दहलीज के पार – सुषमा तिवारी

बीती रात बड़ी भयंकर आँधी आई और वैशाख के महीने में आषाढ़ सा पानी बरसा। राधा बहू को यह सौंधी खुशबु वाली भोर बड़ी भाती हालांकि वह जानती थी कि यह सुख क्षणिक है और दिन चढ़ते ही सूरज की तपिश फिर प्रचंड हो जाएगी ठीक ठाकुर साहब के मिज़ाज की तरह। वे तो आज सुबह तड़के ही उठकर चले गए थे। आगामी चुनाव से संबधित कोई काम था। असोरे से झाँककर देखा तो नीचे आँगन में बड़ी माँ अभी भी खाट पर लेटी थीं। हल्की कराह सुनकर राधा सीढियों से नीचे आ गई।

” का हुआ बड़ी माँ? मन ठीक नहीं का?”

उसने बड़ी माँ का माथा छुआ तो हल्की तपिश महसूस हुई।

” हाँ बारिश बंद हुई तो सोचे आंगन में ही सो जाएँ, बेचैनी हो रही थी। कनिया! तू आज इतनी सुबह कैसे दर्शन दे दी? जब तक बिंदिया ना आ जाए तू तो उतरती नहीं अपने कमरे से?”

बड़ी माँ ने कराहते हुए करवट बदली।

राधा मौन रही। हरे हरे खेतों में कुलाँचे मारती राधा जब बड़ी सी हवेली में कैद हुई तो उसका कमरा ही उसे थोड़ी राहत देता था। खिड़की से दूर तक हरे खेत दिखाई पड़ते थे। बिंदिया ठाकुर साहब के खेतों में काम करती थी साथ ही घर पर राधा की मदद भी। उसके हाथ पैरों का उपटन-मालिश, सर में तेल लगाती और सबसे बड़ी बात दुनिया जहान की बातें करती थी। सुबह-सुबह बिंदिया आती थी राधा को स्नान और रसोई में मदद करवाकर, रात का बचा खाना अपने तीन बच्चों के लिए ले जाती। इस बात के बड़ी माँ जहर हुईं रहती थीं राधा पर मगर वह जानबूझकर रात को ज्यादा बनाती थी बिंदिया के लिए।

” बहू जी!!” बिंदिया की आवाज सुनकर राधा लपक कर ड्योढी तक आ गई।

” कहाँ रह गई थी बिंदिया? सब ठीक? बच्चों को भूख लगी होगी?” राधा ने आवाज को दबाते हुए पूछा।

” का बताएं बहू जी! रात बड़ी तेज आँधी चली। मकान की दीवार फूस की ठहरी, झेल ही नहीं पाई ईश्वर का प्रकोप। छत तो पहले से ही टपकती है ; बस उसी चक्कर में हम रातभर दीवार पकड़े खड़े रहे। भूख और नींद से व्याकुल दो जने तो चना – चबेना खाकर सोने गए, ये बड़की साथ चली आई। हम सोचे कि आपको बता दें आकर वर्ना इन्तेज़ार करोगी “

राधा ने बड़की को देखा जिसका असली नाम सबिता था। वह स्कूल भी जाती थी। अपने नसीब से उलट बिंदिया उसके लिए बड़े- बड़े ख्वाब देखती थी। उसके हाथ में सुन्दर सा गोल गोल आँखों वाला मेमना था।

बड़की के मेमने को देख उसे अपने बचपन के दिन याद आ गए। ऐसे ही अल्हड़ सी वो भी खेतों में मेमनों के पीछे भागती रहती और अम्मा की डाँट सुनती,

” का करती है रधिया? हमे भी अपने बाबूजी से डाँट सुनवाएगी का? भले घर की लड़कियाँ ऐसे खेतों में नहीं घूमती हैं, और ये मेमने से काहे नेह लगाती हो? पता है ना कल को किसी की थाली में परोसा मिलेगा और दादी से कहानियाँ सुना करो! जिससे नेह लगाओगी प्राण वही अटके रहेंगे और अगला जनम उसी का पाओगी समझी?”



