एक अजनबी दोस्त – डॉ पारुल अग्रवाल

अपराजिता एयरपोर्ट पर बैठी अपनी उड़ान का इंतजार कर रही थी। नितांत अकेली, बस कोई साथी था तो उसके मन में उठने कई सारे ख्याल। उसके दिमाग में कभी कुछ चलता,तो कभी कुछ। यहां कहने को तो वो अकेली थी पर ये अकेलापन शायद अब उसका सबसे अच्छा साथी था क्योंकि ये उससे कुछ सवाल जवाब नहीं करता था। 

वो कुछ सोच ही रही थी, उसे नहीं पता था कि सामने बैठी एक जोड़ी आखें उसे एकटक देखे जा रही हैं। ये एकटक आंखे थी एक हैंडसम उद्योगपति मानस की, जो अपना व्यापार तो संभालता ही था,साथ साथ नए लोगों से मिलना, लोगों के व्यक्तित्व के बारे में जानना उसको अच्छा लगता था। वो इतने लोगों से मिला था पर अपराजिता की आंखों में छुपे दर्द और चेहरे की मासूमियत कहीं ना कहीं उसको अपनी तरफ खींच रही थी। वो उससे बात करने का मौका तलाश रहा था। 

किसी तरह से उसने ये तो अंदाजा लगा लिया था कि वो और अपराजिता दोनों ही मुंबई जा रहे हैं। अभी भी उड़ान जाने में तीन घंटे बाकी थे। किसी तरह से मनन प्रतिक्षा क्षेत्र में अपराजिता के पास जाकर बैठता है और उससे बात करने की कोशिश करता है। मनन जितना वाचाल, वहीं अपराजिता उतनी ही खोल में बंद। वो अपराजिता से उसका परिचय जानने की कोशिश करता है पर वो उसके किसी सवाल का जवाब नहीं देती। जब अपराजिता कुछ ज्यादा ही परेशान हो जाती है,तब वो उसको सिर्फ इतना कहती है कि मेरी आदत नहीं है अजनबियों से बात करने की। 



ये बार सुनकर मनन कहता है कि मैडम कई बार अजनबी सबसे अच्छे दोस्त भी साबित हो जाते हैं क्योंकि कई बार हम अपनों से दिल की बात नहीं कर पाते पर किसी अनजान से कह सकते हैं।एक अनजान और अजनबी व्यक्ति हमारे लिए तटस्थ भाव से देखता है,उसके लिए हम अच्छे-बुरे कुछ भी नहीं होते। मनन की ये बात अपराजिता को छू जाती है,उसको इस बात में सच्चाई नज़र आती है, फिर भी वो मनन के सामने चुप ही रहती है।

 पर मनन भी हार मानने वालों में से नहीं था। उसने भी अपराजिता का मुंह खुलवाने की ठान ली थी। किसी तरह समय बीत रहा था,तभी अपराजिता का फोन बजता है। फोन को सुनने के बाद अपराजिता और भी परेशान हो जाती है। मनन फिर कहता है कि सोच लो ,कई बार अपना दुख-दर्द कहने से कोई समाधान न मिले पर मन जरूर हल्का हो जाता है और फिर कौन सा हम लोग भविष्य में मिलने वाले हैं।

 आप अपनी समस्या जैसे आईने को बता रही हों वैसे ही मुझे  बता सकती हैं। अपराजिता अब अपनी बात कहने को विवश हो जाती है,वैसे भी उसे किसी ऐसे दोस्त की जरूरत थी जो उसको सुन सके। वो कहती है कि मैं अपराजिता किसी से भी पराजित ना होने वाली आज अपनों से ही हार रही हूं। भाई- बहन में सबसे बड़ी ज़िंदगी के हर मोड़ पर त्याग करती आई।

