अधिकार का मोह – के कामेश्वरी 

उमा की शादी नहीं हुई थी वह पैंतालीस की हो गई थी माता-पिता उसके लिए रिश्ते ढूँढते हुए थक गए थे ऐसा नहीं था कि वह खूबसूरत नहीं है कहते हैं कि संजोग नहीं है । पिताजी की मृत्यु के बाद उसने पूरे कारोबार को अपने हाथों में ले लिया था । एक ही छोटा भाई था वह उसकी बात मानता था । 

माँ ने कई बार उमा से कहा था कि वह तेरा भाई है।  तेरे पिता की चल अचल सम्पत्ति पर उसका ही अधिकार है । उसे भी सब कुछ बता दिया करना । नहीं उमा ने उनकी बातें अनसुनी कर दी थी । 

उमा जब अड़तीस की हो गई थी तो उनकी ही बिरादरी में एक व्यक्ति ने जिनकी पत्नी गुजर गई थी और एक बेटा था वह अपने बेटे के ख़ातिर उमा से शादी करने के लिए तैयार हो गया था।

माँ ने कहा कि— उमा तेरी शादी हो रही है तेरा अपना परिवार है । अब तो जायदाद भाई के नाम कर देना तेरे बाद वह ही इन सब ज़िम्मेदारियों को सँभालेगा । उमा ने सोचा कि ठीक ही तो है अब मेरा अपना परिवार है तो मुझे मायके की संपत्ति की ज़रूरत नहीं है यह सोच माँ की बात मानकर पिता की संपत्ति को भाई के नाम कर दिया था । शादी के बाद अपने पति के साथ उनके घर चली गई थी। 

उमा के पति सुप्रीत भी बिज़नेस ही करते थे। उन्हें जब पता चला कि उमा भी बिज़नेस करना जानती है तो उन्होंने उसे भी अपने साथ ले लिया । उमा घर बेटे और बिज़नेस को अच्छे से सँभालने लगी थी । 

कहते हैं न सब दिन एक समान नहीं होते हैं। 

उमा के पति सुप्रीत की मृत्यु हार्टएटॉक से हो गई थी ।  उनके बेटे संजय ने भी इंजीनियरिंग की पढ़ाई पूरी कर ली थी। 




उमा ने संजय को बिज़नेस में शामिल तो कर लिया था परंतु बिज़नेस की पूरी बागडोर अपने हाथों में ही रखा उसे हर काम उमा से पूछ कर ही करना पड़ता था । 

उमा ने संजय की शादी सुरभि से करा दी। 

सुरभि को हमेशा यह बात खटकती थी कि संजय को उमा कंट्रोल करतीं हैं । इस बात पर मियाँ बीबी में बहस भी होती थी । संजय कहता था कि माँ पहले से ही बिज़नेस करती थी उन्हें सब कुछ मालूम है । सुरभि होशियार थी उसने संजय को अच्छी पट्टी पढ़ाई और उसके साथ मिलकर धीरे धीरे उमा से किसी बहाने पेपरों पर साइन करा लेती थी । उमा इस बात से अनजान थी । उसे अपने बेटे बहू पर विश्वास था । 

उसके विश्वास पर उसका बेटा खरा नहीं उतरा और एक समय ऐसा आया कि संजय ने धोखे से पूरी जायदाद अपने नाम करा ली थी । 

अब उसे भी संजय से सलाह लेना पड़ रहा था।

यह बात उसे खटकती थी । वह हमेशा सोचती थी कि वक़्त वक़्त की बात है वक़्त के पलड़े को पलटने में देर नहीं लगती है । 

वह अब सोचने लगी कि मुझे इस तरह लोगों पर हुक्म नहीं चलाना चाहिए था । कभी भाई पर तो कभी सौतेले बेटे पर हुक्म करते हुए वह यह भूल गई थी कि सब दिन एक समान नहीं होते हैं। कभी भी दिन फिर सकते हैं। जो कुछ मैंने किया है उसे भुगतना भी पड़ सकता है ।कहते हैं कि दूध का जला छाछ भी फूँक फूँक कर पीता है वैसे ही उमा भी अपने गहनों की हिफ़ाज़त के बारे में सोचने लगी । कोई भी उससे अच्छे से बात भी कर लेता था तो उसे लगता था कि वे सब उससे उसके गहने ले लेंगे । 




इसलिए वह अपने गहनों को पहनकर रखने लगी।  बहू ने कहा माँ जी घर में नौकर चाकर घूमते रहते हैं। आप पागलों की तरह गहने पहने रखेंगी तो कुछ भी हो सकता है। हम हमेशा तो घर में नहीं रहते हैं ना काम से कभी भी बाहर जाना पड़ सकता है । उमा को समझ नहीं आ रहा था कि क्या करूँ?वह किसी पर भी भरोसा नहीं करना चाहती थी । 

बहू की बात उसे सही लगी इसलिए उसने सारे गहने उतार कर उन्हें तकिये के नीचे रख कर सोने लगी थी। सबको लगने लगा था कि वह पागल हो गई है । एक रात ऐसे सोए हुए ही उसने अपने प्राण त्याग दिए थे । 

दोस्तों अधिकार का मोह कभी भी नहीं होना चाहिए । उससे उभरने के लिए उमा की तरह अपनी ज़िंदगी को दाँव पर लगाना पड़ सकता है । 

स्वरचित मौलिक 

के कामेश्वरी 

#मासिक_प्रतियोगिता_अप्रैल

कहानी —1

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