बांँसुरीवाले बाबा – मुकुन्द लाल 

  “अजी सुनती हो!… ड्यूटी पर जाना है, देर हो रही है।… तुम तो सुबह से ही लटक में लाये गये भाई के आगे-पीछे डोलती रहती हो…”

  “आ रही हूंँ!… जरा बैजू को सर्ट पहनने में मदद कर रही थी…”

  “हांँ! हांँ!… सर्ट ही क्यों?… उसके सिर में तेल डालकर बाल भी संवार दो, उसका श्रृंँगार करके चेहरा भी चमका दो… हुंह!… मैंने तुमसे शादी करके भयंकर भूल कर दी” आलोक ने तल्ख आवाज में कहा।

  “अभी क्या बिगङा है?… दूसरी शादी कर लो, तब आटा-चावल का भाव समझ में आ जाएगा” तैश में प्रत्युत्तर में उसकी पत्नी सुरेखा ने कहा।

  कुछ वर्ष पहले जब आलोक बेरोजगार था तो रोजगार पाने के चक्कर में उसकी उम्र कुछ अधिक हो गई, कोई भी अगुआ उसके आगे घास डालने से कतराने लगा, तब उसके पिताजी ने एक निहायत ही गरीब परिवार की लड़की से आलोक की शादी करवा दी। उसकी पत्नी के परिवार में उसके उम्रदराज पिताजी और एक छोटा जन्मजात अंधा भाई था। उसके अंधापन का कोई इलाज नहीं था।

  सुरेखा के पिताजी ने अपने कस्बे में अपनी एक प्राइवेट पाठशाला की स्थापना की थी, जिसमें बच्चों को पढ़ाते थे। बच्चों के द्वारा जो दरमाहा(मासिक फीस) मिलता था उसी से उस छोटे से कुनबे की परवरिश होती थी।

  मास्टर साहब हमेशा चिन्तित और तनाव में रहते थे क्योंकि उसकी पत्नी की मृत्यु हैजा की बीमारी के कारण उचित इलाज के अभाव में हो गई थी और  पुत्र का अंधा होना भी एक कारण था।

  जब तक सुरेखा की शादी नहीं हुई थी तब तक वही उसकी देखभाल करती थी। अंधापन के कारण जो काम वह नहीं कर पाता था, उसमें अपने भाई को पूरे मनोयोग से सहयोग करती थी। हलांकि बैजू के जीवन की गाड़ी उसकी ही देख-रेख में चल रही थी, फिर भी वह हमेशा कहता था अपनी बहन से कि कब तक उसके जैसे अंधे की लाठी बनी रहेगी। तब सुरेखा बेबाकी से कहती थी कि जब तक वह इस धरती पर रहेगी, तब तक उसकी लाठी बनी रहेगी। 



  दो-चार साल पहले आलोक के साथ उसकी बहन की शादी हो जाने के बाद उसका सहारा छिन गया। सुरेखा की विदाई के वक्त वह भाई के गले लगकर फूट-फूटकर खूब रोई थी उसके बेसहारा हो जाने के कारण, बैजू भी अपने को नहीं रोक सका था, वह भी रोने लगा था। उस समय का दृश्य बहुत ही हृदयविदारक था। उसके पिताजी ने अपनी आंँखों के आंँसूओं को पोंछते हुए ढाढ़स बंधाया था उसको बैजू की जिम्मेवारी अपने ऊपर लेने का भरोसा देकर। 

  बैजू उदास-उदास सा घर में रहने लगा। उसके पिताजी जब पाठशाला चले जाते तो उसको घर में सूना-सूना सा महसूस होता था। ऐसी परिस्थिति में ही वह महीनों पहले मन बहलाने की नीयत से मेले  से सुरेखा द्वारा खरीदकर लाई गई बाँसुरी की उसे याद आई। उसने अपनी याददाश्त के आधार पर टटोलकर अपनी कोठरी में से उसे ढूंढ़ निकाला। वह अपना मन बाँसुरी बजाकर बहलाने लगा। 

  इस सृष्टि में ईश्वर प्रत्येक प्राणी को अपने जीवन की नौका को खेने के लिए कोई न कोई गुण या इल्म से उसे सुसज्जित अवश्य करता है। उसकी कृपा का लाभ उसे भी मिला। 

  प्रारम्भ से ही उसे बांँसुरी-वादन में रुचि तो थी ही किन्तु उसका पड़ोसी मनमोहन जो वृंदावन की एक नाटक-मंडली में बांँसुरी बजाने का काम करता था, वह जब भी आता था, उससे निवेदन करके बांँसुरी-वादन का गुर सीख लेता था। उसका भी बहुत बड़ा सहयोग था इस कला को निखारने में। 

