एक प्लेट हलवा (भाग 1) – शिप्पी नारंग

जगदीश प्रसादजी चुपचाप बैठे हुए बड़ी बहू गीता की बातों को सुनते जा रहे थे लग रहा था कि किसी भी समय वो अपना धीरज खो बैठेंगे, पर किसी तरह उन्होंने अपने-आप को काबू में रखा हुआ था | गीता थी कि अनवरत बोलती जा रही थी | बात बस इतनी सी थी कि पिछले ३-४ दिन से जगदीश प्रसादजी के दांतों में कष्ट हो रहा था दर्द से बेहाल थे | डॉक्टर को दिखाया तो उसने दांत को निकलवाने की सलाह दी थी पर दर्द के कारण ये संभव न था, अत: डॉक्टर ने दर्द कम करने की दवा दी थी व कहा था कि दर्द खत्म हो जाए तभी दांत निकाला जाएगा | 

दांत दर्द की वजह से वे कुछ खा-पी नहीं पा रहे थे इसीलिए बहू को खिचड़ी बनाने के लिए कहा था पर उसने दो सूखी चपाती और सूखी सब्जी बेटे के हाथ भिजवा दी थी | जगदीश प्रसादजी ने थाली को हाथ भी नहीं लगाया और अब बहू गीता जोर जोर से चिल्ला चिल्ला कर बोल रही थी कि जब खाना नहीं होता तो पहले से ही बता दिया करो, कितना भी करो इनके नखरे नहीं खत्म होते | 

वो ये बात समझने के लिए तैयार ही नहीं थी कि दांत-दर्द की वजह से ससुरजी चपाती चबाने में असमर्थ हैं, और गुस्से में थाली उठा कर बाहर चली गयी | जगदीश प्रसादजी ने एक गहरी सांस ली और अपनी छड़ी उठा कर अपने लंगोटिया दोस्त कैलाशनाथजी के घर की ओर चल दिए | आज उनका दिल बहुत उदास था |अपनी दिवंगत पत्नी की याद उन्हें आने लगी ओर सड़क के किनारे बने एक बेंच पर वे बैठ गए | अतीत ने तीव्रता के साथ उनकी यादों में प्रवेश किया |

जगदीश प्रसादजी सरकारी कार्यालय में सेवारत थे |उनके ३ बेटे थे अनिल, सुनील और राजेश | तीनो ही पढने में अच्छे थे | उनकी पत्नी, कांता एक कम पढ़ी लिखी लेकिन मेहनती व स्वाभिमानी स्त्री थी जो कुशलता के साथ उनके घर का संचालन करती थी | मितव्यता क्या होती है यह जगदीश प्रसादजी ने पत्नी से ही सीखा था इसीलिए महीने के अंत में अपनी पूरी पगार वो पत्नी के हाथ में सौंप देते थे और खुद निश्चिन्त हो जाते थे | 




घर के मामलों में वे कभी भी नहीं बोलते थे पर पत्नी को जब भी उनकी सलाह की ज़रुरत होती तो वे हरदम उसके साथ होते थे | समय के साथ उनकी उन्नति होती गयी और बच्चे भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर चुके थे. अपने जीवनकाल में उनकी पत्नी ने एक जो सबसे अच्छा काम किया था वो था मकान बनवाना | शहर की एक अच्छी सी कालोनी में उसने अपने सपनो का संसार बसाया था | जगदीश प्रसादजी ने ऑफिस से लोन लेकर, कुछ दोस्तों से मदद लेकर पत्नी के इस सपने को पूरा किया | पहले मकान एक मंजिला था पर जब बच्चे बड़े हो गए तो जगदीश प्रसादजी ने हिम्मत कर के मकान की दो मंजिले और भी बनवा दी |

 उनके तीनो बेटों की शादी हो गयी थी और तीनो बेटों के दो दो बच्चे भी हो गए थे और अब जगदीश प्रसादजी अपने छोटे बेटे के साथ निचली मंजिल पर रहते थे | अनिल व सुनील दूसरी और तीसरी मंजिल पर रहते थे| रसोइयां सबकी अलग अलग थी बस त्यौहार वाले दिन सब एक जगह इकठे हो कर त्यौहार मनाते थे | मुंह से तो कोई कुछ नहीं कहता था पर राजेश की पत्नी को बहुत तकलीफ होती थी के सारा काम मुझे ही करना पड़ता है दोनों भाभियां बस हाथ हिलाने के लिए आ जाती थीं |

 उधर दोनों का कहना था कि भई रसोई तो तुम्हारी है तो जिम्मेदारी भी तुम्हारी है | पर ये बातें कभी भी झगडे का रूप धारण नहीं कर पाती थी क्योंकि कांताजी खुद भी एक मेहनती महिला थी जो उम्र के इस दौर में भी चुस्त दुरुस्त थी | सारा दिन कुछ न कुछ करते रहना उनकी आदत थी | इसी कारण काम को लेकर बहुएं ही उन पर निर्भर थी |

जगदीश प्रसादजी जब भी अपनी पत्नी के साथ बैठते थे तो कहते थे के अब हमें किसी प्रकार की चिंता नहीं है | पेंशन तो आयेगी ही बस आराम से गुजरा हो जायेगा |जवानी में जो सपने मैं तुम्हारे पूरे नहीं कर पाया वो अब करूंगा और पत्नी हल्के से मुस्करा  कर अपनी सहमति प्रकट कर देती थे पर जगदीश प्रसादजी का ये सपना कभी पूरा नहीं हो पाया और एक दिन पत्नी उन्हें अचानक छोड़ कर हमेशा के लिए चली गयी| जगदीश प्रसादजी के तो जैसे दुनिया ही उजड गयी पर होनी को कौन टाल सकता था |




जिस पत्नी ने इतने यत्न से मकान की नींव बनाई थी उसमे अब दरारें पड़नी शुरू हो गयी थी हालात इतने बदल गए थे कि त्यौहार के समय एक दूसरे को बधाई देने में भी सब को कष्ट होने लगा था | 

अगला भाग 

एक प्लेट हलवा – शिप्पी नारंग

शिप्पी नारंग

नई दिल्ली

Ser

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!