यह सुनकर राधा का मन दुखी हो जाता था। मांसाहार से उसी पल मन उठ गया उसका। राधा बीते दिनों के यादों के खंडहर से वापस अपने महल में सचेत लौट आई।

” ई मेमना तो बहुत प्यारा है?” राधा ने बड़की के गोद में पड़े मेमने को सहलाते हुए कहा।

बड़की मुस्कुरा दी पर बिंदिया खिसियाते हुए बोली,

” का कहें बहू जी? ई बढ़ती जा रही है पर बुद्धि जैसे एड़ी के नीचे! रात को आँधी में भी इसे अपनी जान से ज्यादा बकरी के मेमनो की पड़ी थी।”

” अच्छा! एक काम कर, आज काम मैं कर लूँगी तू जा अपना घर देख।”

” घर! घर बचा ही कितना? वो बहू जी बड़ी माँ से थोड़े पैसे दिला देती अगर तो… मुझे दीवार बंधवानी है। सयानी लड़की है, ऐसे खुले खुले नहीं रह सकते ना? मैं मजदूरी करके पाई पाई चुका दूंगी “

राधा जानती थी बड़ी माँ फूटी कौड़ी ना देगी और वही हुआ बड़ी माँ ने साफ मना कर दिया। स्त्री होकर भी स्त्री के लिए दया भाव नहीं! जाने किसके किए गए अत्याचारों का बदला ये औरते दूसरी औरतों से ही लेती हैं।

” बहू जी! अगर ठाकुर साहब से बात करतीं आप तो… आज एक बांस भी मिल जाता तो काम हो जाता। और वो मुखिया जी से बात करवा देतीं हमारा भी पक्का मकान बन जाता तो… “

” मैं कुछ करती हूँ। “

राधा बस इतना ही कह पाई हालांकि उसे अच्छी तरह ज्ञात था कि उसके हाथ में कुछ भी नहीं। ऐसे कमज़ोर पलों में अम्मा को और बड़े भैया को कोसने लगती थी। दस जमात पढ़ा कर कौन सा उपकार कर दिया जो हैसियत फूटी कौड़ी की नहीं। ठाकुर साहब से कितना संवाद होता ही था जो इतनी निजी मदद माँग सके? दोनों के मध्य कठोर सी जैसे पथरीली जमीन है कोई। अपने मनोभावों की बारिश यूँ ही अचानक जाकर कैसे कर दे बिंदिया। वैसे भी वो बारिश बेकार है जिसे पहाड़ों पर फिसलते, समंदर पर बरसते और मिट्टी में जज्ब होते ना देखा जा सके। पथरीली सड़क पर होने वाली बारिशें अक्सर गंदी नाली का विस्तार भर होतीं है। उसे यकीन था बड़ी माँ से मिला उत्तर उनके उत्तर का पर्यायवाची ही होगा।

अचानक उसे अपनी हैसियत बिंदिया से भी कम नजर आने लगती थी। वो खुल कर माँग तो सकती थी लोगों से। राधा को समझ ही नहीं आ रहा था कि कैसे समझाए वो बिंदिया को कि वो खुद कितनी असहाय है। अम्मा की याद आ गई और उनपर गुस्सा भी चढ़ आया। बड़े घर का ख्वाब बांधे साँझ से सबेर कर देती थी। क्या मालूम नहीं था कि भौतिक जरूरतों की पूर्ति अलावा अपने मानसिक अधिकारों से कितनी गरीब रहेगी वो?

मन में कचोट सी उठी। वो स्वयं भी तो समाधान के स्थान पर समस्याओं को वरीयता देते आई है। दुखी होकर कौन सा दुख खत्म होता है? दुख को और खुराक दी जा रही है बस! इक उम्र तक ये वेदनाऐं जब संग्रहित होकर उन पर फफूंदी लग जाएगी तब क्या होगा?

” क्या मैं भी ऐसी ही हो जाऊँगी?”



फ़िर कुछ दिनों तक बिंदिया नहीं आई। बड़ी माँ भी ताने दे रही,

” कहा था ना ये लोग मतलब के साथी हैं, देखा न, एक बाँस ना दिया तो कैसे गायब हो गई? राधा को बहुत बुरा लग रहा था पर चिंता में ख़बर भिजवा कर हाल मँगवा लिया। पता चला कि दीवार बांधने के लिए हरिया ने बाँस दिए थे और बंधवाने में मदद भी की थी जिसके बदले उसके खेतों में बिंदिया को काम करना था। बड़की भी बिंदिया के साथ काम पर जा रही थी। राधा जानती थी बड़की की दसवीं की पढ़ाई है, ऐसे तो नुकसान हो जाएगा पढ़ाई का।

