बेघर – विनय कुमार मिश्रा

यहां मत जाओ, वहां मत जाओ, इतनी देर क्यों कर दी! “उफ्फ” हर बात में रोक टोक, हर बात में नाराजगी।

मैं भी गुस्से से खाना छोड़, घर से बाहर एक पार्क की तरफ बढ़ गया। मम्मी के लगातार फोन से परेशान होकर, मैंने अपना मोबाइल फोन ही स्विच ऑफ कर दिया। पार्क के गेट से लगे एक बेंच पर बैठने ही वाला था कि इस ठंड भरी रात में नज़र एक शख्स की तरफ गई। जो एक पतली सी चादर ओढ़े, बिल्कुल अकेला एक बैग लिए बैठा था। कुछ किताबें खोल, उस बेंच से लगे लाइट के नीचे,वो किताबों में नज़रें गढ़ाए हुए था। ये भी शायद मेरी ही तरह गुस्से में घर से आया हो। मैंने अपनी जैकेट की चेन बंद कर पॉकेट में हाथ डाला और वहीं पास में ही बैठ गया। रात के तकरीबन दस बजे होंगे। हम दोनों के सिवा यहां कोई तीसरा नज़र नहीं आ रहा था। इसलिए मेरी नज़र बार बार उसी पर जा रही थी। मगर उसने मुझे एक बार भी नहीं देखा।उसे देख ये महसूस हो रहा था कि उसे ठंड लग रही थी। उत्सुकतावश मैंने ही पूछ लिया

“तुम भी..घरवालों से नाराज हो..क्या..?”

उसने मेरी तरफ देखा..फिर कुछ सोचने लग गया

“मैं आप..ही से पूछ..रहा हूँ”

मैंने फिर से उससे पूछा। उसने पहली बार किताबों को छोड़ मेरी तरफ देख कर कहा

“नही भाई..मैं उनसे क्यूं नाराज होऊंगा,वो तो मुझसे मीलों दूर हैं”

“तो इतनी..रात को यूं यहां..?”

उसने बड़ी उदास होकर कहा




“यहां जिस कमरे में रहता था,उन्होंने अचानक वो खाली करा दिया, उनकी कोई दूर की रिश्तेदार आईं हैं, अब वहीं रहेंगी। एक कमरे की बात हुई है, पर वो परसों से मिलेगा.. कोई होटल ले नहीं सकता अभी..उतने पैसे..”

उसकी बातें खत्म भी नहीं हुई कि उसके मोबाइल पर किसी का कॉल आ गया

“हेल्लो माँ!.. हां माँ.. खाना खा लिया..अभी..अभी खाया माँ.. हां माँ ठीक से हूँ….पापा को बोलना..वो मेरे पैसे के लिए परेशान नहीं होंगे.मैं मैनेज कर लूंगा..नहीं माँ उतनी ठंड नहीं है यहां.. हां माँ मिल जाएगा.. हां माँ.. बाय.. माँ”

फोन रखते रखते उसकी आँखें भीग आईं थीं, उसे देख मैं आत्मग्लानि से भर अपने फोन को तुरंत ऑन किया। मम्मी का फोन अब भी आ रहा था

“हेल्लो, कहाँ है बेटे? कब से फोन कर रही हूँ…घर आ जा जल्दी..पापा ने भी अभी तक खाना नहीं खाया है”

“आ रहा हूँ..मम्मी, अच्छा सुनो..वो आगे वाला खाली पड़ा कमरा, दो दिनों के लिए किसी को मिल सकता है क्या?”

मैंने मम्मी से उस लड़के की पूरी बात बता दी। फोन पापा ने ले लिया

“ले आ उसे भी..और सुन..बात बात पर, घर छोड़ कर नहीं जाते”

पापा की आवाज में मेरे लिए जो दर्द था, उसने मेरी आँखों में भी आंसू ला दिए थे।

“हां पापा..”

मैं उस लड़के का बैग उठा, उसके साथ, घर की ओर चल पड़ा। घर क्या होता है, आज इस बेघर ने..मुझे समझा दिया है.!

विनय कुमार मिश्रा

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