लापता – पुष्पा जोशी

अब तुम्हारी इस मार का और तुम्हारी भद्दी गालियों का कोई असर नहीं होता मुझपर। हरसू तुम्हारी हर पल यही मंशा रहती है,कि मैं कुछ कहूं और तुम दुगनी रफ्तार से मुझ पर वार करो, लातों के और शब्द बाणों के,मगर मैं ऐसा नहीं करूंगी । मैं पहले तुम्हें रोकती थी,तुम पर कुछ विश्वास था और लगता था कि तुम्हारे दिल के किसी कौने में मेरा भी अस्तित्व है। मगर अब तो ऐसा कुछ नहीं है। तुम्हारे मेरे बीच दिल का रिश्ता तो कबसे टूट चुका,उसी दिल का रिश्ता जिसकी डोर थामे मैं अपना भरा पूरा परिवार छोड़कर आई थी,कितना मना किया था,माँ- पापा ने कि मत कर हरसू से शादी पछताएगी,वह छोड़ देगा तुझे,वह तेरे लायक नहीं है, बेटा हमने दुनियाँ देखी है,मान जा मगर मुझ पर तेरा भूत सवार था,उस समय भगवान से भी ज्यादा विश्वास किया था तुझ पर। मैं उन्हें रोता बिलखता छोड़कर तेरे साथ आ गई। मगर सात महीने में ही तूने अपना असली रूप दिखाना शुरू कर दिया, सात फेरों और वचनों का संबध तार-तार होने लगा मैंने बचाने की भरसक कोशिश की, मगर तेरी दारू की लत ने बदले में  लात,घूंसो और गालियों के अलावा कुछ नहीं दिया।पहले तेरी मार शरीर के साथ दिल को भी चोटिल करती थी। गालियों की आवाज कानों से उतर कर दिल को आहत करती थी।उसका इलाज नहीं था मेरे पास।मगर अब शरीर की पीड़ा मल्हम लगाने से ठीक हो जाती है और कानों को वे गालियां पागल के प्रलाप के सिवा कुछ नहीं लगती। परसों तो तूने हद कर दी उस ध्रुवा को घर पर ही ले आया और मेरी आँखों के सामने ही…….।छी……।

तेरे साथ न तन का रिश्ता रहा न मन का।सिर्फ एक सामाजिक बंधन गले का मंगल सूत्र गले की फांसी बन गया,और हाथों की चूड़ियां मेरी बेड़ियां.जिसके कारण अब तक तेरे साथ एक छत के नीचे थी। आज अनायास उसके मोती बिखर गए और चूड़ियों को मैंने स्वयं उतार दिया. जा रही हूँ, यहां से गुमनामी के अंधेरे में, मायके वालों को चेहरा दिखाने की हिम्मत नहीं हैं,और शरीर ईश्वर ने दिया है वहीं वापस लेगा ।निकल गई हूँ घर से एक अनजान राह पर । क्यों लिख रही हूँ, यह सब नहीं मालूम मैंरा परिचय कुछ नहीं मैं हूँ, बस लापता।’ कावेरी चली गई।

हरसू ने पत्र पढ़ा तो सकते में आ गया,उसे चिन्ता हुई कि उसका कार्य कौन करेगा,जब कुछ नहीं सूझा तो शराब की पूरी बोतल गटका ली और पत्र को लेकर कांवेरी के घर गया और घर वालों को भद्दी गालियां देने लगा और जोर-जोर से पत्र  को पढ़कर सुनाने लगा, उसे यह भी होश नहीं था कि इसको पढ़ने से, उसकी ही इज्जत उछल रही है। खत को सुनकर कावेरी के परिवार के लोग बहुत परेशान हो गए,उनका रोना रूक ही नहीं रहा था,वे यही कह रहैं थे कि बेटा तू इतना दु:ख झैलती रही,ये माँ पापा क्या इतने पराये हो ग‌ए थे,तू कभी कुछ तो बताती, यहाँ लौट आती, इतने बड़े जहाँ में तुझे कहाँ ढूंढें ।तू लापता हो गई और हमें एक नासूर दे दिया जो कभी नहीं भरेगा।

अब बस यही विचार आता है कि काश कांवेरी  अपने मायके वापस लौट जाती,तो सब मिलकर समस्या को सुलझा लेते, इस तरह लापता होना किसी समस्या का हल नहीं बल्कि आने वाले संकटों को निमंत्रण देना है।

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक

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