फूटा आक्रोश ,चूर हुआ मां का दंभ

“बेटा ,मैं जा रही हूं। जो भी जरूरत हो, आंटी से बोल देना। एक किस्सी दे दो.. ऊऽऽ….अहाऽऽ…. मैं चलती हूं बाय बेटा।”किस्सी ले प्रेमा हाथ हिलाती हुई कमरे से बाहर निकली।  “पारू  देखना मेरी बच्ची को कोई दिक्कत ना हो।” जी मालकिन , आप बिल्कुल चिंता ना करना।” कहती हुई पारू हल्की मुस्कान बिखेर दी। ऐसा तो रोज ही होता था इसलिए सभी अभ्यस्त थे।प्रेमा की बेटी सृष्टि, अपनी सृजनकर्ता मां को उलाहने भरे दृष्टि से देखा करती।महज तीन साल की थी सृष्टि। उसके मन-मस्तिष्क में बहुत सारे प्रश्न तो उठ ही रहे होंगे जिन्हें वह मुखर न कर पाती होगी।

पारू बहुत ही अच्छे से देखरेख करती थी बिल्कुल एक मां की तरह।पारू भी बेटी के प्रति मालकिन के इस तरह के व्यवहार से नाखूश रहती थी, हालांकि वह उसके देखरेख के लिए ही थी लेकिन मां का प्यार ….?

पारू भी तो बेचारी किस्मत की मारी, जिसके पति ने शराब के नशे में मारपीट कर उसे घर से निकाल दिया था और उसे उसकी मालकिन  रेलवे प्लैटफॉर्म से यहां ले आई।प्रेमा बहुत दिनों से अपनी बेटी के लिए केयर-टेकर खोज ही रही थी क्योंकि बेटी को साथ लेकर क्लब जाना उसे नागवार लगता था। वह अब‌ अपनी खुद की जिंदगी को खुद के अनुसार जीने लगी।

         ‌ प्रेमा के पति विकास एक बहुत बड़े उद्योगपति थे।उनका मकसद सिर्फ पैसा कमाना था। प्रेमा का क्लब जाना, गेम खेलना, पत्ते खेलना, फिल्म देखना आदि दिनचर्या में शामिल था। यही नहीं, उसने ड्रिंक लेना भी शुरू कर दिया था। प्रेमा के पति को इससे कोई आपत्ति नहीं थी। उसने ही कहा था, मौज करो प्रेमा मौज करो, सब कुछ तुम्हारा ही तो है! विश्वास को भी अपनी बेटी से कोई मतलब नहीं रहता था।




सुबह 11:00 बजे दोनों पति पत्नी साथ निकलते और ऑफिस में कुछ घंटे रहने के बाद प्रेमा क्लब चली जाती और मौज मस्ती में डूबी रहती। प्रेमा और विश्वास अपनी बेटी सृष्टि को वो प्यार नहीं देते जिसकी वह हकदार थी।

दोनों रात 10-11:00बजे शराब के नशे में आते और अपने कमरे में जा बेड पर गिर जाते। इनके आने के बाद पारू , सृष्टि के कमरे में हीं फर्श पर अपना विस्तर लगाती और सुबह समेट लेती। सुबह उठ सारे काम निपटा मालिक -मालकिन के लिए नाश्ता बना लेती तब बेटी सृष्टि को पुचकारती- दुलारती और उठाती।उसे तैयार कर उसकी पसंद का नाश्ता बना खिला देती। उसके बाद दरवाजा खटखटा मालिक -मालकिन को चाय दे देती। कभी-कभी वे कहते,”पारु अभी सोने दो हमें डिस्टर्ब ना करो।”वह वापस आ सृष्टि के साथ खेलने लगती। पारु को भी सृष्टि का सानिध्य बहुत अच्छा लगता था। दिन भर उसके साथ खेलते रहती । सृष्टि कभी गुड़िया की चोटी बनवाती, कभी गुड्डे को नहलाती तो कभी उन्हें बिस्तर पर सुलाती और कहती,”आंटी लोरी सुनाओ ना, जो मुझे सुलाते समय गाती हो।”पारु हंसती हुई लोरी गाती और सृष्टि गुड्डे -गुड़िया को थपकियां देती हुई सुलाती।