राधा ने हिम्मत करके ठाकुर साहब से बिंदिया के लिए बात करने का निर्णय लिया।

आगामी चुनावी कार्यक्रम की तैयारियों का जायजा ले लेकर आजकल उनकी थकान पहले से ज्यादा बढ़ जाती थी। राधा का उनसे वैसे ही संवाद कम रहता था और इन दिनों शून्य हो चुका था। राधा ने ठाकुर साहब के हाथ से कुर्ता लेकर खूँटी से टांग दिया और हाथ पंखा झलने बैठ गई।

” कुछ बात है क्या जो कहना चाहती हो?”

उनके सवाल पर राधा सकपका गई।

“उन्हह… नहीं.. हाँ… क्यों पूछ रहे हैं?”

राधा को लगा जैसे कृत्रिम प्रेम की खुशबु सूँघ ली हो किसी ने।

” अब उपर छत से बिजली का पँखा टँगा हुआ है और तुम बटन ऑन करने के बजाय हाथ पँखा ले कर बैठी हो तो क्या कहूँ फिर? कह भी दो, क्या परेशानी है?”

राधा ने हिम्मत करके ठाकुर साहब से बिंदिया के लिए बात की। अचानक से जैसे पुरवाई पछुआ में तब्दील हो गई।

उन्होंने अपना संक्षिप्त सा उत्तर सुना दिया,

” किसी एक की वजह से इतना परेशान मत हुआ करो! ।बड़ी माँ से कहकर काम के लिए दूसरी बुलवा लो। तुम इनके चक्कर में ना पड़ो। वैसे भी सरकार के पास बहुत सी योजनाएँ है इन लोगों के लिए। सही कागजात मुहैया कराते नहीं ये लोग कैसे काम होगा? अब एक एक ज़न की सिफारिश तो मैं नहीं कर सकता हूँ ना?”

कई दिनों बाद बिंदिया वापस काम पर आने लगी। चेहरे पर वही चिर परिचित मुस्कान! उसे राधा से कोई शिकायत नहीं थी पर राधा को लग रहा था जैसे बिंदिया को उससे कोई उम्मीद ही नहीं रही वर्ना नाराज जरूर होती। प्रेम नाराजगी की भी प्रतीक्षा करता है। वहीं कहीं उसकी तीव्रता मापी जा सकती है।

एक दिन राधा ने अपनी दो अच्छी साड़ियाँ बिंदिया को छुपाकर दी। वह बहुत खुश हुई,

” बहू जी नारंगी वाली पहनकर तो वोट देने जाऊँगी।”

बिंदिया बार बार साड़ियों को बदन पर लपेट लपेट कर खुश हुए जा रही थी।

राधा मन ही मन हँस रही थी। लोकतंत्र पर सबसे ज्यादा भरोसा उन्हें ही था जिन्हें आज तक कुछ नहीं हासिल हुआ। वोट डालने का दिन सच में उनके लिए किसी पर्व के समान होता था। जाने कौन सी माटी से भगवान ने इन्हें बनाया था जो मजबूर होकर भी, हर बार लूटे जाने के बावजूद भी मन से मजबूत ही दिखते थे।

एक दिन फिर बिंदिया परेशानी में आंचल पसारे खड़ी थी।

” बहू जी! लगता है आपके नसीब में हमसे परेशान होना ही लिखा है पर का करें आप पढ़ी लिखी हो और किससे सलाह ले?”

” का हुआ बिंदिया?”

” दसवीं की परीक्षा के लिए पूरे पाँच सौ का खर्चा आ रहा है, कहाँ से आएगा? हम किस-किस का उम्मीद पूरा करे बहू जी? छोटा लड़का पूछता है कि दूध वाली चाय कैसी लगती है पीने में? हमे धरती मैया के आशीष से पानी मिल जाता पीने को वही बहुत है, दूध कहाँ से लाए? नसीब ऐसा की पियक्कड़ आदमी मिला जो तीन-तीन बच्चे पैदा करके बंगाल भाग गया। जो बीच में कभी आता है तो मार पीट कर रहा सहा छीन ले जाता है। कहता है बड़की का सौदा करके उसके साथ हम बंगाल चले जाएं!! इससे अच्छा जहर खा कर ना सो जाए हम चार प्राणी। “

