरत छल – शुभ्रा बैनर्जी : moral stories for adults

अनुपमा एक बैंक में नौकरी करती थी।एक साल पहले ही कानपुर शहर में ट्रांसफर करवाया था उसने, पंकज से शादी होने की वजह से।पंकज भी एक निजी कंपनी में असिस्टेंट मैनेजर थे।कंपनी की तरफ से जो घर मिला था वह अनुपमा के बैंक से बहुत दूर था,इसलिए उन्होंने पास में ही मित्तल अंकल का घर किराए पर लिया था।

उस घर में आकर अनुपमा को कभी अपनों की कमी खली ही नहीं।अंकल रिटायर हो चुके थे,आंटी गृहणी थी।उनका एक ही बेटा था जो दो साल से विदेश में नौकरी कर रहा था।

आंटी शिक्षित महिला थीं।अखबार पढ़ने का इतना शौक कि बिना अखबार पढ़े नाश्ता भी नहीं बनाती थीं।अपने खाली समय में आस-पड़ोस के बच्चों को ट्यूशन पढ़ातीं थीं वह।अक्सर सुबह जब वॉक पर उनसे मुलाकात होती थी,देश की हर खबर उनसे मालूम हो जाती थी।

कहानियां पढ़ने का भी शौक था उन्हें।उनके मुंह से कभी किसी की बुराई नहीं सुनी थी।झूठ बिल्कुल भी सहन नहीं होता था उनसे,ऐसा अंकल जी ने बताया था।रविवार को या तो अनुपमा की दावत हो जाती थी उनके यहां या उन्हें बुला लेती थी वह।

ऊपरी हिस्से में रहते थे अनुपमा और पंकज,निचले हिस्से में अंकल और आंटी।अनुपमा ने अंकल को हमेशा असहज देखा उससे बात करते समय।एक दिन बैंक में अंकल जी आए तो काउंटर में बैठे लिपिक ने मजाक उड़ाते हुए कहा”लो भाई,आ गए विदेशी बेटे के पिता।

वही सवाल फिर पूछेंगे,अपनी पर्ची फाड़ेंगे और चुपचाप चले जाएंगे।अनुपमा कुछ समझी नहीं।मित्तल अंकल ने उसे देखा नहीं था, क्लर्क से पूछने लगे”बेटा ज़रा चेक करके बताना ना ,अमेरिका से पैसे आया क्या?”वही क्लर्क झुंझलाते हुए बोला “अंकल जी पिछले दो सालों से यही सवाल हर महीने पूछें हैं आप,और हर बार आपको जवाब पता ही रहता है-नहीं।आप थकते नहीं क्या, बार-बार बैंक आकर यहीं सवाल पूछते -पूछते?”

अंकल जी मुस्कुराए ,और पैसे निकालने की पर्ची फाड़ दी।अनुपमा को बेहद आश्चर्य हुआ।अपनी जगह से उठकर तेजी से अंकल जी के पीछे गई।दरवाजे पर ही रोका उन्हें,तो उनके चेहरे पर लाचारी के भाव दिखे अनुपमा को,मानो चोरी करते हुए पकड़े गएं हों।

दरवाजे के बाहर खड़ी ऑटो दिखाकर बोले”वो देखो बेटा , तुम्हारी आंटी के साथ महीने की शॉपिंग करने निकला हूं।मेरी पेंशन तो है अच्छी खासी,इतनी कि हमारा गुज़ारा हो ही जाता है।तुम्हारी आंटी को बड़ा भरोसा है अपने बेटे पर।

जाने से पहले अपनी मां को बोल कर गया था,कि पैसे भेजेगा हर महीने।तुम्हारी आंटी अपने शौक की सारी चीज़ें उन्हीं पैसों से खरीदें,ऐसी इच्छा थी ,राजन की।शुरू में कुछ महीने तो भेजे उसने पैसे,फिर बंद कर दिया भेजना।

मैं कभी कह नहीं पाया तुम्हारी आंटी से यह सच्चाई।बड़ा दुख पहुंचेगा उन्हें यह जानकर ,कि जिस बेटे को पढ़ाने के लिए उसने अपने शौक ताक पर रख दिए,वही बेटा लायक होकर भी पैसे नहीं भेजता।तुमसे विनती है मेरी,उसे कुछ मत बताना।