  महीनों के अनवरत प्रयास और लगन की बदौलत उसने बांँसुरी बजाना सीख लिया। साल-दो साल लगते- लगते वह बांँसुरी-वादन में पारंगत हो गया। आगे चलकर उसने इस कला में महारत हासिल कर लिया। भजनों और गीतों को आकर्षक तर्ज व लय पर जब वह बांँसुरी बजाता तो श्रोताओं का मन मोह लेता था। 

  उसके पिताजी एक दिन अपनी पुरानी साईकिल से बाज़ार से सब्जी लेकर लौट रहे थे कि सड़क पार करते समय साईकिल का संतुलन बिगड़ जाने के कारण उसकी टक्कर गुजर रही ट्रक से हो गई, जिसमें वह दुर्घटनाग्रस्त हो गया और वहीं पर उसका प्राणांत हो गया। बैजू नितांत अकेला हो गया। 

  श्राद्धकर्म के बाद सुरेखा अपने भाई को अपने साथ ससुराल ले आई थी पुश्तैनी मकान में ताला लगाकर। 

  उस वक्त शोक की घड़ी में आलोक लोक-लाज के भय से कुछ नहीं बोला किन्तु उसकी आंँखों में वह हमेशा खटकता रहता था आर्थिक कारणों से। 

  आलोक भले ही उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से विरोध करे लेकिन वहांँ के लोग उसके बांँसुरी-वादन के दीवाने थे। सुबह किरण फूटते-फूटते घर के आगे बने चबूतरे पर बैठकर उसके द्वारा बजायी गयी बांँसुरी से ऐसी मधुर तान निकलती थी कि लोगों का अंतर्मन आनन्द से झूमने लगता था। श्रोताओं को सुकून मिलता था, उनके अंतस् में सकारात्मक विचारों का मेला सा लग जाता था। किसी किसी के पैर मनमोहक लय व तर्ज पर हर्षातिरेक में थिरकने लगते थे। 



  धीरे-धीरे जनमानस में उसकी पैठ बनती जा रही थी। उस इलाके में बांँसुरी-वादन सुनने वालों का एक दल सा बन गया था, लेकिन आलोक का अपने साले से शीतयुद्ध जारी था। 

  उस दिन टटोलता हुआ हाथ में मुरली लिए हुए वह अपने जीजा के पास पहुंँचा, फिर उसने हर्षित होकर कहा, “जीजाजी!… मैं आपको अभी एक बहुत सुन्दर गीत अपनी बांँसुरी पर बजाकर सुनाउंँगा, मैंने बहुत अभ्यास कर इस पर कामयाबी हासिल की है।.. आपका दिल खुशी से झूम उठेगा” उमंग-उत्साह के साथ उसने कहा। 

  “न तो तुम्हारे गीत से मुझे कोई मतलब है, न बांँसुरी से… यह सब फ़ालतू आदमियों का काम है, निकम्मों का काम है बांँसुरी बजाना और सुनना। आइंदा मेरे सामने इस तरह के बेबाहियात कार्यकलापों जिक्र भी न करना” कड़वी आवाज  में उसने कहा। 

  बैजू का उत्साह ठंडा पड़ गया, उसके चेहरे पर मायूसी छा गई। वह उदास हो गया। 

 ” शर्म करो!… एक दिव्यांग के साथ ऐसा बर्ताव, उसे हतोत्साहित करना कहांँ का न्याय है? कहाँ की इंसानियत है? “वहीं पर घरेलू कामों का निपटारा करती सुरेखा ने कहा। 

  “तुम ज्यादा बक-बक मत कर!… तुम्हारा भाई तो अंधा है ही, लेकिन तुम्हारी आंँखों पर भी पट्टी बंधी हुई है, तुम्हारी बुद्धि भी मारी गई है, तुम चुप ही रहो तो अच्छा है। “

 ” मैं क्यों चुप रहूंँगी, बैजू मेरा सहोदर भाई है, आपको सहारा देना है तो दीजिये, नहीं देना है तो मत दीजिये, लेकिन उसको इस तरह से अपमानित करके उसका दिल मत तोङिये, गैर भी दिव्यांग को मदद करते हैं।… माना कि आप मेरे सर्वस्व हैं, मेरे पालनहार हैं, इसका मतलब यह तो नहीं है कि मैं अपने भाई-बहन के पवित्र रिश्ते को ठुकरा दूंँ, तिलांजलि दे दूंँ… आपसे मुझे ऐसी उम्मीद नहीं थी। मैं अपने भाई को दर-दर की ठोकरें खाने के लिए छोड़ दूंँ… “

