तुम्हारी माँ हूँ – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ” बस कीजिए ये टोका-टोकी, आपका क्या अधिकार है हम पर रोक-टोक लगाने का।” अंकित गुस्से-से कौशल्या जी पर चीखा तो वो बोली,” तुम्हारी माँ हूँ।” 

   ” मगर सौतेली…” पीछे से अंकुर ने कहा तो वह स्तब्ध रह गईं। ‘ सौतेली ‘ शब्द ने जैसे उनके हृदय में एक तीर चुभो दिया हो।

          बाईस बरस पहले वह कस्बे के नामी ज़मींदार दीनदयाल चौधरी की दूसरी पत्नी बनकर इन बच्चों की माँ भी बन गई थी।उससे पहले उसके ही गाँव के एक किसान से उसका विवाह हुआ था।साल भर के अंदर ही हैजे से उसकी मृत्यु हो गई।सास-ससुर ने कुलच्छनी-अपशकुनी कहकर उसे घर से निकाल दिया।भाई शहर में रहता था,बहन को अपने साथ ले आया परन्तु उसे यह चिन्ता भी थी मेरे बाद इसका क्या होगा।दीनदयाल से उनकी जान-पहचान थी।काम के सिलसिले एक दिन जब दीनदयाल उनसे मिलने आये तो उन्होंने दीनदयाल को कौशल्या के बारे में बताते हुए कहा कि मैं इसका फिर से विवाह करना चाहता हूँ, कोई नज़र में हो तो बताना।

       तब दीनदयाल बोले कि अगर उचित समझो तो मैं कौशल्या को अपनी पत्नी बनाने को तैयार हूँ।तुम तो जानते ही हो, पत्नी के स्वर्गवास के बाद से तीन-तीन बच्चों को संभालने में मुझे कितनी परेशानी हो रही है।कहने को तो वे तीनों पंद्रह वर्ष के हो चुके हैं लेकिन भाई, गृहिणी बिना घर भी तो भूतों का डेरा ही होता है।खेती से आमदनी इतनी तो हो ही जाती है कि बच्चों को कोई तकलीफ़ नहीं होगी लेकिन बिना औरत के घर…।

      सुनकर कौशल्या के भाई ने तनिक भी देरी नहीं की और पहले मुहूर्त में ही बहन का विवाह करके उसे दीनदयाल के साथ विदा कर दिया।रास्ते में दीनदयाल ने पत्नी को अपने घर- परिवार और बच्चों की पसंद-नापसंद की पूरी जानकारी दे दी थी।तभी कौशल्या ने पति से वचन ले लिया था कि हम और संतान को पैदा नहीं करेंगे।अंकित, अंकुर और अर्पिता ही हमारी संतान रहेगी।तब दीनदयाल उनसे बोले थे कि तुम्हें पत्नी रूप में पाकर मैं तो धन्य हो गया।

         दीनदयाल का घर एक ही तल्ले का था लेकिन बहुत खुला-खुला था।उस वक्त उनकी बहन यानि बच्चों की रानी बुआ आईं हुईं थीं।उन्होंने ही अपनी भाभी का स्वागत किया था लेकिन उससे पहले उन्होंने बच्चों के कानों में नई माँ के बारे इतना ज़हर उड़ेल दिया था कि कौशल्या और बच्चों के बीच दूरियाँ बनी रहे और वे अपनी रोटियाँ सेंकती रहीं।

        कौशल्या ने अपने व्यवहार और विचार से पति का मन तो जीत ही लिया,साथ ही कामगारों के दिलों में भी अपनी जगह बना ली थी और उन्हें पूरा विश्वास था कि एक दिन बच्चों के मन में भी अपनी जगह बना लेंगी।पास-पड़ोस के लोग भी उसे कौशल्या जी कहकर पुकारने लगे थें।

     अंकित और अंकुर कॉलेज़ की पढ़ाई के लिए शहर जाना चाहते थें लेकिन अपने बेटों के हरकतें देखते हुए दीनदयाल जी ने मना कर दिया।तब कौशल्या जी ने ही उन्हें समझाया कि समय के साथ चलने में ही समझदारी है।हमें अपने बच्चों पर विश्वास तो करना ही पड़ेगा।तब दोनों ने पहली बार उन्हें ‘नई माँ’ न कहकर ‘थैंक्यू माँ’ कहा था।

        साल भर बाद बेटी अर्पिता ने भी शहर के कॉलेज़ से बीएससी करने की इच्छा ज़ाहिर की,तब भी दीनदयाल ने ‘लड़की जात है,ज़्यादा पढ़कर क्या करेगी’ जैसी अटकलें लगाई थी लेकिन कौशल्या जी तो हार मानने वाली थी नहीं।पति को मना लिया और खुद बेटी के साथ जाकर उसे हाॅस्टल में जगह दिलवाया था।

      बच्चों के शहर चले जाने के बाद उसने पति के काम में दिलचस्पी लेना शुरु कर दिया जिससे दीनदयाल जी को बहुत राहत मिली।उनकी उम्र भी हो रही थी, सोचते थें कि मेरे न रहने पर कौशल्या को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए।  

