बदले हुए तेवर – डाॅ संजु झा : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : कभी-कभी व्यक्ति एक चाहत में अंधा हो जाता है। हालांकि हालात और सामाजिक परिस्थितियाँ भी इसके लिए जिम्मेदार है। परन्तु अन्त में उसे पछतावा ही हाथ लगता है।ठीक यही कहानी डाॅक्टर उमेश की है।

डाॅ उमेश ने अस्पताल के बिस्तर पर लेटे-लेटे कराहते हुए कहा -” नीना बेटा! मुझे बहुत दर्द हो रहा है।कोई दर्द की दवा देकर दो।मैं अब बचूँगा  नहीं।”

नयना अपने पापा को दिलासा देते हुए कहती है -” पापा!कल आपके दिल का ऑपरेशन हुआ है।डाॅक्टर होने के नाते आप तो समझते ही हैं कि दर्द की दवा बार-बार नहीं दी जा सकती है!”

डाॅक्टर उमेश बेबस नजरों से नयना को देखते हैं।नयना धीरे-धीरे उनके सिर को  सहलाती है।बेटी का ममत्वभरा स्पर्श पाकर उन्हें असीम सुख प्राप्त होता है और वे नींद की आगोश में समा जाते हैं।

डाॅक्टर नयना की ड्यूटी अस्पताल में खत्म हो चुकी है,फिर भी पिता की देखभाल के लिए अस्पताल में ही रुकी हुई है। नीना दिनभर ड्यूटी कर काफी थक चुकी है।वह पिता के कमरे में ही अपने लिए चाय मँगवाती है।चाय पीने के बाद थकावट के कारण अंधमूँदी आँखों से सिर कुर्सी पर ही टिकाकर आराम करने लगती है।

अतीत  उसकी अँखियों के झरोखे से झाँकने लगता है।पिता का बार-बार नयना पुकारना उसे आह्लाद से भर देता है।जिस पिता ने उसे बचपन से ही उपेक्षित माना।उसका चेहरा देखना भी उन्हें गँवारा नहीं था।आज कैसे निरीह नजरों से उसकी ओर निहार रहे थे!

उसके पिता उमेश डाॅक्टर होकर भी जिन्दगी की हकीकत को कहाँ समझ पाए थे! उन्हें जब पहली बेटी हुई  थी,उसी समय उन्होंने बेटी पैदा करने के लिए पत्नी को ही जिम्मेदार ठहराते हुए कहा था -“मुझे पता था कि मेरी शादी बेटियोंवाले खानदान में हुई है,तो तुम जरुर बेटियाँ ही जनोगी।”

नयना की माँ पढ़ी-लिखी थी,परन्तु इतना कहने की हिम्मत नहीं थी कि आपको डाॅक्टर होने के नाते इतना तो पता ही है कि बेटी पैदा करने के लिए पुरुष ही जिम्मेदार हैं,परन्तु संस्कारगत विवशता ने उनकी जबान पर ताला जड़ दी थी।

समय के साथ उसकी माँ ने तीन और बेटियों को जन्म दिया।पिता की बेटे की चाहत अधूरी ही रह गई। उसकी माँ भी  एक भी बेटा न  पैदा करने के कारण खुद को ही दोषी मानने लगी।पहली बेटी के जन्म से ही माँ उपेक्षित होने लगी थी।चौथी बेटी के रुप में उसके(नयना)के जन्म के बाद  तो माँ और सारी बहनें पिता और परिवार  के लिए उपेक्षित हो गईं। 

बेटियों की उम्र में तो पंख लगे होते हैं।सभी बहनें समय के साथ बड़ी होने लगीं।पिता के लिए सभी बेटियाँ बोझ भर थीं।चौथी बेटी नयना को तो उन्होंने न कभी गोद में लिया ,न ही कभी प्यार भरी नजरों से देखा ही।

उपेक्षा की टीस उसके अन्तःस्थल को मर्माहत कर जाती।उसकी तीनों बहनों की शादी अधूरी शिक्षा के साथ मात्र सत्रह वर्ष में कर दी गई ।उसके पिता के लिए लड़की की शिक्षा का कोई मायने नहीं था।

जब उसी उम्र में नयना की शादी की बात  चली,तब उसने बगावत करते हुए कहा-“पापा! मुझे अभी शादी नहीं करनी है।मुझे आगे पढ़ाई जारी रखनी है!”

