जब आया ऊँट पहाड़ के नीचे! – नीलम सौरभ

साँवली-सलोनी कात्यायनी को हर मायने में कुशल गृहणी कहा जा सकता था लेकिन पता नहीं यह उसके भाग्य का दोष था या फिर उसमें व्यवहारिक बुद्धि की कमी कि उसके ससुराल में सभी उसे घर की मुर्गी दाल बराबर समझते थे। सर्वगुण-सम्पन्न होने के बाद भी ब्याह करके आने के बाद से ही उस बेचारी को कभी भी उचित मान-सम्मान नहीं मिल पाया जिसकी वह वास्तव में अधिकारी थी।
कात्यायनी के ब्याह को पाँच साल हो चुके थे। तीन साल के प्यारे से नटखट बेटे टुकटुक की माँ थी वह। अब साल भर पहले देवर का भी ब्याह हो गया था तो उसे घर की बड़ी बहू के साथ ही जेठानी का ओहदा प्राप्त हो गया था। देवरानी कलिका का मायका उसी शहर में ही था और वह अपनी शादी से पूर्व अपने जेबखर्च के लिए एक निजी संस्थान में छोटे अस्थायी पद पर नौकरी कर रही थी।
शुरू में जब भी कभी कात्यायनी के देवर मृणाल की ब्याह सम्बन्धी चर्चा घर में चलती थी तब सास-ससुर समेत घर के हर सदस्य का यह कहना होता था कि घर में कामकाजी बहू कभी नहीं लायी जायेगी। मगर कहते हैं न कि हर बात परिस्थितियों पर निर्भर करती है और भविष्य का एकदम सही अनुमान कोई नहीं लगा सकता।
मृणाल को अपने दोस्त की शादी में एक लड़की दिखी जो उसे पहली नज़र में बहुत पसन्द आ गयी। संयोग से वह उनके समाज की ही निकल आयी। उसके जिद करने पर जब सभी कलिका को देखने गये थे, तब रिश्ता पक्का होने से पहले इस सन्दर्भ में भी चर्चा छिड़ी थी। कात्यायनी के सास-ससुर ने उस समय स्पष्ट कर दिया था कि उनके घर की बहू बनने के लिए कलिका को नौकरी छोड़नी होगी।




तब माता-पिता के साथ स्वयं कलिका ने भी यह शर्त सहर्ष मान ली थी और रिश्ता पक्का हो गया था।
फिर छः महीने के भीतर हँसी-ख़ुशी से ब्याह भी सम्पन्न हो गया था। कलिका ने चुपचाप अपने संस्थान से तीन महीने का अवैतनिक अवकाश ले लिया था। ससुराल में सबने समझा कि उसने उनकी इच्छा का मान रखते हुए नौकरी छोड़ दी है, लेकिन एक माह बीतने से पहले ही कलिका ने अपने पति के सामने अपनी मंशा जाहिर कर दी कि उसे अपनी नौकरी से बहुत प्यार है, वह लगा-लगाया पसन्द का काम छोड़ना बिल्कुल नहीं चाहती।
इस थोड़े समय में ही मृणाल कलिका के रंग में पूरी तरह से रंग चुका था जिसे राज़ी करने में उसको न तो अधिक समय लगा और न ही ज्यादा मेहनत।

अगले दिन डायनिंग टेबल पर बैठे सभी नाश्ता कर रहे थे। दोनों विवाहित ननदें भी स्थानीय थीं, वे भी आयी हुई थीं। कात्यायनी सभी के मनपसंद गरम-गरम आलू के पराँठे बनाती जा रही थी और हमेशा की तरह दौड़-दौड़ कर लाकर परोसती जा रही थी। ससुर जी के डायबिटीज का ध्यान रखते हुए उनके लिए गोभी के पराँठे भी बनाये थे उसने। तभी अचानक मृणाल ने भाभी के साथ बिना काम के यूँ ही मज़बूरी में पीछे-पीछे डोल रही कलिका को अपने साथ, अपनी ही प्लेट में खाने को बुला लिया। सबके समक्ष नयी-नवेली पत्नी की वक़ालत करते हुए कहने लगा,
“कलिका को भूख सहन नहीं होती है, मम्मीजी फोन पर बता रही थीं कि टाइम से न खाये तो इसकी तबीयत खराब हो जाती है एसिडिटी के कारण, इसलिए..!”