हर महीने अपनी लिस्ट लेकर मेरे साथ ऑटो में आती है बैंक,फिर हम शॉपिंग करने जातें हैं। खरीदारी करते समय उसकी आंखों में अपने बेटे की कमाई का जो सुख दिखता है ना मुझे,मैं वह खो नहीं सकता।

किसी बच्चे की तरह छोटी-छोटी चीजों के प्रति उसका उतावला पन मुझे बहुत अच्छा लगता है।सामान खरीदने के बाद जब वह गर्व से मुझे ताना देती है अपने बेटे का पैसा खर्च करने का,उसकी आंखों में ममता का अपार सागर दिखता है मुझे।

मैंने कभी उससे नहीं बताया कि राजन अब पैसे नहीं भेजता, तुम भी मत बताना,बेटा।जब मुझे पता चला कि तुम इसी बैंक में आई हो नौकरी पर,मैं बहुत डर गया था कि तुम्हें सच्चाई पता लग जाएगी तब तुम अपनी आंटी को बता तो नहीं दोगी।”

अनुपमा अवाक होकर एक सारे हुए पिता और विजयी पति को देख रही थी।इतने रूप भी हो सकतें हैं पुरुष में,इसकी उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी।अपनी जीवनसंगिनी के अभिमान को जिंदा रखने के लिए एक पति महीनों से झूठ बोल रहा था अपनी पत्नी से।

चेहरे पर एक भी शिकन नहीं थी,ना ही बेटे को कोसा उन्होंने एक भी बार।अपने बेटे के जल को सहर्ष स्वीकार कर लिया था उन्होंने और अब अपनी पत्नी को “मां” के अभिमान से सिंचित कर रहे थे।

अनुपमा कुछ बोल नहीं पाई बस झुककर उन्हें प्रणाम कर लिया।अपनी जवानी की आहुति देकर जिस पिता ने अपने बेटे का भविष्य गढ़ा,वह कैसे बद्दुआ दे सकता है बेटे को।

शाम को सोचा अनुपमा ने आंटी से मिलने का।पंकज के आते ही दोनों मित्तल अंकल के घर पहुंचे।आंटी अभी-अभी शायद फुर्सत हुईं थीं सामान रखकर।अनुपमा को देखकर बहुत खुश हुईं वे और बोलीं”चल अंदर,मैं दिखाती हूं क्या -क्या लाई हूं आज मॉल से।

बड़े अच्छे -अच्छे ऑफर थे, देख ना क्या-क्या खरीद लिया है मैंने।तेरे अंकल तो चिढ़ाते ही रहतें हैं कि बेटे के पैसे को उड़ाती रहती है,पर मैं खूब खरीदारी करतीं हूं। बर्तन और रसोई का सामान खरीदना मुझे बचपन से पसंद है।

“आंटी जी की बातें काटते हुए अंकल ने कुछ बनाने का आग्रह किया तो आंटी झट से बोलीं”हां -हां मुझे पता है,आपको भी इनके बहाने एक कप चाय मिल जाएगी।वैसे तो आपको मैं देती ही नहीं।

“उन दोनों की नोंक-झोंक सुनकर अनुपमा जीवन की सत्यता को जानने लगी कि पति-पत्नी का साथ कितना अटूट और अद्भुत होता है।एक अपनी संगिनी को खुश देखने के लिए झूठ बोलता है,दूसरा झूठ को सच बना लेता है।

आज दोपहर को आंटी का फोन आया तो अनुपमा घबरा गई,क्योंकि आंटी वक्त-बेवक्त  कभी फोन नहीं करती थीं।उन्होंने अंकल की तबीयत खराब होने की बात बताई।अनुपमा छुट्टी लेकर तुरंत पहुंची,तब तक आंटी ऑटो बुलाकर अंकल को लेकर बैठ चुकीं थीं।अनुपमा भी उनके साथ हो ली।

हॉस्पिटल में भर्ती करके शाम को आंटी को लेकर घर पहुंचने पर अनुपमा ने आंटी को खाना बनाने के लिए मना कर दिया।जल्दी से खाना तैयार करके आंटी को आवाज दी तब आंटी पूजाघर में थी।आंखों में आंसू लेकर निकलीं वो और बोलीं,”राजन को फोन कर रहीं थीं,लग ही नहीं रहा।व्यस्त होगा शायद काम में।रात को करूंगी।”

