ड्रॉइंग रूम ठहाकों की आवाज से गूंज रहा था। रागिनी की सहेलियाँ उसकी खातिरदारी से खासा खुश नजर आ रही थी। सब रागिनी की हाउस हेल्प मालती को छोटी बहन सा मानती थीं क्योंकि उनके आते ही मालती जी जान से उनकी खातिरदारी करती, तीज त्योहार पर हाथ बटाने उनके घर तक चली जाती थी।
ठहाकों के बीच टेबल पर रखे प्लेट में सजे त्रिकोणाकार समोसे अपने अंदर कितना स्वाद भरे अपने मूल्यांकन की प्रतीक्षा में थे। ठीक उसी तरह मालती की बिटिया कजरी भी प्रतीक्षारत थी। दरवाजे की ओट में खड़ी, पर्दे से आधी छिपकर उसकी नजर समोसों पर नहीं अपितु रागिनी दीदी की सहेलियों पर थी।
उफ्फ कितनी बाते करतीं है ये… खाती क्यों नहीं? हर बार आती हैं तो माँ से व्यंजन बनवा – बनवा चटकारे लेकर खाना शुरू करती हैं तो रुकती ही नहीं, आज ये समोसे अदृश्य है क्या?
कजरी अपनी माँ मालती की तरफ नज़र दौड़ाना ही नहीं चाहती थी, माँ तो ऐसे खड़ी है जैसे अभी उनकी बिटिया को मंच पर पुरस्कृत करने के लिए बुलाया जाएगा। वैसे भी रागिनी दीदी ने माँ को कभी नौकरानी होने का एहसास ही कहाँ होने दिया था। सो उनके स्वभाव में कभी वो भाव आता ही नहीं, सीना चौड़ा कर खड़ी हैं जाने इतनी विश्वस्त कैसे हैं?
“अरे वाह! पनीर समोसे! ये बहुत ही स्वादिष्ट है रागिनी! मालती तो सुपर शेफ बन गई है!” रागिनी की एक सहेली ने खाते हुए कहा।
“अरे नहीं! इस बार कजरी ने बनाए है!” रागिनी ने कहते हुए इशारे से कजरी को बुलाया।
कजरी ने उम्मीद से भरे कदम हौसलों से भरे ही थे कि जैसे समोसे का अगला निवाला कड़वा हो चला था
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“रागिनी! तुमसे यह उम्मीद ना थी, सोशल वर्कर हो तुम और बाल मजदूरी? दोहरी मानसिकता!”
कजरी अब तो माँ की ओर देख भी नहीं सकती थी। माँ का हारा हुआ चेहरा उसे कभी नहीं देखना था। माँ को ऐसा उत्तर कतई अपेक्षित नहीं होगा।
“यह बाल मजदूरी नहीं है! कला है। कजरी आम बच्चों की तरह स्कूल भी जाती है और खेलने भी जाती है। यहाँ तक कि मैंने इसकी इच्छा के अनुरूप और जरूरत की शैक्षिक पाठ्यक्रम से अतिरिक्त सारी चीजे सीखने को कहा है। ये मेरे लिए मेरी शानवी जैसे ही है।
अच्छा एक बात बताओ? शनिवार इतवार को हमारे बच्चे बेकिंग, पेंटिंग, नाच-गाना, बुनाई आदि सीखने जाते हैं तो वह हाॅबी क्लास! और कजरी सीखे तो बाल मजदूरी! इसे कहते हैं दोहरी मानसिकता। हर काम को सीखना अगर हमारे बच्चों के सुखमय भविष्य की गारंटी है तो मालती के बिटिया के लिए अलग मापदंड क्यों? वैसे अल्का तुम्हारी दस वर्षीय बिटिया भी ‘क्यूट शेफ’ के ऑडिशन की तैयारी कर रही है ना?”
अल्का ने कोई जवाब नहीं दिया। रागिनी ने उसके सामने आईना रख दिया था।
रागिनी की बातें सुनकर कजरी के कदमों में नई जान आ गई। सपने देखने की जो हिम्मत रागिनी दी ने माँ को दी थी, अब कजरी भी जान गई थी कि सपने देखने के लिए हैसियत नहीं मायने रखती इसकी पुष्टि माँ के चेहरे की चमक कर रही थी जो उसके किसी पुरस्कार से कम नहीं था।
-सुषमा तिवारी
मौलिक, स्वरचित