वृद्धाश्रम – हरीश पांडे

वृद्धाश्रम की अपनी चारपाई पर बैठे 70 वर्षीय जगजीवन शर्मा ‘वृद्धाश्रम’ पर ही एक लेख लिख रहे थे। लेखन हमेशा से ही उनकी हॉबी थी पर जवानी में व्यवसाय और पैंसे कमाने में ऐसे उलझे कि फिर अपने विचारों को सलीके से शब्दों में तब्दील करने के शौक को कहीं पीछे ही छोड़ आये।

अब धर्मपत्नी के स्वर्गवास और पैसों की चकाचौंध से मोहभंग हो जाने के बाद कुछ अपने लिए करने की सुध आयी। वैसे पैंसे भी खूब कमाए थे और मृत्यु तक आराम से अपनी गुज़र बसर कर सकते थे। बेटा भी एक ही था और अब वो भी पैंसा कमाने की दौड़ में व्यस्त था। पर कुछ था जो उन्होंने वृद्धाश्रम में बसने का निर्णय लिया था। उनके लेख का पहला वाक्य ही इतना वज़नदार था कि मालूम चलता था कि उन्होंने दुनियादारी बहुत करीब से देखी है।

“अपनों के बीच गैरों की तरह रहने से बेहतर है कि गैरों के बीच गैरों की तरह रहो।”

इतना लिखकर वो दो पल को कुछ सोचने लगे और फिर लिखने लगे।

” एक उम्र होती है हर चीज़ की जब वो समझ आना बंद हो जाती है या बेहतर समझ आना शुरू हो जाती है। मैं पिछले 2 सालों से इस वृद्धाश्रम में रह रहा हूँ जहाँ लगभग सभी मेरी आयु के लोग ही हैं।

इस उम्र में कोई चाहिए होता है जो अपना सा हो, खून के रिश्ते से या हालातों के हिसाब से। यहाँ लगभग सभी मज़बूरी से ही आते हैं। और एक मज़बूर को दूसरा मज़बूर अपना सा ही लगता है। वैसे मेरी कोई खास मज़बूरी नहीं है दूसरों की तरह। मैं किसी पर बोझ भी नही था। अपना निर्वाह अच्छे से करने की हैसियत है मेरी पर यहाँ मैंने कई लोग ऐसे भी देखे जिन्होंने सारी उम्र खूब पैंसा कमाया लेकिन बुढापे की दहलीज़ पर आते ही उनके घरवालों ने उनका पैंसा और उनका आशियाना दोनों उनसे छीन लिए। वैसे यहाँ सरकारी नौकरीपेशा लोग कम ही देखने को मिलते हैं क्योंकि रिटायरमेंट के बाद भी उन्हें सरकारी पेंशन मिलती है पर फिर भी एकाध लोग हैं यहाँ जो सरकारी पेशे में थे।




पहले मैं यह मानता था कि बुढापे में कमाई का कोई ज़रिया न होने के कारण आपके बेटा बहु आपको बोझ मानकर ऐसे किसी वृद्धाश्रम में छोड़ आते होंगें। परन्तु यहाँ आकर और खुद की मनोस्थिति देखकर यह तो पता चल गया कि पूर्णतया ऐसा नही होता। लोग कमाऊ भी हैं और प्राकृतिक रूप से सक्षम भी, लेकिन फिर भी अपने अपनों से दूर उन्हें यहाँ रहते देख कुछ अचंभा सा होता है।

ज्यादा दूर न जाते हुए, मैंने अपनी स्थिति का ही आंकलन किया। मैंने और मेरी पत्नी ने मिलकर एक व्यवसाय शुरू किया और उसे फर्श से अर्श तक ले गए। अपना खून पसीना और जवानी उसपर न्यौछावर कर दी। लेकिन हम शायद ये भूल गए कि हमारा एक बेटा भी था जिसे अपने माँ बाप के प्यार और साथ की और अधिक मात्रा में जरूरत थी जितना उसे उस वक़्त मिल रहा था। हम जो भी कुछ कर रहे थे उसको एक अच्छा भविष्य देने के लिए ही कर रहे थे। पर उसके वर्तमान पर हमने शायद ध्यान नहीं दिया। 