 ” मत छोङो!… भाई बंशी बजाएगा, तुम कटोरा लेकर गली-गली घूमकर भीख मांगना। “

 ” छीः!… मैं नहीं सोचती थी कि तुम्हारी सोच इतनी घटिया किस्म की है। “

  बैजू अपनी बहन और जीजा के बीच चल रहे विवाद में हस्तक्षेप करते हुए सुरेखा से कहा, 

” बहन!… मेरे कारण क्यों तुम जीजाजी से झगड़ रही हो, तुम अपनी घर-गृहस्थी संभालो, ईश्वर ने मुझे ऐसा बनाया है तो सहारा भी वही देगा, मेरी जिन्दगी की नैया वही पार लगाएगा” कहते-कहते वह अपने बगल में रखे हुए थैले जिसमें उसके दो-चार कपड़े और बांँसुरी थी, अपनी बांँह में टांग लिया फिर जब हाथ में छङी लेकर टेकता हुआ घर से बाहर निकलने लगा तो उसका रास्ता रोकते हुए सुरेखा ने कहा,



” मत जाओ बैजू!… कहांँ-कहांँ भटकोगे इतनी बड़ी दुनिया में, कैसे अपना जीवन चलाओगे।” 

  “नहीं बहन!… मुझे जाने दो, तुम नाहक परेशान मत हो… जिसका कोई सहारा नहीं होता है, उसका सहारा भगवान होता है…” 

  “मैं भी तुम्हारे साथ चलूँगी…” 

  “अगर तुम अपने भाई के साथ गई, तो मैं तुमसे हमेशा के लिए संबंध विच्छेद कर लूँगा, तुमको तलाक दे दूंँगा” कड़कती व कड़वी आवाज में आलोक ने कहा। 

 ” तुम्हें मेरी कसम बहन!… मुझे तुम अपने हाल पर छोड़ दो, मुझे कोई परेशानी नहीं होगी… भगवान का एक नाम दीनबंधु भी है, मुझे विश्वास है वह मुझे सहारा अवश्य देगा, बेफिक्र रहो बहन। “

  सुरेखा विवश होकर रोती-विलखती रह गई। 

    बैजू छड़ी के सहारे टटोलता हुआ जीवन के अनजाने पथ पर बढ़ गया। 

     इधर-उधर भटकते हुए दूसरे ही दिन प्रभात की बेला में उसके कदम पड़ोसी शहर के मंदिर में पड़ गये, जहाँ से घंटियों और भक्तों के द्वारा गाये जाने वाले भजनों की सम्मिलित आवाजें सुनाई पड़ रही थी। वह भगवान के शरण में पहुंँच गया।वह कृपानिधान के संरक्षण में चला आया। छड़ी के सहारे टटोलता हुआ वह मंदिर के प्रांगण में पहुंँच गया। उसने ईश्वर की वंदना की फिर वह बांँसुरी बजाने लगा। बांँसुरी से निकलने वाली मधुर तान लोगों के दिलों को सुकून दे रही थी। मंदिर में पूजा-पाठ के निमित आने वाले लोग रोमांचित हो रहे थे। दिल को छू लेने वाली बाँसुरी की आवाजों के वशीभूत होकर मंदिर में पहुंँचे भक्तगण उसकी ओर आकर्षित होने लगे। एक अंधे द्वारा इतनी निपुणता से बांँसुरी-वादन उनके दिलों में उसके प्रति सहानुभूति पैदा कर रही थी। उनके अंतस् में दया का सैलाब उमड़ने लगा था। लोगों के पूछने पर उसने कहा, “मेरा इस दुनिया में भगवान के सिवाय कोई सहारा नहीं है। मैंने उन्हीं के चरणों में अपने को समर्पित कर दिया है।

  लोगों ने आर्थिक सहयोग भी किया। पूजा करने के लिए मंदिर में आने वाली महिलाएं बैजू के प्रति दयावान बनी। एक बेसहारा बांसुरी-वादक को प्रसाद और खाने-पीने की सामग्री देने लगी।

  कालांतर में अपने ज्ञान-चक्षु, अनुमान और उस मंदिर के पुजारीजी की सहायता से छड़ी के सहारे चलकर विशाल मंदिर के हर हिस्से से वह परिचित हो चुका था।

  दिनचर्या के कार्यों में कुछ कठिनाई उत्पन्न होने पर उसे भक्तों का सहयोग प्राप्त हो जाता था। 

  काल के पहिया के घूमने के साथ-साथ उस शहर में बांँसुरी वाले बाबा के नाम से वह विख्यात हो गया। उसकी प्रसिद्धि तेजी से फैलने लगी। 

  पर्व-त्यौहार के अवसर पर मंदिर में बांँसुरी-वादन का विशेष कार्यक्रम होता था। जिसका आनन्द लोग दिल खोलकर उठाते थे।

