“एक रिश्ता भरोसे का” – सरोज माहेश्वरी

   भरोसा ! शब्द की पावनता, श्रेष्ठता को शब्दों में पिरो पाना अति कठिन है। यह भरोसा चाहें इंसान का खून के रिश्तों पर हो या इंसान का किसी अन्य इंसान पर हो….क्योंकि आज के युग में विश्वासघात और धोखे की जड़ें इतनी मजबूत हो गई है कि रिश्तों का कोई मोल नहीं रहा है परंतु जब एक रिश्ता त्याग, समर्पण, भरोसे पर टिका होता है तो वह रिश्ता किसी भी नाम से परे होता है इसी विषय पर एक कहानी….

                 उत्तर भारत के छोटे से गांव में रामदीन अपनी पत्नी और तीन बेटियों के साथ रहता था। कुछ बीघा ज़मीन जीविका का साधन थी।उसी गांव का एक निर्धन व्यक्ति रघु रामदीन के साथ खेतों के काम में हाथ बंटाता था। रामदीन रघु का पूरा ध्यान रखता वह रघु को अच्छी तनख्वाह देता था। दोनों की खूब जमती थी। दोनों एक दूसरे पर बहुत भरोसा करते। रघु का एक बेटा था जो कुशाग्रबुद्धि था। रामदीन कहता …रघु ! तुम बेटे को खूब पढ़ाना। मैं तुम्हारी मदद करूंगा।

                 सब ठीक चल रहा था तभी रामदीन की पत्नी को असाध्य रोग ने जकड़ लिया और कुछ ही दिनों में ईश्वर को प्यारी हो गई। रामदीन की तो दुनिया ही उजड़ गई अब उसे खेतों के साथ बेटियों का (जो ९ ,७,५ की थीं)और घर के काम का भी ध्यान रखना पड़ता था।रघु घर बाहर रामदीन की मदद करता था परंतु विधि के विधान को कुछ और ही मंजूर था। एक दिन रामदीन को तेज बुखार आया उसने ऐसा बिस्तर पकड़ा कि डॉक्टरों ने जवाब दे दिया अपना अंतिम समय जानकर रामदीन ने रघु को अपने पास बुलाकर कहा…रघु !

अब मेरा अंतिम समय आ गया है।तीनों बेटियों की चिंता मुझे सता रही है मरने के बाद भी मेरी आत्मा को शांति नहीं मिल पाएगी मैं चैन से चीर निद्रा में नहीं सो पाऊंगा। मुझे केवल तुम पर पूरा विश्वास है कि तुम मेरी बेटियों को संभाल लोगे उनका पूरा ध्यान रखोगे। तभी रामदीन ने कहा..मालिक! आप चिंता न करे मैं तीनों बेटियों की अच्छी परवरिश करूंगा और अंतिम सांस तक उनकी सुरक्षा करूंगा।शायद रामदीन की सांसें इन्हीं शब्दों  का इंतजार कर रहीं थीं । विश्वास और भरोसे के इन शब्दों को सुनकर ही रामदीन की आत्मा ने शरीर से विरक्ति ली।

                 दूसरी तरफ रघु का कुशाग्रबुद्धि बेटा पढ़ लिखकर शहर सरकारी नौकरी करने गया।पिता को साथ चलने को कहा, परंतु रघु ने  मालिक रामदीन को दिए वचनों और भरोसे को किसी कीमत पर नहीं तोड़ा। रघु ने तीनों बेटियों को अच्छी शिक्षा और परवरिश देकर बड़ा किया।

तन और धन के भूखे भेड़ियों से पल पल बेटियों की रक्षा की। हर समय साए की तरह रहकर खूंखार नजरों से बचाया। सामर्थ्य के अनुरूप सभी सुख सुविधाएं और शिक्षा दी।




            तीनों बेटियों के बालिग होने के बाद रघु ने मालिक की संपति और ज़मीन को उनकी बेटियों के सुपुर्द करना चाहा, किंतु तीनों बेटियों ने कहा.. रघु काका! हमारे पिता जी और आपका ऐसा “एक रिश्ता” था जो विश्वास, त्याग, प्रेम और भरोसे की नींव पर खड़ा था। हम तीनों बहनों  और घर बाहर की जिम्मेदारी आप पर सौंप कर पिता जी शांतिपूर्वक चिरनिंद्रा में सो गए थे।

आपने हमें योग्य बनाकर अपने पैरों पर खड़ा किया। अब आपको हम कहीं नहीं जाने देंगे हम आपको हमेशा माता पिता की तरह सम्मान  देंगे और आपका ध्यान रखेंगे। आप अपने मालिक के भरोसे पर खरे उतरे.. ऐसा “एक रिश्ता” बनाया जो खून के रिश्ते से भी बढ़कर है अब हमें उनके भरोसे को सिर आंखों पर बिठाकर अपने दायित्व को पूरा करने का मौका दीजिए।

इससे भरोसे की नींव मज़बूत होगी और खून से परे रिश्तों की भी इमारत सुदृढ़ता से खड़ी हो सकेगी। आज समाज में  रिश्तों में पनप रहे विश्वासघात, स्वार्थ को कुछ तो आघात लगेगा। खून के रिश्ते से भी मजबूत हमारा आपका का यह रिश्ता ऐसा “एक रिश्ता” है जो किसी नाम का मोहताज नहीं है… “अब आप हमेशा के लिए हमारे साथ रहेंगे “….

           यह सब सुनकर रघु काका के नेत्रों से अविरल अश्रु  धारा बह निकली…दिल ने कहा ..भरोसे का “एक रिश्ता” ऐसा भी होता है… और रघु ने सिर हिलाकर साथ रहने की स्वीकृति दे दी….

स्व रचित मौलिक रचना

सरोज माहेश्वरी पुणे (महाराष्ट्र)

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