जब वो थोड़ा और बड़ा हुआ तो हमने उसे एक अच्छे बोर्डिंग स्कूल भेज दिया। सिर्फ ये सोचकर कि वहाँ वो अच्छी शिक्षा के साथ साथ जीने का सलीक़ा भी सीख जाएगा। । साल में एकाध महीने साथ रहने से उसके अंदर हमारे लिए क्या ही लगाव रहता होगा। धीरे धीरे वो हमसे दूर होता गया। उसने अच्छी शिक्षा भी प्राप्त की और अच्छी नौकरी भी। और अब वो व्यस्त है अपनी ज़िंदगी को अपने तरीके से जीने में।

कहते हैं बचपन और बुढ़ापा एक जैसा ही होता है। बुढ़ापे में वृद्धाश्रम आकर मुझे अपने बेटे की बचपन के होस्टल वाली मनोदशा की अच्छे से अनुभूति हो गई। अपने हमउम्र लोग तो हैं साथ में पर अपनेपन से ख्याल रखने वाला अपना कोई नहीं।




बहुत खाली वक़्त होता होगा उसके पास भी बचपन में अपने माता पिता को याद करने के लिए, जैसे मेरे पास है अभी बुढ़ापे में उसे याद करने के लिए।

सोचता हूँ कि उसे समझाऊँ कि पैंसा ही सब कुछ नही होता जीवन में पर फिर ये सोचकर रुक जाता हूँ कि बचपन में तो मेरे पास  वक़्त ही नहीं था उसका सलाहकार बनने को। फिर भला वो अब मेरी बात क्यों मानेगा।

सफलता पाने को, अपना नाम बनाने को, अपने सपनों को सच करने के लिए बहुत कुछ त्याग करना पड़ता है पर ये सब करने के बाद अगर शाबाशी देने को और ख़ुशी में जश्न मनाने को कोई सच मे अपना नहीं तो ये सब ज़ाया ही मालूम पड़ता है। एक धागा जो अपनों के दिल से अपने दिल तक जुड़ा होता है अगर वो टूट जाये तो फिर भले ही कितने पैंसे जोड़ लो जीवन मे, उनका कोई मोल नहीं।

पैंसे कमाने के बाद अगर उनको खर्च करने का वक़्त और जिनपर खर्च करना है वो अपने ही न हों, तो मेरी तरह हर कोई खुद ही या तो वृद्धाश्रम में आ धमकेगा या सन्यासी हो जायेगा।

हम बूढ़े लोग बुढापे का हवाला देकर खुद को पीड़ित की तरह दर्शाते हैं। कुछ सच में होते भी हैं पर फिर भी अधिकतर आखिरकार ये ही गिनवाते हैं कि हमने अपने बच्चों के लिए इतना सब कुछ किया और आज हमें ये दिन देखने पड़ रहे है। पर मैं इसको स्पष्ट करना चाहता हूँ कि पैंसे और संस्कारों का कोई लेना देना नहीं है। पैंसों की कमी से परवरिश में थोड़ा बहुत फर्क आ सकता है। पर प्यार और वक़्त की कमी से व्यक्तित्व में बहुत ज्यादा फर्क आ जाता है। आपका प्यार और आपके संस्कार ही आपको एक दूसरे के प्रति वफादार और एकजुट बनाये रखेंगे।

जीवन में भौतिक सुख तो पैंसों से खरीदा जा सकता है पर अपनत्व के लिए आपके संस्कार और व्यवहार ही जिम्मेदार होंगें। जैसे ताली एक हाथ से नहीं बजती वैसे ही यह परिस्थिति भी एकतरफा नहीं है। अपने बच्चों को इतना विवेकशील और संयमी बनाएं कि वो अपने बुढ़ापे में इस तरह पछतावा न करें।

वैसे मैंने इस लेख का शीर्षक  ‘वृद्धाश्रम’ रखा है, पर इसको अगर मैं बचपन के लिहाज से ‘होस्टल’ भी लिखूँ तो शायद गलत नहीं होगा।

हरीश पांडे

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