  जब वह बांँसुरी के माध्यम से कृष्ण और राधा से संबंधित दिल छू लेने वाला भजन गाता तो भजन के बोल पर बंशी से निकलने वाली मधुर तान श्रोताओं का मन मोह लेता था, लोग झूम उठते थे, कुछ भक्त आनन्दविभोर होकर नाचने लगते थे।

  देखते-देखते वह उस शहर में इतना मशहूर हो गया कि वह परिचय का मोहताज नहीं रहा उसकी शोहरत चतुर्दिक इतनी फैल गई कि जगह-जगह बांँसुरी वाले बाबा के प्रोग्राम होने लगे। उसकी एक टोली बन गई। 

  मंदिर में पहले की अपेक्षा भीड़ बढ़ गई। मंदिर की कमेटी ने उसके रहने की विशेष व्यवस्था मंदिर में ही कर दी। 



  रक्षाबंधन के दिन जब बाबा मंदिर के प्रांगण में भाई-बहन के पवित्र रिश्ते पर आधारित एक हृदयस्पर्शी गीत आकर्षक तर्ज पर बांँसुरी द्वारा बजा रहे थे और भक्तों का दल मगन होकर झूम रहा था कि अचानक किसी दंपति ने उसके चरणों को स्पर्श करते हुए कहा, ” मुझे माफ कर दीजिए बाबा!… मुझसे घोर अपराध हो गया था। 

  यकायक बांँसुरी-वादन बन्द हो गया था। 

 ” कौन? “

 ” मैं आपका अभागा, नालायक बहनोई आलोक हूंँ। “

 ” ऐसा मत कहिए आलोक जी।… सब समय का चक्र है। सब ईश्वर की लीला है। हमलोग  तो ऊपर वाले के हाथ की कठपुतली हैं।… मेरी बहन सुरेखा भी आई है…” 

  “हांँ मैं भी आई हूँ भाई!.. और मेरा पुत्र वंश भी आया है।” 

  सुरेखा के कहने पर वंश ने अपने मामा का चरणस्पर्श किया तो उसने उसे सुखी रहने का आशीर्वाद दिया। उसके बाद उसने कहा,” आज मैं बहुत खुश हूंँ, भगवान ने मुझे असीम खुशियांँ प्रदान कर दी है, तुमलोग मेरे पास आओ” प्रसन्न होकर उसने कहा। 

  सुरेखा, आलोक और उसके पुत्र तीनों उसके पास गये। 

  अपने हाथों से टटोल कर उनका स्पर्श  करते हुए अपनी बहन, बहनोई और भगना को आशिष दिये। 

  कुछ पल के बाद ही सुरेखा ने कहा,” वर्षों बाद आज फिर राखी बांधने की शुभ घड़ी आई है… अपना हाथ बढ़ाओ भाई!” 

  “हांँ बहना!… कई बहनों ने राखियाँ बांधी है, तुम भी स्नेह-बंधन बांध दो!” कहते हुए उसने अपना हाथ आगे की ओर बढ़ा दिया। 

  सुरेखा ने अपने भाई के हाथ में राखी बांध दी।

  बाबा ने एक थैली से कुछ रुपये निकालकर हाथ में लिया फिर सुरेखा को लेने के लिए कहा। 

 ” नहीं भाई!… तुम्हारे रुपये नहीं, सिर्फ आशीर्वाद चाहिए। “

 ” मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे और तुम्हारे परिवार के साथ है।… तुम्हारा बहुत बड़ा कर्ज है बहना मेरे ऊपर उसे मैं ताजिन्दगी तुम्हारी सेवा करूंँ तो भी वसूल नहीं कर सकता हूँ।” 

 ” ऐसा मत कहो भाई!” 

  जब सुरेखा बाँसुरी वाले बाबा को घर चलने के लिए जिद्द करने लगी तो बाबा ने बेबाकी से कहा,” मैं अपने घर में ही हूँ बहन!… मैंने अपने आप को भगवान के चरणों में समर्पित कर दिया है, जब तक मेरी सांँस चलती रहेगी, मैं निरंतर उनकी सेवा में लगा रहूंँगा। इस सृष्टि में जितनी भी महिलाएँ हैं, उन सभी से मेरा पवित्र रिश्ता है, कोई मेरी माँ है, कोई बहन है, कोई बेटी है, उसी प्रकार पुरुष भी मेरे भाई हैं, मित्र हैं और मेरे सहयोगी हैं, संसार ही मेरा परिवार है” कहते-कहते वह भावविहव्ल हो गया था। 

  जहाँ आलोक का चेहरा अपराध बोध से मलीन पड़ गया था वहीं सुरेखा का मुखमंडल गर्व की आभा से दमक रहा था। 

  बांँसुरीवाले बाबा ने सुरेखा और आलोक को खुले दिल से आशीर्वाद देकर विदा किया। 

  स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित 

                 मुकुन्द लाल 

                  हजारीबाग (झारखंड) 

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