रोज की तरह प्रेमा और विश्वास दोनों तैयार हो बेटी के कमरे में जा, किस्सी ले, चले जाते। सृष्टि अभ्यस्त हो गई थी अपने मां- बाप के निष्ठुरतापूर्ण व्यवहार से।

  सृष्टि जब 4 साल की हो गई तब इसका एडमिशन पास के ही एक स्कूल में करा दिया गया। सिर्फ एडमिशन ‌के समय प्रेमा और विश्वास स्कूल गए थे। इसके बाद की सारी जिम्मेदारी पारू की थी। स्कूल पहुंचाना और लाना। कभी-कभी वह जिद्द करती कि “मुझे मम्मा के साथ स्कूल जाना है।”प्रेमा डांट कर कहती, “आंटी के साथ जाओ,मुझे  काम है।” और रोते हुए पारू के साथ चली जाती।




उसके क्लास के बच्चे पूछते,”सृष्टि तुम्हारे मम्मी -पापा कभी लेने नहीं आते, क्यों? हमेशा तुम आंटी के साथ ही आती हो।”उसका बालमन कहता,”मेरे मम्मी-पापा ऑफिस जाते हैं न, कैसे आते?

शुरू में छोटे क्लास में पीटीएम में भी पारू ही जाती। जब ऊंची क्लास में गई तो उसके पापा ही पीटीएम में जाते, मां तो कभी जाती ही नहीं।

जैसे-जैसे बड़ी होती गई उसमें कुंठा घर करते गया। कभी-कभी उसके क्लास के बच्चे उसकी मां को लेकर टिप्पणियां भी करते। बस, वह मायूस हो जाती बोलती कुछ नहीं।

आखिर,एक दिन एक लड़की ने कह ही दिया,”कहीं तुम्हारी मां सौतेली तो नहीं, अगर सगी होती तो कभी-कभी तो आती ही। स्कूल की फंक्शन में भी नहीं देखा कभी।”

  यह बात उसके हृदयतल पर आघात कर गई। जैसे ही पारू पहुंची,वह उसे अपना बैग पकड़ा और घर की चाबी ले , तेजी से घर की ओर भागी। पारू जब घर पहुंची, देखा, वह अपने कमरे का दरवाजा बंद कर अंदर सामानों को तोड़-फोड़ कर रही है।”दरवाजा खोल बेटा! क्या हो गया है तुम्हें, क्यों मुझसे नाराज हो गई, बता बेटा !”पारू के लाख कहने पर भी उसने दरवाजा नहीं खोला । घबराकर पारू ने मालिक -मालकिन को फोन किया। पहले तो दोनों झल्लाये,”तुम संभाल नहीं सकती उसे।” खैर , 1 घंटे बाद मालकिन चिल्लाती हुई अंदर आई,”क्या तमाशा कर रखा है सृष्टि तुमने?मैं गेम जीत रही थी, तुम्हारे कारण आना पड़ा। खोलो, दरवाजा खोलो।”सृष्टि ने खटाक से दरवाजा खोला। सारा कमरा फैला हुआ था। बहुत सारी चीजें टूटी -फूटी थी। उसके सिर से खून भी बह रहा था। आज पहली बार सृष्टि चिल्लाई।”हां.. हां, किया है मैंने तमाशा! तुमने तो मेरा जीवन ही तमाशा बना दिया मां! तुम्हें मां कहने में भी मुझे शर्म आ रही है। कैसी मां हो तुम?? तुम्हारे आलिंगन के लिए ,तुम्हारे एहसास के लिए, तुम्हारी थपकियों के लिए तरसती रही। मैं छटपटाती रही तुम्हारे प्यार और तुम्हारे सानिध्य के लिए। एक निवाला भी अपने हाथों से मुझे नहीं खिलाया। मुझसे जब मतलब ही नहीं रखना था तो जन्म ही क्यों दिया?और जब जन्म दे ही दी तो मार क्यों नहीं दिया। मैं रोज -रोज घुट घुट कर मरती तो नहीं?” वह

फूट-फूट कर रोने लगी। इतने दिनों की दमित भावनाओं के कारण सृष्टि का आक्रोश फूट पड़ा। प्रेमा जी निशब्द शून्य में देखे जा रहीं थीं। शायद ,अब उन्हें अपराध बोध हो गया था ………….।

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ

स्वरचित, अप्रकाशित।

(V)

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