किसी ने भी कुछ नहीं कहा या शायद कहते नहीं बना। कलिका भी तुरन्त ही मृणाल के बगल वाली कुर्सी पर जाकर जम गयी और उसकी प्लेट से ही लेकर खाने लगी। कात्यायनी को यह बात अच्छी तो नहीं लगी मगर उसने कोई भी प्रतिक्रिया नहीं दी, उल्टा एक और प्लेट लगा कर देवरानी के सामने रख दी। वह पूर्ववत सबको परोसती रही और देवरानी जी आराम से सबके साथ खाती रहीं।
अगले दिन भी इस घटना की पुनरावृत्ति हुई। आज तो मृणाल को बोलना भी नहीं पड़ा। कलिका पहले से ही अपने पति के बाजू जाकर बैठ गयी और सबके साथ अपनी प्लेट का इंतज़ार करने लगी।
आज कात्यायनी ने डोसा, साम्भर और नारियल की स्वादिष्ट चटनी बनायी थी। उसे 2-4 दिनों के लिए मेहमानों की तरह आयीं ननदों से तो कोई उम्मीद नहीं थी मगर देवरानी और सास से अवश्य थी कि कम से कम प्लेटें लगाने में उसकी मदद कर दें ताकि उसकी भागम-भाग थोड़ी कम हो जाये लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ।
वह बेचारी सालों से यह सब कुछ देखती और सहती आ रही थी, हो सकता है आज भी चुप ही रह जाती पर इस बार बात कुछ और हो गयी जिससे उसके सब्र का पैमाना छलक गया।
जब सबने चटखारे लेते हुए लगभग नाश्ता ख़त्म किया ही था कि अचानक पहले से तैयार योजना के अनुसार मृणाल ने अपने माता-पिता को लक्ष्य कर बोलना शुरू किया,
“पापा, मम्मी! हमें आप लोगों से कुछ कहना है…वो क्या है कि कलिका दोबारा से जॉब पर जाना चाहती है। इतनी ज्यादा पढ़ी-लिखी तो है ही, फिर उसकी दिली इच्छा भी है, फिर क्यों वह अपना मन मारे?…मैं भी चाहता हूँ कि वह अपनी खुशी और सन्तुष्टि के लिए नौकरी जरूर करे। आजकल का जमाना माथे पर घूँघट डाल घर बैठकर मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने का नहीं है, बल्कि पति के कन्धे से कन्धा मिलाकर चलने का है। पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये होते हैं, दोनों को एक-दूसरे का साथ हर तरह से निभाना चाहिए!”
