आधी रात को फोन आया और सब कुछ खत्म हो गया…
मोहित का काॅल आस्था ने ही रिसीव किया और सुनकर वो सदमे में खड़ी की खड़ी रह गई। अखिल ने लपककर फोन लिया और जैसे ही मोहित से सुना कि माॅ॑ गुजर गईं उसे धक्का लगा, अपनी सासु मां से अखिल को बेहद लगाव था।
उसने आस्था को संभाला, मोहित को बोला,” हम अभी निकल रहें हैं सुबह आठ बजे तक पहुंच जाएंगे।”
आस्था को तो होश नहीं था अखिल ने फटाफट बैग में कुछ कपड़े अपने, आस्था और बेटे आशू के रखे। अपने दोस्त सुनील को फोन कर बताया वह तुरंत ही अपनी पत्नी अनीता के साथ आ गया।कुछ बिस्कुट वगैरह आशू के लिए और ब्रेड बटर एक बैग में रखे।
वे तीनों तभी निकल कर सुबह जा पहुंचे। वहां पहुंच कर आस्था निर्जीव माॅ॑ को देखकर बदहवास हो गई, सभी का बुरा हाल था। बड़े भाई राजेश और मोहित उसे देख फफक फफक कर रो पड़े,” माॅ॑, हमें छोड़कर चली गई गुड्डी।” मायके में उसे सभी गुड्डी ही बुलाते हैं।
भाभियां भी रो रही थीं, पोते-पोती दादी के जाने से बहुत दुखी थे।
तेरहवीं के बाद दो दिन रुक कर आस्था जाने लगी तो राजेश भैया उसे लेकर माॅ॑ के कमरे में ले कर गए। छोटे भाई मोहित, दोनों भाभियां और अखिल वहीं मौजूद थे।
“दीदी, मांजी की निशानी स्वरूप साड़ियां अलमारी से ले लीजिए। कुछ गहने हैं वो भी देख लीजिए।” बड़ी भाभी ने कहा
“साड़ी दे दो भाभी। संभाल कर रखूंगी, जब कभी पहनूंगी तो लगेगा माॅ॑ आस पास हैं। गहने नहीं चाहिए मुझे।” कहते हुए आस्था फूट फूटकर रो पड़ी
जबरदस्ती भाई-भाभियों ने साड़ियों के साथ गहने भी दिए।
“गुड्डी ये लकड़ी का बक्सा याद है?” एक काठ का मध्यम आकार का बक्सा (संदूक) दिखाते हुए भैया ने पूछा
“हां भैया! इसमें तो हम सभी की जान बसती है। इसमें रखे सामान में से मैं चुन-चुनकर लूंगी।” आस्था ने कहा
“हां, पहले तू ही छांटना पर हम भी लेंगे, समझी गुड्डी।” दोनों भाइयों ने कहा
भाभियों सहित अखिल भी देखने लगे कि ऐसा क्या है उस बक्से में कि तीनों भाई- बहन उतावले हो रहे हैं!
लपककर आस्था ने बक्से का कुंदा खोला। अरे ये क्या! बक्से में तरह-तरह के खिलौने रखे थे- पहियों वाली गाड़ी, स्प्रिंग वाला बंदर, दुल्हन गुड़िया, मास्टरनी गुड़िया, छोटा सा ट्रेक्टर, पहियों वाला हाथी , लकड़ी का छोटा घोड़ा, मोर का जोड़ा, काले रंग का ट्रेन का इंजन, कुछ पहिये निकले पड़े थे जो शायद एक बस के टूटे हुए थे , सफेद खरगोश, छोटा सा काला भालू, नीले रंग की चिड़िया, पुलिस वाला गुड्डा और भी जाने कितने ही ऐसे ही खिलौनों से अटा पड़ा था वो बक्सा। भंडार था पूरा वहां पर खिलौनों का! वो काठ का बक्सा पूरा का पूरा यादों का पिटारा था जिसमें तीनों भाई बहन डुबकियां लगाने लगे।
तीनों भाई- बहन मिलकर एक-एक खिलौना उठाकर बातें कर रहे थे…
“ये वाला काला भालू जब हम मसूरी गए थे तब माॅ॑ से जिद कर मैंने लिया था।” मोहित भैया बोले
” दुल्हन वाली गुड़िया पापा मेरे लिए शंकर म्यूजियम दिल्ली से लाए थे।” आस्था बोली
“दिल्ली से मेरे लिए गुड्डा लाए थे।” राजेश भैया बोले
“ये वाली गाड़ी माॅ॑ ने मेरे नवें जन्मदिन पर दिलवाई थी।” आस्था ने गाड़ी को छूते हुए कहा
ऐसे ही सभी खिलौनों से उनकी ढेर सारी माॅ॑ -पापा की यादें जुड़ी हुई थीं। बचपन मानो तीनों के आगे चलचित्र की भांति चल रहा था इस समय।
अब तीनों ने मिलकर बंटवारा कर लिया खिलौनों का, अपनी बचपन की यादों, सुनहरे लम्हों को तीनों ने अपनी झोली में समेट लिया।
उस काठ के बक्से में भरे खिलौनों ने उन्हें उनकी बचपन की खूबसूरत यादों से दोबारा दीदार करवा दिया।
ढेरों स्नेह के पलों में भीग गई आस्था,घर से चली तो भाई-भाभियों ने गले लगाकर कहा,” गुड्डी, जल्दी जल्दी घर आना। माॅ॑ चली गईं पर उनकी परछाई तुझमें बसती है, बहन।”
नम ऑ॑खों से आस्था कुछ बेशकीमती यादें माॅ॑-पापा की सहेजकर ले चली… परिवार में भाई-बहन के बीच का प्यारा बंधन ज़िन्दगी का वो रंग है जिसके आगे सभी रंग फीके हैं।
दोस्तों, भाई-बहन के निश्छल प्रेम में डूबी, माॅ॑-पापा के स्नेह में पगी, सुनहरी यादों से भरी ज़िन्दगी के अद्भुत रंगों से सराबोर करती मेरी यह पारिवारिक कहानी आपको कैसी लगी? आपकी प्रतिक्रिया का इंतज़ार रहेगा। पसंद आने पर कृपया रचना को भरपूर लाइक कमेंट और शेयर कीजिएगा।
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धन्यवाद।
-प्रियंका सक्सेना
(मौलिक व स्वरचित)
#परिवार
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