 लगता था कि जो भी कर रही हूं अपने भाई-बहन के लिए ही तो कर रही हूं। जब तक पापा थे तब तक तो सब ठीक था,पर उनके जाने पर स्थिति और खराब हो गई। मैं पढ़ाई में अपने भाई बहन से काफी होशियार थी, जब मेरा बहुत बड़े इंस्टीट्यूट में इंजीनियरिंग में चयन हुआ तो मम्मी पापा ने बोला कि अगले दो साल बाद भाई की भी फीस जमा होगी,फिर तुम लोगों की शादियां भी करनी है।तुम तो फिर भी होशियार हो कुछ न कुछ कर लोगी, पर बेटे को खाली नहीं बैठा सकते, इस तरह से पहला बलिदान हुआ फिर समय बीता, दिल का दौरा पड़ने से पापा चले गए।

 इन्हीं सबके बीच मैंने अपनी योग्यता के बल पर बैंक अधिकारी की नौकरी प्राप्त की, भाई तो मां के प्यार में पहले ही बिगड़ चुका था तो उसने आगे पढ़ाई भी बंद कर दी, बहन भी सिर्फ अपना सोचती थी,मेरे को लगता था कि अभी छोटी है शायद इसलिए ऐसा स्वभाव दिखाती है, खैर में तो अपनी नौकरी में व्यस्त रहती थी। अब इतना पैसा तो घर में मेरी नौकरी से आ रहा था कि सबके खर्चे आराम से चल रहे थे। सबके लिए में सिर्फ पैसा कमाने का एक साधन बन गई थी। मेरे साथ में काम करने वाले एक लड़के ने मेरे सामने शादी का प्रस्ताव रखा। पर मेरी मां को मेरी शादी से भी दिक्कत थी क्योंकि उनको कहीं ना कहीं लगता था कि मेरी शादी के बाद घर कौन चलाएगा। 

उनका कहना था कि मैं स्वार्थी हो रही हूं, अपने छोटे भाई-बहनों को ना देखकर सिर्फ अपना सोच रही हूं। मेरे को शादी करनी है तो पहले मेरे को अपने भाई-बहन को सेट करना चाहिए। उस दिन मेरे को बहुत दुख पहुंचा,लगा मां भी अपनी नहीं है।

 घर के चक्कर में मेरे कोई दोस्त भी ना बने। बस यही सब सोचकर अपनों से ही घबराकर मैने अपना ट्रांसफर मुंबई ब्रांच में ले लिया, घर लायक खर्चा तो मैं वहां से भी भेजती रहूंगी। मनन जो उसकी सारी बातों को निशब्द सुन रहा था,उसने कहा सही मायने में अपराजिता हो तुम, मैं सिर्फ तुम्हें इतना कहूंगा कि मुंबई जाओ, अपनी ज़िंदगी जियो और नए-नए दोस्त बनाओ। 

क्या पता कब तुम्हें हमसफर मिल जाए। मनन से बात करके अपराजिता को काफ़ी राहत मिली। उसे लगा सच में कई बार किसी अजनबी के सामने दिल खोलना अपनों से भी ज़्यादा आसान होता है।  उसने मनन से उसका परिचय जानना चाहा तो मनन से सिर्फ इतना कहा हम लोग ऐसे ही मिल गए।

 अगर हम लोगों की तकदीर में आगे भी मिलना लिखा होगा तो हम जरुर मिलेंगे। अभी के लिए सिर्फ एक अनजान दोस्त के रूप में मेरा परिचय याद रखो। अपराजिता  आज तक ऐसी अच्छी सोच वाले लड़के से नहीं मिली थी। इतने में ही उड़ान की घोषणा होने लगी। दोनों एक दूसरे के आने वाले जीवन की शुभकामनाएं देकर अपने गंतव्य की तरफ चल पड़े।

सच में कई बार एक अजनबी भी सच्चा दोस्त बनकर जीने की नई राह दिखा जाता है। हर दोस्ती दिवस पर अपराजिता अपने उस अजनबी दोस्त को जरूर याद करती है।

#दोस्ती_यारी

 डॉ पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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