अन्तिम शब्द बोलते हुए उसकी उड़ती दृष्टि भाभी पर चली गयी थी। मानो मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने का ताना उसी को दे रहा हो। कात्यायनी मानों आसमान से गिर पड़ी, देवर की ये दोगली बातें सुनकर नहीं, बल्कि उसकी हाँ में हाँ मिला रही सास और दोनों ननदों का रुख देख कर।
गिरगिटों की तरह रंग बदल लेने वाले लोगों को देखकर वह बेचारी कुछ समय के लिए तो संज्ञाशून्य हो गयी थी फिर होश सँभलने पर उसने ठीक सामने की कुर्सी पर बैठे चुपचाप नाश्ता कर रहे पति मृगांक की ओर बड़ी उम्मीदों से देखा। हमेशा की तरह उसके चेहरे पर छायी निर्लिप्तता को भाँप कर कात्यायनी के मन में दुःख की एक लहर उठ गयी। अब वह वहाँ रुक नहीं सकी क्योंकि उसे लगा, उसकी रुलाई फूट पड़ेगी। भारी कदमों से वह अपने कमरे में आकर बिस्तर पर ढह गयी। उसका मन जैसे मन भर भारी हो चुका था। अनायास बह आये आँसुओं के साथ वह अतीत को याद करने लगी।
प्रथम श्रेणी स्नातकोत्तर के साथ एम.एड. डिग्री धारिणी कात्यायनी ने माता-पिता के ढूँढ़े रिश्ते पर पूरा भरोसा रखते हुए बिना कोई प्रश्न उठाये अपनी हाँ की मुहर लगा दी थी।
बड़े से घर में रहने वाले ससुराल के संयुक्त परिवार ने शुरू में उसे हाथों-हाथ लिया था। एक हफ़्ते बाद ही घर के सभी कामों की जिम्मेदारियाँ उसे सौंप दी गयी थीं। वह भी सब लोगों के प्रेम और अपनत्व से सम्मोहित-सी सबकी ख़ुशियों में ही अपनी ख़ुशी देखने लगी थी। उसकी निर्दोष बुद्धि को कभी किसी का स्वार्थ समझ में ही नहीं आया था।
घर के बड़ों द्वारा अपनी बहू को नौकरी न करने देने की बात को अपनी शादी के कुछ समय बाद ही एकदम सामान्य रूप में लेने लगी थी, क्योंकि घर का माहौल ही कुछ ऐसा था। घर और अपने मन-मस्तिष्क की सुख-शान्ति के लिए उसने अपनी किशोरावस्था से पाले हुए आत्मनिर्भरता के स्वप्न को कर्तव्यों की बेड़ियाँ पहना दी थी




और स्वतंत्र पहचान बनाने की महत्वकांक्षा को आदर्श बहू और सुघड़ गृहणी नाम के सुनहरे फ्रेम में मढ़ कर ससुराल की दीवार पर टाँग दिया था।
कभी-कभी उसे आत्मग्लानि भी होती थी, जब वह स्वयं से कम प्रतिभाशाली अपनी बहनों, सहेलियों और सहपाठिनियों को अपने पाँवों पर खड़ी खुली हवा में साँस लेते देखती थी। अपने सुनहरे सपने को ऐसे भुला देने की बात सोच कर उसे तनाव होने लगता, मगर ढेरों उत्तरदायित्वों से चौतरफा घिरी वह अधिक समय तक इस विषय को याद ही नहीं रख पाती थी। फिर बीतते समय के साथ धीरे-धीरे उसका आत्मविश्वास भी उसका साथ छोड़ने लगा था। अब तो उसे लगने लगा था कि वह वास्तव में कुएँ की मेंढक ही है जो घर से बाहर निकल कर कुछ नहीं कर सकती।
उसके सारे कोमल स्वप्न अब मृतप्रायः हो चुके हैं, अब कुछ नहीं हो सकता…यह जन्म अब ऐसे ही बिना मान-सम्मान के, निरर्थक,  घुट-घुट कर ही बीतेगा। उसका भरा हुआ हृदय चीत्कार कर उठा था।
“बड़ी बहू! …सबकी चाय का बखत हो चुका है, कहाँ जम गयी हो जाकर? इतनी ढीली है कि क्या कहें…सालों बीत गये सिखाते मगर इसके शरीर में तो फुरती ही ना है!”