बिंदिया के आँसू राधा का कलेजा चीर रहे थे। दिल किया कि माँ के झूमके उसे देकर कह दे कि इसे बेचकर अपना काम चला ले और एक बार छोटे को दूध चखा दे पर चिंता इस बात की थी कि बड़ी माँ दस का नोट भी बिंदिया के हाथ में देखती तो ठाकुर साहब से शिकायत लगा देती। अगर यह बात पता चली तो वे लोग गाँव में रहने के भी मोहताज़ हो जाएंगे।

राधा को याद था कि घर से सुई भी गुम हो जाती तो चोरी का इल्ज़ाम बिंदिया पर लगता था। फिर भी बिंदिया आती थी राधा के लिए।

राधा ने इस बारे में ठाकुर साहब से बात करनी चाही तो उन्होंने यह कहकर टाल दिया,



” कल कुछ मेहमान आएंगे उनके लिये अच्छा खाना बना देना। इस बार चुनाव में नेताजी के मदद के बदले गाँव के प्रधान चुनाव में अपना रौब बढ़ेगा, आगे उन्नति की राह खुलेगी।”

राधा ने भारी मन से तैयारी की, “इन भरे पेट लोगों के सत्कार के बजाय बिंदिया की मदद कर देते तो क्या चला जाता?”

बड़ी माँ गोश्त रख कर चली गई, मेहमानों के लिए वही बनाना था। राधा का मन कड़वा हो गया। ठाकुर साहब जानते थे कि घर में भले ही सब खाते हों पर राधा को गोश्त बनाना-खाना बिल्कुल पसंद नहीं था। इस समय किसी बवाल को न्यौता नहीं देने के विचार से राधा ने वह भी बना दिया। राधा ने बिंदिया को नहीं बुलाया। जब उसकी जरूरत के समय वह काम ना आई तो उसे क्या मुँह लेकर बुलाएगी। बासी खाना देकर वह कौन सा एहसान करती है भला!  कुछ दिनों बाद बिंदिया खुद चली आई। लहराती हवा सी।

” बहू जी! लाओ आज ठंडे तेल की मालिश कर दूं। माफ़ करना इतने दिन नही आ सकी। “

बिंदिया के चेहरे पर ऐसे संतुष्टि के भाव देखकर राधा को कभी-कभी जलन होती थी।

” नहीं करानी मालिश बिंदिया और रात का  खाना भी नहीं बचा…”

” अरे बहू जी! खाना छोड़ो। आप लोगों की आशीष से बड़की का परीक्षा बढ़िया से हो गया और छोटा भी कल दूध वाली चाय पीकर खुशी से लोटे पड़ा है माटी में। “

राधा आश्चर्यचकित थी।

” कौनो खजाना पाई का बिंदिया? और हम लोग कौनो भगवान है का जो आशीष देंगे? “

” हमारे लिए तो भगवान हो बहू जी! जो तुम ना कही होती तो कैसे ठाकुर साहब हमारी मदद करते? बहुत दयालू हो आप लोग बहू जी। “

राधा को यकीन नहीं हो रहा था कि ठाकुर साहब ने उनकी मदद की।

” अच्छा बताना जरा कैसे मदद किए ठाकुर साहब?”

” अरे आपके घर मेहमान आए थे तो ठाकुर साहब ने हमारे दो मेमने खरीद लिये थे। जो चाहते तो किसी और से भी सस्ते में ले लेते पर हमसे ही लिए।ऊ बुधिया तो जल जल मरा हूँहह उसके मेमने ताक़ते रह गए। “

राधा काठ सी खड़ी थी। उसे सूझ ही नहीं रहा था क्या बोले? आँखों के सामने बड़की और उसकी गोद में पड़े सफेद मेमने की तस्वीर चलचित्र सी चल रही थी और अपने हाथो से घिन आ रही थी।

आँखों में लगा जैसे रक्त उतर आया हो, बचपन के खेतों वाले सारे मेमनो का रक्त।

” का हुआ बहू जी? का सोच रही हो? “

कुछ नहीं बिंदिया यही की काश पिछले जनम किसी मेमने से ही नेह लगाए होते और तुम्हारे किसी काम तो आ जाते। ये वो नहीं कह पाई पर हृदय चित्कार मार रहा था।

