गरिमा का मन उदासी के गर्त में डूब गया था। आज डॉ. भार्गव ने भी स्पष्ट शब्दों में कह दिया था, कि वह माँ नहीं बन सकती है। वह कितने ही डॉक्टरों को बता चुकी थी, और इलाज करा-करा कर थक गई थी। डॉक्टर भार्गव उसकी आखरी उम्मीद थे। एक सन्तान की चाहत में उसने कई व्रत उपवास किए, दैवी- दैवताओं की पूजा की। हकीम, वैद्य की दवा ली मगर….।वह सोचती जा रही थी, कभी किस्मत को दोष देती,तो कभी भगवान को भला बुरा कह रही थी, कि ‘ईश्वर तुझे दया नहीं आती मुझपर।’इन्हीं विचारों में खोई हुई वह घर की तरफ जा रही थी, मन अन्दर ही अन्दर रो रहा था,उसे अपना होश ही नहीं था, वह एक पत्थर से टकराकर गिर पड़ी, और उसका पर्स दूर गिर गया।तभी उसने देखा, एक ६ या ७ साल का लड़का उसे सहारा देकर उठा रहा है।उसके चेहरे पर धूल की परत जमी हुई थी, आँखे चमक रही थी, और मैले कुचैले कपड़े पहने था। बोलॉ- ‘अम्मा आप ठीक हैं ना, आपको घर छोड़ देता हूँ।’
गरिमा कुछ बोल नहीं सकी,उसके पैर पर जोर से चोट लगी थी और वह चल नहीं पा रही थी। वह उस बालक का सहारा लेकर अपने घर तक गई। बालक बोला- ‘अम्मा अब ठीक है आप, मैं जाऊँ?’वह बच्चा दौड़ता हुआ वापस चला गया।
जब गरिमा को कुछ आराम मिला और मन शांत हुआ, तो मन के कोने से आवाज आई, वह कौन था? तेरा क्या रिश्ता था उससे? जो तुझे सुरक्षित घर छोड़ गया, बिना किसी स्वार्थ के। उसकी मन की वीणा के तार झन-झनाने लगे। उस बच्चे का प्यारा स्पर्श, उसकी आँखें, उसे याद आई और उसे पछतावा हुआ, कि उसने उस बच्चे से, ठीक से बात भी नहीं की।दूसरे दिन उस बच्चे से मिलने की उत्कंठा, उसे उस स्थान पर ले गई जहाँ उसे ठोकर लगी थी। वहाँ ,सड़क के किनारे भवन निर्माण का कार्य चल रहा था, उसकी नजरें उस बालक को ढूंढ रही थी।तभी उसने देखा वह बालक सिर पर ईंटें उठाए, एक स्थान से दूसरे स्थान पर रख रहा था। उसने सोचा आवाज दे,मगर वह उस बच्चे का नाम नहीं जानती थी। वह अनमनी सी खड़ी रही, तभी उसने देखा वह बच्चा उसके सामने आया और बोला-‘क्या बात है अम्माँ? आप परेशान दिख रही हैं, क्या आपको घर छोड़ना है?
‘नहीं मुझे अपने घर ले चल!’ बच्चे की चमकदार आँखों से आँसू की बूंदें गिरी, वह बोला-‘ मेरा घर नहीं है।’
‘फिर कहाँ रहते हो?’
‘यहीं फुटपाथ पर’
‘तुम्हारे परिवार में कौन-कौन है?’
‘कोई नहीं एक माँ थी, ६ महिने पहले काम करते हुए छठी मंजिल से गिर गई और’…….वह फूट फूट कर रोने लगा।उसने कहॉ-‘कोई नहीं है मेरा, ये लोग माँ के साथ काम करते थे, इन्होंने यहाँ काम पर रखवा दिया तब से यहाँ मजदूरी करता हूँ।’ उसकी आवाज में नमी थी।
गरिमा का हृदय करुणा से भर गया। कल उस बच्चे ने उसे सहारा दिया था, आज गरिमा की बारी थी। उसने उसे गले से लगा लिया। उससे पूछॉ – ‘तुम्हारा नाम क्या है? क्या तुम मेरे साथ चलोगे?’
सरल बालहृदय को ऐसा स्नेहिल स्पर्श मिला तो उसका चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा।वह बोला मेरा नाम राजू है, मैं आपके साथ चलूँगा।
गरिमा ने मन ही मन एक निर्णय ले लिया था। उसने सोच लिया था कि मन्दिर-मन्दिर, अस्पताल-अस्पताल वह जिस सहारे को ढूंढ रही थी, वह यही है। रामबाबू तो पहले ही कह रहे थे, कि किसी बच्चे को गोद ले लें।वे ५० वर्ष के थे और गरिमा ४८ की। मगर यह गरिमा की ही जिद थी,उसे स्वयं का बच्चा चाहिए था। वह राजू को लेकर घर आ गई। उसने रामबाबू को सारी बातें बताई।
राजू ने पूछा -‘मुझे यहाँ क्या करना होगा?’
‘तुम्हें अम्मा की जगह माँ कहना होगा। इन्हें बाबूजी की जगह बाबा कहना होगा, और ईंटों के स्थान पर बस्ता लेकर स्कूल पढ़ने जाना होगा। क्या हमें माँ-बाबा मानोगे?’
‘जरूर मानूँगा, पढ़ाई भी मन लगाकर करूँगा।मेरी माँ भी मुझे पढ़ाना चाहती थी मगर……।’
राम बाबू ने कहॉ -‘हम तुम्हें पढ़ाऐंगे, तुम हमारे बेटे हो।’
राजू का चेहरा खुशी से चमक रहा था।राम बाबू और गरिमा ने उस बच्चे को विधिवत गोद लिया।
उस रात गरिमा सोच रही थी। कितने बच्चें हैं जिनके माँ बाप नहीं हैं, और कितने दम्पत्ती बच्चों के लिए तरस रहे हैं। कोई अन्न के लिए तरस रहा है,तो कहीं धन का अपव्यय हो रहा है। काश लोगों की सोच सकारात्मक, मानवीय हो जाए तो बाल मजदूरी का दंश दूर हो जाए।बच्चे पढ़ें लिखे और उन्नत राष्ट्र की रचना हो। उसने देखा राजू पढ़ाई कर रहा है।पहली बार उसे अपने निर्णय पर इतनी प्रसन्नता हुई।
राजू उन दोनों का सहारा बन गया था और वे दोनों राजू के।
प्रेषक-
पुष्पा जोशी
स्वरचित, मौलिक