सासू माँ की कर्कश आवाज़ सुनाई दी और कात्यायनी चिहुँक कर वर्तमान में लौट आयी। हड़बड़ाती हुई किचन की ओर भागी। उसकी भूख मर गयी थी शायद, याद ही नहीं था कि आज उसने नाश्ता नहीं किया है।
जल्दी ही कलिका 15 दिनों के लिए अपने हनीमून टूर पर चली गयी थी, जबकि कात्यायनी के विवाह के तुरन्त बाद उसकी सास ने कहा था,
“ये हनीमून-सनीमून जैसे बेशर्मी भरे रिवाज़ों को हमारे ख़ानदानी परिवार में अच्छा नहीं समझा जाता…और हम तो अपने बेटा-बहू को ज्यादा दिन अपनी आँखों से दूर रहने भी न देंगे!”
उस समय भी घर में सभी का रुख भाँप कर उस नव-विवाहिता ने अपने नये-नवेले अरमानों का गला घोंट लिया था, बिना एक शब्द कहे।कलिका जब हनीमून मना कर लौट कर आयी, मानो उसे चिढ़ाने के लिए अपने मस्ती भरे समय की तस्वीरें और मृणाल द्वारा समय-समय पर दिलवाये गये गिफ़्ट सबको बार-बार दिखाती रही, सभी जगहों की ढेरों बातें बताती रही। सभी मज़े लेकर उसकी बातें सुनते भी रहे।
फिर अगले दिन सुबह ही घोषणा-सी करते हुए सबको बताया,
“जीजी, हमारे यहाँ सवा महीने तक नयी दुल्हन से घर के काम नहीं करवाये जाते, अपशगुन माना जाता है…माफ कीजिएगा, मैं रसोई में आपकी मदद अभी नहीं कर पाऊँगी!”
और इसी तरह नित नये बहानों से कलिका ने गृहकार्यों से भरसक दूरी बनाये रखा। तीन महीने बीतने के बाद जब उसकी छुट्टियाँ ख़त्म हो गयीं तो उसने सीधे अपने पुराने दफ़्तर की राह पकड़ ली।
बेचारी बड़ी बहू कहाँ तो सपने पाले बैठी थी कि अब देवरानी के रूप में उसे एक छोटी बहन मिल जायेगी जो उसका आधा बोझ बाँट लेगी और यहाँ एक अतिरिक्त सदस्य की सेवा का भार उसके ऊपर और आ गया था, क्योंकि कलिका ने परोक्ष रूप से उसे जता दिया था कि चूँकि मैं कामकाजी हूँ, बाहर जाकर रुपये कमाती हूँ अतः बहुत थक जाती हूँ, साथ ही घर के महत्वहीन कामों के लिए मैं बिल्कुल नहीं बनी हूँ, फिर आप तो आराम से घर पर ही रहती हो,




पैसे भी नहीं कमाती यानी कि मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ती हो तो बाक़ी लोगों के साथ मेरे कुछ निजी काम करना तो आपकी ज़िम्मेदारी है ही।
दिन ऐसे ही बीत रहे थे कि एक दिन शाम को कात्यायनी से मिलने रम्या आयी जो कभी उसकी क्लासमेट थी और अब सात-आठ महीने से पड़ोस वाले घर की बहू। रम्या ने देखा कि वह रसोई में अकेली रात के खाने की तैयारी में लगी हुई है। उसके सास-ससुर बाहर बरामदे में ठण्डी हवा के मज़े ले रहे थे, उसका पति और देवर टीवी देख रहे थे और कलिका का कहीं अतापता नहीं था। पूछने पर कात्यायनी ने बताया कि वह अपनी नौकरी से छह-साढ़े छह बजे तक लौटती है और थकी होने के कारण कभी उसकी कोई मदद नहीं करती।
रम्या न केवल बहुत संवेदनशील थी, बल्कि बहुत समझदार भी थी। सखी की आँखों में उभर आयी नमी से वह सारी कहानी समझ गयी। उसका मन सहानुभूति से भर उठा। तत्काल उसका उत्साहवर्धन करती हुई वह बोली,
“तुम तो साक्षात सरस्वती थी कनु! भूल गयी हो क्या जब हम-तुम मिडिल स्कूल में साथ पढ़ते थे तब गणित वाले आचार्यजी के कड़क स्वभाव के डर से कई सवाल समझ में न आने के बाद भी चुपचाप बैठे रहते थे…उनके पूछने पर कि सबको समझ में आ गया पाठ, सब एक स्वर में हाँ भी बोल देते थे और उनके कक्षा से निकलते ही जब 15 मिनट का रिसेस हो जाता था