ठाकुर साहब का मिजाज उखड़ा हुआ था, वैसे आज ही नहीं बीते चार दिनों से वो ऐसे ही गुमसुम से रहते थे। राधा से बात करने की पहल उन्होंने खुद वैसे भी कभी नहीं की थी और बड़की के मेमने की कुर्बानी वाली घटना के रोष में राधा ने भी उनसे बात नहीं की थी। ये अलग बात है कि ठाकुर साहब को तो भान भी नहीं था कि राधा किसी बात से नाराज हुए बैठी है और ये बात राधा को अधिक टीस रही थी। इतना समझ आ रहा था कि जिस चुनाव की जोर शोर से तैयारी वो कर रहे थे उसके आने वाले परिणाम शायद उन्हें मन मुताबिक नहीं दिख रहे थे।

नेताजी स्वयं उनके घर पर आ रहे थे उस दिन।

राधा ने घड़ी की ओर देखा और बिंदिया का इंतजार छोड़ पूरीयाँ तलने में व्यस्त हो गई। ये बिंदिया ऐसे पड़ी रहेगी पर आज जाने किस बात का बदला ले रही थी। जल्दी छोड़ो समय पर भी नहीं आई। मन ही मन बिंदिया को कोसते हुए खाने की थाली देखने लगी कि कहीं कुछ रह तो नहीं गया।

” बहू जी!”

बिंदिया की आवाज़ कानो में पड़ते ही राधा गुस्से में पलटी पर उसका सूजी हुई लाल आँखे और पीला पड़ा चेहरा देख सब समझ गई।



राधा झट से उठी और उसे खिंच कर छोटे वाले कमरे तक ले आई। बाहर झांका और उसे वही ठहरने को बोल आँगन में वापस चली आई।

” बड़ी माँ!!”

“हाँ कनिया, कौनो मदद चाहिए?”

” नहीं बड़ी माँ! सारे काम हो गए.. वो बस पूछना था कि भोजन कब परोसना है? “

” अभी जरूरी बातें चल रही है.. हम बतायेंगे तुमको”

बोलकर बड़ी माँ वापस असोरे में चली गईं जहां से वो बाहर मेहमानों की बाते पर्दे की ओट से सुन रही थीं।

निश्चिंत होकर राधा वापस बिंदिया के पास आ गई।

” अब बोलो क्या हुआ? “

” मेरा फूटा नसीब बहू जी.. जब जब सम्भलने की कोशिश की मेरा आदमी पहाड़ सा रोड़ा बन सामने आ जाता है…फिर आया है बंगाल से, ये देखो कितना मारा कल, मुझे भी, बच्चों को भी”

उसने आंचल हटा कर शरीर पर उग आईं लाल धारियां राधा को दिखाई।

राधा सिहर उठी। कलेजा मुँह को आ गया। ऐसे पति के होने का क्या अर्थ?

” कसूर…कसूर क्या था तुम्हारा बिंदिया? “

” बहू जी हम गरीब लोगों का सबसे बड़ा कसूर हमारा गरीब होना ही है। पैसे सबकी जड़। खुशी का कारण, दुख का कारण, दोस्ती का कारण और दुश्मनी का कारण। बहू जी दारू के लिए पैसे घट रहे तो मेरी बेटी का सौदा कर रहा है। बंगाल से ही किसी आदमी को साथ लाया है, उससे कुछ पैसे भी ले लिए है उसने। मैं बोल रही हूं बहू जी जहर खा जाऊँगी बच्चों समेत पर अपनी बड़की नहीं दूंगी उसे “

” बिंदिया… “

अभी राधा कुछ कहती की बड़ी माँ की आवाज़ आई भोजन लगाने के लिए।

 

थाली में एक एक व्यंजन परोसते हुए राधा खून के घूंट निगल रही थी। क्या फायदा ऐसे राजनेताओं, बड़े लोगों का जो गरीब के जीवन में सुख की गारंटी नहीं दे सकते हैं। आखिर ऐसा भी क्या बुरा हो जाएगा अगर एक गरीब उन्नति कर गया तो? उन्नति ना सही उसे अपने हाल में शांति से जीने का हक भी नहीं? जिस देश में स्त्री को देवी के रूप में पूजते है वहाँ स्त्री के खरीद फरोख्त से किसी को दुख नहीं..

शर्म नहीं?

