उम्र तो सिर्फ एक नंबर है

बिल्कुल सच बात है कि इंसान नियति के हाथों का खिलौना है।नियति के हाथों इंसान कभी-कभी मजबूर हो जाता है,चाहे राजा हो या रंक।मनुष्य अपना कर्म तो लगन से करता है,परन्तु कभी-कभार नियति उसके साथ ऐसा क्रूर मजाक करती है कि विश्वास करना कठिन हो जाता है।नियति के खेल को समझते हुए  ही तुलसीदास जी ने कहा है-‘होइहिं  वही जो राम रचि राखा’।श्री राम को तो वनवास लिखा ही था,परन्तु  राम को प्राण से ज्यादा प्यार करनेवाली कैकयी को भी अपयश लिखा था।

जिन्दगी से सभी को प्यार होता है,परन्तु कुछ लोग विपत्तियों के आने पर भी नियति के सामने  घुटने टेककर हार नहीं मानते हैं।बहुत पहले आनंद फिल्म देखी थी।उसका नायक भयंकर  बीमारी के बावजूद जिन्दगी से बहुत प्यार करता है।उस समय विश्वास नहीं हुआ  कि दुख की घड़ी में भी कोई जिन्दगी से इतना प्यार कैसे कर सकता है!फिर महसूस हुआ कि फिल्म में कुछ भी हो सकता है,परन्तु वास्तविक जीवन में मुझे एक ऐसी महिला से मुलाकात हुई, जिन्हें देखकर मुझे विश्वास करना पड़ा कि व्यक्ति कितना भी हिम्मती,धैर्यशील क्यों न हो,परन्तु नियति अपने प्रहार से उसे तोड़कर रख ही देती है।

आज  श्रीमती नीता सिन्हा नाम की महिला  की कहानी  लिख रही हूँ।मेरी सोसायटी में उनका आगमन पाँच वर्ष पूर्व हुआ था।शाम के वक्त पार्क में घूमते हुए उनपर मेरी नजर पड़ी।मेरी सहेली ने कहा -” उस महिला को देखो!इन्होंने अपनी सोसायटी में बड़ा-सा फ्लैट ले रखा है,परन्तु कामवाली के साथ अकेली रहती हैं!”

उस समय तो मैंने उतना ध्यान नहीं दिया,परन्तु उन्हें देखने पर धीरे-धीरे एहसास हुआ कि उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा आकर्षण था,जो सामनेवाले को बिना आकर्षित किए नहीं रह सकता था।वैसे तो उनका रूप-रंग साधारण ही था,पर आकर्षण का केन्द्र था उनका पहनावा और उनकी 84 साल की उम्र!इस उम्र में भी उनका शरीर  कमान की तरह सीधा था।उनका छरहरा बदन सदैव मंहगी सूती साड़ियों से सुसज्जित रहता।साड़ियों में सदैव करीने से कलफ लगे रहते और चेहरे पर एक स्मित मुस्कान। एक दिन उत्सुकतावश मैंने पूछ ही लिया -” नीता दी!इस उम्र में भी इन सूती साड़ियों को कैसे मेंटेन करती हैं?मुझे तो अभी से ही साड़ियों में कलफ देना झमेला लगता है।”

उन्होंने बस मुस्करा भर दिया।धीरे-धीरे उनके बारे में बहुत कुछ जानने की हमारी उत्सुकतावश बढ़ती जा रही थी।उनके चेहरे पर बस नाममात्र की झुर्रियाँ,अधपके बाल कमान-सा शरीर हमारे कौतूहल के विषय थे।

धीरे-धीरे नीता दी हमारे साथ  शाम में पार्क  में बैठने लगीं।एक दिन मैंने पूछ लिया -” नीता दी!इस उम्र में भी आप इतनी सक्रिय और फिट कैसे हैं?”

उन्होंने कहा-“मैं रोज सुबह एक घंटा योगा करती हूँ।तुमलोग भी किया करो,स्वस्थ रहोगी।”

 एक दिन  हम सहेलियाँ उनके घर गईं।घर में उनकी कलात्मक  सुरुचि देखकर  हम आआश्चर्यचकित  थे।हमें लगा कि नीता दी कितनी खुशनसीब हैं!परन्तु हमें नहीं पता था कि उनके मन की अतल गहराईयों में गमों का समंदर छुपा पड़ा है।

बातों-बातों में एक दिन नीता दी ने कहा -” मेरे पति बहुत  बड़े इंजीनियर थे।उनके साथ मैं इंग्लैंड रही थी और कुछ दिनों तक वहाँ नौकरी भी की।फिर वापस स्वदेश  लौट आई।मेरी दो बेटियाँ हैं,दोनों की शादी हो गई है।”

इतना कहने के बाद वे खामोश हो गईं।पलभर के लिए उनकी उदास निष्प्रभ आँखों में विषाद घनीभूत हो उठा।हमने भी आगे उन्हें कुरेदना ठीक  नहीं समझा।सभी अपने -अपने घरों में आ गए। 

अब नीता जी रोज शाम में पार्क में आकर हमारे पास बैठने लगीं।बातों-बातों में उन्होंने बताते हुए कहा-“मेरे पति की मौत काफी समय पहले  कैंसर के कारण हो चुकी है।बड़ी बेटी और दामाद पटना में ही डाॅक्टर  थे,इस कारण जिन्दगी की गाड़ी धीरे-धीरे पटरी पर आने लगी।दूसरी बेटी और दामाद  दिल्ली में हैं।”