तब सब तुमसे सवाल हल करवा कर सीखते थे। तुम तो असली हीरा हो बहन, बस समय के साथ विपरीत माहौल की धूल जम गयी है जिसे झाड़ कर अपनी असली चमक दुनिया को दिखा सकती हो, मैं हर कदम पर तुम्हारा साथ दूँगी।”
सहेली के सांत्वना भरे उत्साहित करने वाले शब्दों ने कात्यायनी के मन-मस्तिष्क में जैसे कोई जादू कर दिया था। मानो संजीवनी मिलने से उसके मृत सपने फिर से जी उठे थे। वह नये उत्साह से भरकर अपने जीवन को नया मोड़ देने के लिए कमर कस कर तैयार होने लगी।
घर के अन्य सदस्यों की तो छोड़ें, कात्यायनी के पति मृगांक ने भी उसके सपनों की उपेक्षा करके आज तक उसके अरमानों को कुचला ही था, अतः उसने घर में किसी से भी कोई उम्मीद नहीं पाली। उल्टा उसे डर था कि आत्मनिर्भर बनने की उसकी महत्वाकांक्षा का अगर किसी को पता चल गया तो साथ देना तो दूर, सभी रोड़े ही अटकायेंगे और वह कभी सफल नहीं हो पायेगी, इसलिए इस बार उसने अपनी मंशा किसी के सामने जाहिर नहीं होने दी।
रम्या की सहायता से जल्दी ही उसे दसवीं-बारहवीं कक्षा के गणित और भौतिकी के 4-5 विद्यार्थी मिल गये जो किसी योग्य ट्यूटर की तलाश में बहुत दिनों से परेशान थे।
अब उसे कम से कम दो घण्टों का समय खाली चाहिए था जो कि घर के कामों में उसे मुफ्त के मजदूर की तरह लगाये रहने वाले परिजन तो देने से रहे, तो उसने रम्या की मदद से इसका तोड़ भी निकाला। रम्या ने एक दिन अचानक से उसकी सास-ननदों के सामने चारा डालते हुए कहा,
“मेरे मायके वाले मोहल्ले में एक समाजसेवी संस्था चैरिटी के तौर पर मुफ़्त ब्यूटीपार्लर का कोर्स करवा रही है! अगर कनु वहाँ जाकर सीख लेती तो आप लोगों के ब्यूटी ट्रीटमेंट्स पर जो हर महीने मोटी रकम ब्यूटीपार्लर वाले लूट लेते हैं, उसकी पूरी बचत हो जाती…मगर अफसोस आपकी बहू तो जाने से रही…एक तो ये सब सीखने में उसका मन ही नहीं है ऊपर से फुर्सत भी नहीं घर के कामों से उसको…फिर थोड़ी सुस्त भी है।”
तीर सही निशाने पर लगा और सास के साथ दोनों ननदें कात्यायनी के पीछे पड़ गयीं कि यह कोर्स तो जरूर कर लो, सिर्फ तीन-चार महीने की तो बात है।
आखिरकार अपनी मेहनत और रम्या की सहायता से एक दिन कात्यायनी शासकीय शिक्षिका बनने में भी सफल हो गयी।
अब उसने अपना और कलिका का काम आधा-आधा बाँट लिया था। उसने साफ कह दिया था कि एक दिन मैं सुबह का नाश्ता और रात का खाना बनाऊँगी, दूसरे दिन कलिका को बनाना होगा।
कुछ ही दिनों में उसके हाथों के स्वादिष्ट भोजन के आदी परिवार के लोग कलिका के बेमन से बनाये बेस्वाद खाने से तंग आ गये। सब के सब अपने-अपने ढंग से कात्यायनी पर दबाव डालने लगे कि खाना उसे ही बनाना चाहिए लेकिन वह सब कुछ जानते हुए भी चुप रही, जैसे उसे कुछ समझ में ही न आ रहा हो। एक सही मौक़े की तलाश में थी अब वह जो कि जल्दी ही आ गया जब सासूमाँ का सब्र एक दिन जवाब दे गया। वे अपनी आवाज़ को पहले की तरह कड़क बना कर बोलीं,
“सुनो बड़ी बहू! तुमने जो इतने दिनों तक सबको अपने हिसाब का खाना खिलाकर सबकी आदतें बिगाड़ दी हैं,




तो तुम ऐसे खूँटा तुड़ाकर भाग नहीं सकतीं। सबकी मर्ज़ी है कि रसोई तुम्हें ही सँभालनी होगी…सुन लो कान खोल कर!”