खाने की थाल लगाते हुए ही राधा कुछ ठान बैठी थी।

उसने एक हाथ से अपना पल्लू सम्भाला और दूसरे हाथ से खाने की थाली और बड़ी माँ की ओर बढ़ी।

बड़ी माँ ने थाली की ओर हाथ बढ़ाया ही था कि राधा उनके बगल से होते हुए ओसारे की ओर बढ़ गई। राधा की अप्रत्याशित हरकत से बड़ी माँ की चीख निकल गई।

 

 

“अरे कनियाsss!!! वहाँ कहाँ?? लोक लाज ना सोच रही… देहली के पार मेहमान लोग बैठे है दुनिया भर के sss”

राधा के कानो में सिर्फ बिंदिया की सिसकी गूंज रही थी।

नहीं सुनी उसने बड़ी माँ की दुनियादारी की दी हुई कसमें!

नहीं देखा उसने आज वो लांघ गई थी आँगन की देहली… छोड़ आई अपनी अम्मा की सीख, बाबूजी की पगड़ी की लाज, भैया की धमकियाँ… सब छोड़ आई।

राधा ने थाली टेबल पर रखी तो ठाकुर साहब झट से अपनी कुर्सी से खड़े हो गए।

नेताजी भी स्तब्ध से राधा के ओजपूर्ण चेहरे की ओर टकटकी लगाए देखते रहे जब तक तब तक कि ठाकुर साहब ने उनकी ओर क्रोध मिश्रित आश्चर्य से नहीं देखा। नेताजी झेंप गए।

” ठकुराईन! आप यहाँ क्या कर रहीं है? बड़ी माँ या किसी नौकर से भिजवा दिया होता.. आप भीतर जाएं”

ठाकुर साहब से स्वर को संयमित करते हुए कहा।

” जी! मैं नेताजी से मिलना चाहती थी बस! देखना चाहती थी आगामी हार से यह कितने परेशान है? क्या सच में जनता पर राज करना आता है इन्हें या बस कागजी जीत हार इनके लिए मायने रखती है “

राधा की आवाज सर्दियों की तरह कांपती हुई पर दृढ़ थी।

” ठुकराईन!! आप होश में तो है”

ठाकुर साहब पहचानने की कोशिश कर रहे थे ये सामने राधा ही है या उनकी नजरे धोखा खा रही है? ऐसी जुर्रत और राधा.. क्या काट खाया इसको भला?

नेताजी ने हाथ से इशारा करते हुए ठाकुर साहब को चुप रहने का इशारा किया।

 

 

“हम आपकी बात सुन रहे है ठुकराईन जी! आप खुल कर और शांतचित्त होकर अपनी बात कहिये। यूँ क्रोध में अपनी बात समझाना कठिन होता है, आप बैठिए हम आपकी राय जरूर जानना चाहेंगे.. दरअसल बड़ी ठुकराईन भी पर्दे के पीछे से ही सही अपनी राय जरूर रखतीं थी।”

” जी शुक्रिया! हम यहीं ठीक है… रही बात की तो हमे कोई शौक नहीं राजनैतिक सलाह देने का बस मानवता की रक्षा हो उतना चाहती हूं.. अगर आप जमीनी तौर पर जानना चाहते है कि असलियत क्या है लोगों की पसंद क्या है और आपको वोट क्यूँ कम पड़ रहे है तो आप मेरी बात सुन सकते हैं “

” कहिये, हम आपकी बात सुनेंगे! “

” आपको पता असली भारत गाँव में बसता है और खासकर गरीब के घर में.. आपके असली वोटर यही हैं क्यूँकी घटा इन्हें है और वो पूरा हो जाए इसके ख्वाब यही लोग देखते हैं…बाकी पैसे वालों के लिए कोई सरकार आए जाये इन्हें कोई फर्क़ नहीं पड़ता है “

राधा ने नेताजी को चाव से सुनते देखा तो एक गहरी साँस भरी और बात आगे बढ़ाई।

” आपको पता है मैंने ज्यादा दुनिया नहीं देखी, हमरे घर एक गरीब काम करने आती है आज उसकी बेटी बिकने की नौबत आ गई.. क्या ऐसे बनेगा देश महान? क्या आपके चुनावी वायदों में इनके लिए कोई वायदा है? आप उन लोगों के बीच पहुँचिए, उनकी मदद करिए, यकीन मानिये गरीब एहसान फरामोश नहीं होता है। आप बस बिंदिया जैसे लोगों की मदद करिए, उनके हिस्से के वोट की गारंटी मेरी! जब अपने अपने फायदे की बात कर रहे तो उनके हिस्से के वोट दिलवाने की जिम्मेदारी मेरी!”