इतना कहकर एक बार  फिर से नीता दी खामोश हो गईं।हमने उनकी आँखों के कोर को नम होते हुए  महसूस किया।उनके बारे में जानकर  हम सभी आश्चर्य कर रहे थे कि लोग आज भी एक बेटा के लिए  हाय-तौबा मचाते हैं,परन्तु नीताजी ने उस समय भी दो बेटियों के बाद एक बेटे की चाहत नहीं की।कभी भी उन्होंने बेटे की चाहत या बेटे की कमी का जिक्र नहीं किया। सदैव उनके होठों पर एक प्यारी  -सी मुस्कान  बनी रहती थी।हम सभी  के लिए उनका व्यक्तित्व एक उदाहरण बन गया था।

अपनी जिन्दगी की कहानी टुकड़ों-टुकड़ों में नीता दी बयाँ कर जातीं।एक दिन  भरे मन से उन्होंने बताया -“मेरी बड़ी डाॅक्टरनी बेटी भी कुछ समय पहले कैंसर बीमारी से ही गुजर गई। उसके दोनों बेटे विदेश में रहते हैं।इस कारण मैंने दामाद की दूसरी शादी करवा दी।”

इतना कहते -कहते नीता दी भावुक हो उठी और उनकी आँखों से आँसू बह निकले।हमने उन्हें गले लगकर  सांत्वना दी।वास्तव में इतना बड़ा कलेजा नीता दी का ही हो सकता था,जिन्होंने बेटी के गम को भूलकर दामाद के अकेलेपन को शिद्दत से महसूस किया था।

बड़ी बेटी के गुजर जाने के बाद  पटना शहर में रहना  उनके लिए  बेजार -सा हो चला था। उनकी दूसरी बेटी ,जोकि दिल्ली में रहती थी,उसने नीताजी से कहा -” माँ! अब आप दिल्ली हमारे पास चलो।यहाँ आप अकेली कैसे रहोगी?”

नीता जी ने परिस्थिति से समझौता करते हुए  छोटी बेटी से कहा -” ठीक है!मेरा यहाँ(पटना)का घर बेच दो और अपने अगल-बगल फ्लैट खरीद दो ,क्योंकि मैं बेटी के यहाँ नहीं रहूँगी!”

छोटी बेटी ने उनकी इच्छाओं का सम्मान करते हुए  वैसा ही किया और इस तरह नीता दी हमारी सोसायटी में आ गईं।उन्हें छोटी बेटी का बहुत सहारा था।बगल में होने के कारण  उनकी छोटी बेटी उनके सारे बाहर के काम-काज देखती।उनकी बेटी ने उनके पास एक स्थायी मेड रख दिया था।नीता जी ने मना करते हुए  बेटी से कहा था -“अरे!मैं बिल्कुल ठीक  हूँ।मुझे स्थायी मेड की क्या जरूरत है?”

परन्तु उनकी बेटी ने जिद्द करते हुए कहा -” नहीं माँ! मेड हमेशा आपके पास रहेगी।आप अकेली रहतीं हैं।आपको कुछ हो जाएगा,तो हमें पता भी नहीं चलेगा।”

एक बार फिर  छोटी बेटी के सहयोग से उनकी जिन्दगी पटरी पर लौटने लगी।हम महिलाओं ने नए साल की पार्टी मनाई, उसमें नीता दी ने भी खुलकर भाग लिया।अपने गमों को परे ढ़केलकर हँसी-मजाक सभी में शामिल रहीं।उन्हें क्या पता था कि नियति की क्रूर दृष्टि एक बार  फिर से उन्हें घूर रही है!नियति ने उन्हें नए साल में सौगात  देने के बदले उनकी छोटी बेटी की मौत दे दी।उनकी छोटी बेटी रात में अच्छी-भली सोई,परन्तु सुबह का सूरज नहीं देख पाई।यह खबर सुनकर  हम सभी स्तंभित थे।ऐसा महसूस  हो रहा था मानो नियति ने नीता दी की खुशियों से जंग छेड़ दी हो!

इस सदमे ने नीता दी को तोड़कर रख दिया था।गमों से छलकती उनकी आँखों में एक शून्य को टँगते हुए  हमने कई बार देखा था।नीता दी जीवट व्यक्तित्व की मालकिन  थीं।उन्होंने भी मानो नियति को चुनौती दे रखी थी।बार-बार नियति को धता बताकर  वे सँभलने की कोशिश करतीं,परन्तु छोटी बेटी की मौत ने उन्हें अन्दर से पूरी तरह खोखला कर दिया था। अब भी उनके होठों पर एक स्मित मुस्कान तो रहती थी,परन्तु उसमें नियति की मार स्पष्ट  दिखाई देती थी।उनकी आँखों की नमी से कई बार हमें एहसास  होता कि इस बार नियति ने उनके दिल को पूरी तरह निचोड़कर रख दिया है।

कुछ समय बाद  नियति ने एक बार  फिर  से उनपर क्रूर प्रहार किया,और उन्हें सँभलने का मौका नहीं दिया।कोरोना रुपी काल ने दूसरी लहर में उन्हें  अपनी आगोश में ले लिया।नीता दी भी नियति से जंग लड़ते-लड़ते थक चुकी थीं।मौत ने उन्हें सारे गमों से मुक्ति दे दी।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा(स्वरचित)

#नियति

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