कात्यायनी तो कई दिनों से इसी समय के इंतज़ार में थी। लोहा गरम देखकर सही जगह पर चोट मारते हुए उसने तुरन्त कहा,
“अम्माँ जी! आपकी आज्ञा और घर के सब लोगों की मर्ज़ी सर आँखों पर…लेकिन अब रसोई की सारी जिम्मेदारी कुछ शर्तों पर ही संभालूँगी मैं। पहली तो यह कि मुझ पर घर के दूसरे कामों का थोड़ा भी बोझ नहीं डाला जायेगा…

दूसरी यह कि कोई रोबोट नहीं हूँ मैं…मुझे भी थकावट होती है, साथ ही मैं भी जीती-जागती इंसान हूँ, मेरी भी भावनाएँ हैं…लोगों के बेवजह के तानों से, बदतमीजियों से मुझे भी चोट पहुँचती है। तो सबको मेरे मान-सम्मान का वैसे ही ख़याल रखना होगा, जैसे मैं छोटे-बड़े सबका रखती हूँ। मेरी ये शर्तें आप लोगों को मंज़ूर हो तो ठीक, न हो तो भी ठीक…अपने वेतन से अपने लिए एक निजी सहायिका रखने की सोच चुकी हूँ मैं। केवल अपने पति और बच्चे का खाना बना कर मैं स्कूल चली जाऊँगी…बाक़ी काम मेरी मेड देख लेगी!”
जल्दी ही आलस और कामचोरी की मारी कलिका के बुरे दिन शुरू हो गये। घर के कामों में फँसकर अब वह न तो अपनी नौकरी को पूरा समय दे पा रही थी, न ही सही तरीके से अपना ध्यान ही रख पा रही थी। ऑफिस रोज ही देर से पहुँचती। थोड़े दिनों बाद उसकी वह टटपूँजिया नौकरी अन्ततः छूट ही गयी जिसके दम पर वह बढ़-चढ़ कर बातें किया करती थी।
कात्यायनी ने अपनी लगन और परिश्रम के बल पर देवरानी-जेठानी की घर में भूमिका को 180 डिग्री घुमा कर रख दिया था।
अब कलिका मेड को लेकर हाँफती-झींकती घर की साफ-सफाई करवाती थी, कपड़े धुलवाती थी

और सबके कपड़े रो-धोकर प्रेस करती थी। बीच-बीच में सबकी आज्ञानुसार मन ही मन सबको कोसते हुए उनकी अलमारियाँ भी जमाती थी, जैसे पहले जेठानी किया करती थी। दोनों ननदों का आना अब उसे बहुत भारी लगता। और सास तो उसे सबसे बुरी लगने लगी थीं क्योंकि दिन भर उसे अपने इशारों पर नचाती जो रहती थीं।
थक-हार कर एक दिन उसने अपने तरकश का एक पुराना मगर अमोघ तीर निकालकर कात्यायनी को फिर से मात देने का तय किया। उसके पास जाकर धम्म से पैरों के पास ही बैठ गयी फिर दुखड़ा रोते हुए कहने लगी,
“जीजी, मुझे माफ़ कर दो…तुम जीतीं, मैं हारी!…तुमने एक बार प्रस्ताव रखा था न कि तुम्हें सारे घर का खाना बनाने में कोई दिक्कत नहीं है, अगर मैं तुम्हारी हेल्प कर दिया करूँ…तो जीजी, फिर से अपनी रसोई सँभाल लो न!…मैं तो निरी गँवार ठहरी, तुम्हारी कुशलता के आगे। पूरे घर में सबसे अच्छी, सबसे ज्यादा लायक हो तुम तो…!”