राधा का ओजपूर्ण स्वर और तेज देख नेताजी और ठाकुर साहब दोनों देखते रह गए। नेताजी ने कहा

” ये लीजिए मिल गईं हमे आपके गाँव की भावी प्रधान बनने की प्रबल दावेदार!! “



ठाकुर साहब को लगा कपड़े की गठरी सी बंधी जिस राधा को वो लाए थे ये वो नहीं है! उन्हें हमेशा से ही लगा कि बाबूजी के ना रहने पर बड़ी माँ की बात रखने के लिए वो एक ठेठ देहाती लड़की ब्याह लाए थे और कहाँ उनका सपना था शहरी समझदार सी दुल्हन लाते। पर आज राधा का ये रूप देख उन्हें भी लगा कि उसे पहचानने में भूल कर दी शायद, आखिर राधा एक सरपंच की बेटी थी और न्याय व्यवस्था उसके रक्त में थी।

“ठाकुर साहब! अभी एक आदमी को भेजकर उस बिंदिया की मदद करवा दीजिए पहले आप! आगे मैं चाहता हूँ ठुकराईन से बात कर एक महिला टीम का गठन कीजिए जो परिवार स्तर पर जाकर समस्या का पता लगाए। हम सचमुच गाँव का प्रदेश का विकास चाहते है। और खासकर इस बार आपके गाँव के उस हरिया की चाल तो कतई सफल नहीं होने दूँगा चाहे जो करना पड़े। “

ठाकुर साहब ने नेताजी को आश्वासन दिया और उन्हें विदा किया। स्वयं बिंदिया के घर जाकर सारे मामले को गंभीरता से लिया और उस आदमी को पुलिस के हवाले किया। बिंदिया के मनुहार पर उन्होंने उसके पति को धमकी देकर छोड़ दिया। उसे अपने खेतों पर काम का जिम्मा भी दे दिया। बिंदिया ने खुशी से रोते हुए ठाकुर साहब के पैर पकड़ लिए और यह देख कर हरिया जल भुन गया था। उसे अपनी सारी चालों पर पानी फिरता नजर आया।

नेताजी ने राधा के सलाह पर एक महिला घट की नीव रखी जहां गरीब महिलाए आत्मनिर्भरता की ओर अपना पहला कदम रखने वाली थी। नेताजी ने लघु कुटीर उद्योग स्थापित करने के लिए सभी की मदद का वायदा किया और उस ओर वाजिब प्रयास भी शुरू कर दिए थे।

बिंदिया ने वादा किया कि वो घर घर जाकर सबसे विकास की डोर से जुड़ने का आग्रह करेगी।

अंततः सिक्का पलटा और हाथ से फिसलती जीत नेताजी के गले में विजय हार बन गई थी। इसका सारा श्रेय उन्होंने राधा को दिया। और ठाकुर साहब से साफ कह दिया कि आप किस्मत वाले है क्यूँकी मैं बताना चाह रहा था कि आपके यहाँ की प्रधान की सीट महिला सीट हो चुकी है। बड़ी माँ को लेकर मुझे संशय था पर अब राधा को लेकर आश्वस्त हूं, आप लोगों की भावी प्रधान राधा होगी।

“राधा!”

ठाकुर साहब की आवाज पर राधा दौड़ी आई देहली तक और रुक गई।

“देखो मैं क्या लाया हूं तुम्हारे लिए!”

राधा ने देखा दो सुंदर सफेद मेमने… प्रेम से गदगद हो नैनो से गंगा जमुना बह चली। बचपन लौटा दिया था ठाकुर साहब ने उसे।

अचानक से मेमने हाथ से छूट द्वार से बाहर उन खेतों की ओर दौड़े जो राधा अपनी खिड़की से रोज देखती थी।

” अरे भावी प्रधान साहिबा! दौड़िऐ पकडईए अपने मेमने…”

राधा ने गहरी साँस भरी, सारा प्रेम आँखों से ठाकुर साहब पर लुटाते हुए दौड़ पड़ी हरे खेतों में मेमनो के पीछे.. देहली के पार उसकी खुशियो के खुले आकाश में।

 

©सुषमा तिवारी

 

 

 

 

 

 


 

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!