“उसे आ जाना चाहिए अभी,अंकल की तबीयत ठीक नहीं है”अनुपमा ने कहा।

“नहीं-नहीं,कुछ नहीं होगा इन्हें,बहुत सख्त जान हैं।इनकी इच्छा शक्ति बहुत दृढ़ है।जल्दी ही अच्छे हो जाएंगे,तुम देखना।अगर इन्हें पता चला‌ कि मैंने राजन को बुला लिया है,अच्छा नहीं लगेगा।उससे तो बात होती ही रहती है हमारी।

जब उसे समय मिलेगा ,वह खुद ही आ जाएगा।”आंटी का आत्मविश्वास देखकर अनुपमा दंग रह गई।जब अनुपमा ने कुछ पैसे देने की बात कही एडवांस के तौर पर, आंटी ने मना कर दिया यह कहकर कि राजन तुरंत भेज देगा।

अगले दिन सुबह-सुबह आंटी अनुपमा के बैंक जाने से पहले ही आईं और भरे गले से एडवांस मांगने लगीं।शायद दवाइयां लानी थीं उन्हें।अनुपमा के हांथों पैसे लेकर बोली “अंकल से मत कहना इस बारे में ,उन्हें अच्छा नहीं लगेगा।

बहुत स्वाभिमानी हैं।”अनुपमा‌ने उन्हें निश्चिंत किया कि नहीं बताएगी अंकल को कुछ।जाते हुए गंभीर आवाज में बस इतना ही कहा”अनु ,तुम्हें पता है,पिछले कई महीनों से राजन ना तो बात करता है और ना ही पैसे भेजता है।

“क्या !आपको यह बात पता है?”अनुपमा ने चौंकते हुए पूछा।”हां,मैं कैसे नहीं पढ़ पाऊंगी अपने पति की आंखों का झूठ।उन्हें इस बात से संतोष है कि मुझे कुछ नहीं पता,बस इसीलिए मैं भी अनभिज्ञ बनी रहतीं हूं।हर महीने मुझे साथ लेकर बैंक जाते हैं,और जब दरवाजे से बाहर निकलते हैं,मैं देखती हूं एक टूटे हुए पिता का झुका कंधा।

मुझे पता है अपनी पेंशन से ही मेरी सारी फरमाइशें पूरी करतें हैं,पर मुझे राजन की कमाई बतायें हैं।पिता हैं ना,मां के सबसे प्रिय को झूठा और मक्कार कैसे बताएं?मैं भी उनके झूठ को सच बना कर जी रहीं हूं।हमें अपनी औलाद के भीख की जरूरत नहीं।

मां होकर अपने बेटे के लिए अपशब्द नहीं कह सकती और ना ही पिता होकर अंकलजी कुछ कह सकतें हैं।हम दोनों झूठ को ही सच मानकर खुश रहतें हैं।”

अनुपमा आज फिर से अधिक थी।इन पति -पत्नी का एक दूसरे से किया हुआ खूबसूरत छल भावुक कर गया उसे।

शुभ्रा बैनर्जी 

#पुरुष

20 thoughts on “खूबसूरत छल – शुभ्रा बैनर्जी : moral stories for adults”

  1. बहुत ही मार्मिक,आज का सच।
    न जाने क्या होता जा रहा है इस जनरेशन को।

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    • यही हाल है आजकल बच्चों का मां-बाप भी कहीं तो किसे कहें किसको सुनाएं आखिर और औलाद तो अपनी ही है ना

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  2. अनुपमा क्या तुमने राजन का सच जानने की कोशिश की?हर सिक्के के दो पहलू होते हैं।अपने मान बाप की आंखों का तारा आखिर क्यों बात भी नहींकर पा रहा।पैसे भेज नही पा रहा। मां पिता के दुख दर्द से तो तुमने सबका परिचय करा दिया।पर राजन?राजन की छवि तो विलेन वाली बन जा रही है।देखो तुम कोशिश करो,आज ही पता करने की,राजन कैसा है,किस हाल में है?शायद तुम्हें आगे भी कुछ लिखने को मानवीय संवेदनाओं को समझने का मौका मिले।
    उम्मीद है अगली किश्त राजन के बारे में होगी।उसके परिवार,पत्नी,बच्चों k बारे एम होगी।

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  3. बहुत ही हृदयस्पर्शी ।
    आज की सत्यता का प्रतिबिंब।

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  4. हो सकता है कि राजन अब इस दुनिया में ही नहीं रहा हो।

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