बेटी के बदले हुए तेवर देखकर पिता ने उससे तो कुछ नहीं कहा,परन्तु उसकी माँ पर बरसते हुए कहा -“देख लो!अपनी बेटी के चाल-चलन। कहीं ऊँच-नीच हो गई  ,तो समाज में मेरी क्या इज्जत रह जाएगी?इसी कारण मैं बेटियों से चिढ़ता रहा हूँ।समझा दो बेटी को कि अन्य बहनों की तरह चुपचाप शादी कर ससुराल चली जाएँ।”

नयना अपने निर्णय से टस-से-मस नहीं हुई। उसकी माँ पति और बेटी के बीच दो पाटों-सी पीसती रही।नयना और उसके पिता में लगभग संवादहीनता की स्थिति बन गई। अपनी लगन और मेहनत से नयना ने मेडिकल की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण कर ली।

नयना ने जब मेडिकल की प्रवेश परीक्षा उत्तीर्ण की,उस समय भी उसके पिता को कोई खुशी नहीं हुई। उल्टे अपनी पत्नी पर ताना मारते हुए उन्होंने कहा था -“बेटी के डाॅक्टर बनने की क्या खुशी?इतने खर्चाकर उसे पढ़ाओ-लिखाओ,फिर  दूसरे घर चली जाएगी।बेटा डाॅक्टर बनता ,तब खुशी की बात थी।”

पिता के तानों से उसकी माँ के जख्म  नासूर बनते जा रहे थे।वह घुट-घुटकर उपेक्षित जीवन जीने को मजबूर थी।नयना जब मेडिकल के फाइनल वर्ष में थी,तभी उसकी माँ को कैंसर बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया।

उपेक्षा का दंश झेलते-झेलते उसकी माँ अन्दर से बिल्कुल खोखली हो गई थी,उसपर कैंसर बीमारी ने कोढ़ में खाज-सा काम किया।बीमारी के छः महीने के अन्दर  ही उसकी माँ का उपेक्षित जीवन  समाप्त हो गया।

कुछ समय बाद ही उसके पिता सेवानिवृत्त होकर घर बैठ गए थे।जिस पत्नी की उन्होंने जिन्दगी भर उपेक्षा की,अब उसी पत्नी की याद में दिन-रात विकल रहते थे।सच ही कहा गया है कि किसी व्यक्ति का गुण उसके मरने या भाग जाने पर ही पता चलता है।पिता को विकल देखकर एक दिन नयना ने कहा -” पापा!आप घर पर ही कुछ मरीज देख लिया करें,जिससे समय भी कट जाएगा।”

परन्तु डाॅक्टर उमेश को अपने कर्मों पर प्रायश्चित करने के सिवा कोई चाहत नहीं बची थी।जिस उपेक्षित बेटी नयना का चेहरा देखना भी उन्हें गँवारा नहीं था,अब उसके अस्पताल से लौटने के समय दरवाजे पर टकटकी लगाए रहते।

सुबह-सुबह उसके अस्पताल निकलते समय दो-तीन बार नाश्ते के लिए पूछ लेते।पिता और बेटी की दूरियाँ वक्त और हालात के कारण धीरे-धीरे कम होने लगी थी।नयना भी पिता के मरहूम प्यार की अमृत उम्र के इस पड़ाव  में पाकर भावविभोर थी।

अचानक ही एक दिन  डाॅक्टर उमेश को सीने में दर्द के कारण अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।दिल का ऑपरेशन कराने के बाद  से उनकी स्थिति में निरंतर सुधार है।

डाॅक्टर उमेश इस स्थिति में भी पश्चाताप की अग्नि में जल रहे थे।उनकी पलकों पर बँधा बाँध आज टूटने की कगार पर था।पिता की आवाज  से नयना की आँखें खुल गईं।पिता ने उसे इशारे से अपने पास बुलाया।उन्होंने नयना का हाथ अपने हाथों में लेते हुए कहा -“नयना बेटी!जितना तुमने मेरे लिए किया है,जरुरी नहीं कि बेटा भी मेरे लिए उतना ही करता!

नयना !तुम मेरी बेटी नहीं बेटा हो।आज तुमने मेरे बेटे की अधूरी ख्वाहिश पूरी कर दी है।आज मुझे पता चल गया है कि बेटा-बेटी में कोई अन्तर नहीं है!”

नयना पिता के गले लग गई। दोनों के जीवन में खुशियों का सावन बरस रहा था और वे उसकी फुहारों में भींग रहे थे।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा(स्वरचित)

#उपेक्षा

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!