कात्यायनी अब वह पुरानी वाली भोलीभाली गृहिणी नहीं रह गयी थी जो उसकी चालाकी न समझ पाती। घर से बाहर निकल कर नौकरी करते हुए उसका पाला अलग-अलग तरह के लोगों से पड़ता रहता था जिनसे मिले अनुभवों से वह भी थोड़ी व्यवहारिकता सीख चुकी थी अब तक। तुरन्त ही उसने बीते समय में कई बार उसका अपमान कर चुकी बदतमीज देवरानी को करारा जवाब पकड़ाया।
“कलिका, आज जब ऊँट पहाड़ के नीचे आ ही गया है न तो फिर मेरा फाइनल डिसीज़न सुन ही लो! तुम अपने-आपको बहुत चालाक समझती हो न, जरूर समझो बहना…तुमको हक़ है! …केवल होशियार नहीं, दुनिया की सबसे ज्यादा होशियार समझो ख़ुद को…मगर ये जो तुम सामने वाले को बेवकूफ समझ लेती हो न, यहाँ ग़लती कर जाती हो!”
कलिका की हालत रो पड़ने वाली हो गयी थी लेकिन फिर भी उसने आखिरी कोशिश की।
“जीजी, मेरे बस का ना है तुम्हारे जैसे घर को एकदम अच्छे से चलाना…फिर हमारे घर में पैसों की कोई कमी भी नहीं है जो मुझे या तुम्हें नौकरी करने की जरूरत पड़े!”
देवर मृणाल पत्नी का पलड़ा मजबूत करने उसके पीछे आ खड़ा हुआ था। इससे पहले कि वह कुछ बोलने को मुँह खोलता, कात्यायनी ने उसकी दी हुई चोट भी ब्याज सहित लौटा दी आज। उसकी ओर तीखी नज़रों से देखती हुई बोली,
“घर के काम भी कोई काम होते हैं क्या कलिका जो इतनी परेशान हो रही हो…फिर आजकल का जमाना घूँघट डाल घर पर मुफ़्त की रोटियाँ तोड़ने का नहीं है…याद है न, पति-पत्नी गृहस्थी की गाड़ी के दो पहिये होते हैं, दोनों को एक-दूसरे का साथ हर तरह से निभाना चाहिए तो देवर जी कामों में तुम्हारी मदद कर दिया करेंगे…रही बात मेरी नौकरी की, तो जिस काम ने मेरी असली पहचान दुनिया को करवायी है…मेरी बेइज़्ज़ती करने वालों को सम्मान देने पर मजबूर कर दिया है, वह मैं कभी नहीं छोड़ूँगी!”
मृणाल और कलिका के चेहरे अपमान से काले हो गये। अतीत में भाभी के साथ किये दुर्व्यवहार का पछतावा उस काले रंग को और गहरा कर रहा था। दोनों के चेहरों पर एक उपेक्षित दृष्टि डाल कात्यायनी गुनगुनाती हुई रम्या के घर की ओर चल पड़ी।
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साप्ताहिक विषय #पछतावा
स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित
नीलम सौरभ
रायपुर, छत्तीसगढ़

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