“असली स्वर्ग” – अनुज सारस्वत

                        

 “ऐसे घर में रहने से अच्छा है मैं मर जाऊं कहीं चला जाऊं , जब आओ पत्नी के ताने, मां के ताने, अकेला आदमी करे तो क्या करें मेरा दिमाग खराब कर दिया है दोनों ने मिलकर “

गुस्से में तिलमिलाता हुआ सुबोध ने चीखकर कहा, पूरे घर में शांति छा गई और सब एकटक सुबोध को देखने लगे,  फिर बिना खाए पिए वह सो गया और बाकी लोग भी अपने अपने कमरे में चले गए, रात को 2:00 बजे सुबोध  की आंख खुली ,वह उठा चुपचाप और घर छोड़कर चला गया, पूरे रास्ते दिमाग में ऑफिस में बॉस के ताने प्रमोशन न होने का गुस्सा, घर में हमेंशा महाभारत,  ना बीवी उसे समझ पा रही थी ना उसकी मां।

 यही सोचते हुए स्टेशन पहुंचा और चलती गाड़ी में चढ़  गया और एक सीट पर जाकर लेट गया,उसे पता नहीं कब आंख लगी और सुबह हो गई ,ट्रेन  किसी हिल स्टेशन पर जाकर रुकी ,

“बाबूजी चाय ले लो चाय ” एक चाय वाले ने उसे जगाया बाहर आकर देखा तो हरे-भरे पहाड़ उसका स्वागत कर रहे थे और ठंडी ठंडी औषधियों की सुगंधित मस्त पवन हेलोरे खा रही थी, 2 मिनट को वह इस प्रकृति के दृश्य को देखकर अपनी परेशानी को मैं कुछ देर के लिए भूल गया ।

उधर उसके गायब होने से घर में कोहराम मच गया दोनों सास बहू एक दूसरे को कोस रही थी और लड़ रही थी,हल्ला गुल्ला सुनकर पड़ोसी भी आ गए इनमें से एक बूढ़ी अम्मा बोली दोनो से

 ” तुम दोनों जरा खुद को देखो अभी भी लड़ रहे हो ,यही वजह थी उसके जाने कि अब भी नहीं सुधरी  तुम दोनों तो, तुम दोनों का जीवन व्यर्थ है, लड़का अभी तो बाहर भागा है ,कहीं कुछ कर ना ले फिर पछताती रहना “



यह सुनकर दोनों शांत हुई और बहू को अपनी गलती का एहसास हुआ ,उससे पहले सासू मां का हृदय परिवर्तन हुआ वह बोली 

“बहु सारी गलती मेरी है मैं हमेशा ज्यादा अधिकार जाती रही बेटे पर ,शादी के बाद बहू का भी उतना ही अधिकार होता है ,मैं  अपने अधिक ममता मोह के कारण बेटे को उसका और तुझे स्वतन्त्रता नही दे पायी ,जिस प्रकार खजाने पर सर्प बैठा होता है पर वह खजाने को खर्च नहीं कर सकता ,वही  मेरी स्थिति है ,मुझे माफ कर दे बेटी “

बहू बोली ” नहीं माँ जी मैं  दोषी हूँ  आते ही आप दोनो के प्यार  को बाँट दिया मैंने और इनसे हमेशा आपकी बुराई कर कर के इनका दिमाग खराब किया ,माँ बेटे के प्यार को खत्म कर दिया मैंने, न आपकी इज्जत की उल्टा सीधा बोला आपको ,मैं आपके प्यार और अधिकार नहीं समझ पाई, मैं आपसे छोटी हूं अभी दिन दुनिया की समझ मुझे बहुत कम है, आप तो गहरा सागर हैं, आप सब कुछ जानती हैं मुझे मुझे माफ कर दो”

 इतना कहकर वो सासू मां से लिपट गई दोनों फफक कर रो पड़ी और दोनों ने अपने मन की मैल को अपने आंसुओं से धोकर निर्मल कर लिया।



” चलो बेटा ढूंढने चलते हैं सुबोध को”माँ  बहू को उठाते हुए बोली और सब लोग भी खोज में निकल पड़े ।

 

उधर सुबोध  पहाड़ों की गोद में बैठा प्रकृति के खेल का आनंद ले रहा था,  तभी उसकी नजर एक बूढ़े आदमी  और उसके साथ एक 30 वर्षीय लड़की पर पड़ी जो पहाड़ों पर सामान ले जाने का काम करते थे ,बूढ़ा आदमी सिलेंडर को सर के सहारे पीठ पर रखकर जा रहा था, जबकि लड़की लकड़ियों का गट्ठर रखे हुए जा रही थी ,उसके मन में दया आयी, उसने बूढ़े आदमी की सहायता के लिए सोचा, बूढ़े आदमी से कहा 

“बाबा लाओ मैं पहुंचा देता हूं, आपको परेशानी हो रही होगी” तब बूढ़े ने कहा “बेटा इस दुनिया में अपना काम खुद ही करना पड़ता है ,और मैं इसे बोझ समझूंगा तो उठा नहीं पाऊंगा ,यह मेरा जीवन है आज आप मदद कर दोगे कल मैं किसके भरोसे बैठा लूंगा, निकम्मा हो जाऊंगा मैं,यह लड़की मेरी बहू है, मेरा बेटा  खाई में गिर के खत्म हो गया था ,वह भी सामान लाने का काम करता था, तो क्या  डर के मैं  भी काम करना बंद कर दूं, मैं बहू से मना करता हूं काम करने की  तो कहती है, बाबा जैसे आप खुद्दार हो मैं  भी वैसे ही हूँ  परिस्थिति से डर कर भागती नही सामना करके हल करती हूँ “

 उस बूढ़े की बातों ने सुबोध के मन पर गहरा प्रभाव डाला और उसने बूढ़े के पैर छुए और बोला “बाबा आपने जीने की राह दिखा दी” तुरंत वह टैक्सी करके अपने शहर पहुंचा , उसकी मां ,पत्नी मिल बाहर पडोसियों के साथ चिंतित  बैठे ,सुबोध ने जाकर दोनो को गले लगा लिया और आंसुओं की निर्मल धारा ने गंगा जल का कार्य किया तीनों के हृदय को पवित्र कर दिया।

 तभी वह बूढ़ी अम्मा बोली कि 

“बेटा यही असली स्वर्ग हैं, जीवन एक ही बार मिलता इसे प्रेम से निभाएँ, लहरें तो उठती रहेंगी इस सागर में बस प्रेम और सकारात्मक सोच की नाव से  इसे पार करो, यही जीवन और परिवार की परिभाषा है “

फिर तीनों लोगों ने उस बूढ़ी अम्मा के पैर छुए और आशीर्वाद लिया ।

-अनुज सारस्वत की कलम से 

( स्वरचित एवं मौलिक रचना)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!