     समय अपनी रफ़्तार से बढ़ता गया।पढ़ाई खत्म करके दोनों भाईयों ने पिता की मदद से वहीं पर अपना एक कारोबार शुरु किया।पहले तो घाटा हुआ।पैसा डूबते देख दीनदयाल भड़क उठे,बोले, ” चुपचाप वापस आकर मेरे काम में हाथ बँटाओ।” कौशल्या जी फिर अपने बेटों के लिये पति के सामने खड़ी हो गईं।भाई के गहने बेचकर बेटों को पैसे दिये थें उन्होंने।माँ थी ना, अपने बच्चों को तकलीफ़ में कैसे देख सकती।माँ का आशीर्वाद मिला तो उनके कारोबार में तरक्की होने लगी।

       अर्पिता की फ़ाइनल परीक्षा खत्म होते ही दीनदयाल जी ने अपने बैंककर्मी मित्र के सीए बेटे के साथ बेटी का विवाह कर दिया।साल बीतते-बीतते अंकित-अंकुर की भी एक ही घर की दो बेटियों के साथ विवाह कराकर वे अपनी ज़िम्मेदारी से मुक्त हो गये।अर्पिता एक बेटे की माँ बन गई और बहुओं ने भी उन्हें पोते-पोतियों का मुँह दिखा दिया।

     एक दिन दीनदयाल जी पत्नी से बोले कि बेटे-बहू तो बुलाते नहीं, हम ही चलकर उनसे मिल आते हैं।कौशल्या जी तो बहुत खुश हो गईं, तुरन्त चलने की तैयारी करने लगीं।काम निबटाकर पति को दूध दे आईं,  कहा,” पी लेना…बच्चों के लिए ज़रा मिठाई रख लेती हूँ ।” कहकर वे रसोई में चली गईं और वापस आकर देखा तो दीनदयाल जी बिना दूध पिए और चश्मा हटाए ही सो गये थें।सब व्यवस्थित करके वो भी सो गईं।

     सुबह उठकर देखा तो कौशल्या जी चकित रह गई।दीनदयाल जी रात में जिस मुद्रा में थें, अभी भी….।हे भगवान!….उन्होंने उनकी नब्ज़ टटोली तो मुँह से चीख निकल गई।’हमसे ऐसी क्या भूल हो गई जो बिना कुछ कहे ही अपनी आँखें मूँद ली’ कहते हुए कौशल्या जी रोती जा रहीं थीं।बच्चे आये, कुछ दिन साथ रहकर चले गये और फिर वो और उनके पति की याद….।

            करीब छह माह बाद अंकित आया और माँ से बोला कि यहाँ आप अकेली क्या करेंगी।हमारे साथ रहिये।बच्चे आपको बहुत याद करते हैं।पुत्र-मोह के आगे उन्होंने साथ चलने के लिए सहमति दे दी।प्रश्न घर और कामकाज का था,तो अंकित बोला कि आधे घर में किराया लगा देते हैं और खेती के लिए एक-दो आदमी रख देते हैं।फिर मैं और अंकुर तो आते- जाते ही रहेंगे।

        शहर आकर कुछ दिनों तक सब ठीक रहा, फिर वही होने लगा जैसा सब घरों में होता।घर के काम के लिये बाई उनकी मदद करती लेकिन उन्हें सम्मान नहीं मिलता था।पिता के रहते तो किसी ने मुँह पर कभी कुछ नहीं कहा लेकिन अब तो बेटे का क्या..बहू भी बेलगाम थी।बाई उनसे कहती, ” आप उनकी माँ है, ऐसा कैसे बोल देते हैं तो वे हँसकर टाल जाती।

           कौशल्या जी का पोता अंश और पोती वंशिका अब टीनएज़र हो रहें थें।उस उम्र में परिवर्तन होना और कुछ नया करने की इच्छा होना तो स्वाभाविक है।उन्होंने देखा कि अंश छिपकर सिगरेट पीता था और वंशिका भी देर रात तक घर वापस आती।वे कुछ पूछने और समझाने का प्रयास करती तो दोनों ही उन्हें झिड़क देते।

         एक दिन वे शाम की कीर्तन करके मंदिर से वापस आ रहीं थीं तो उनकी नज़र वंशिका पर पड़ी जो एक लड़के के साथ जा रही थी।उन्हें कुछ ठीक नहीं लगा तो उनके पीछे जाने लगी।दोनों अपनी मस्ती में थें।तभी लड़का वंशिका के साथ कुछ गलत व्यवहार करने लगा।वंशिका ने मना किया तो वह जबरदस्ती करने लगा।वंशिका उसके आगे कमज़ोर पड़ने लगी तो उनसे रहा नहीं गया।उन्होंने अपनी साड़ी का आँचल अपनी कमर में खोंसा और उस लड़के पर टूट पड़ी।वह लड़का तो भौंचक रह गया।पिटते हुए पूछा,” आखिर आप हैं कौन?”

” नासपिटे, मैं वंशिका की दादी हूँ।” कहते हुए उन्होंने पोती को अपनी बाँहों में समेट लिया जैसे एक चिड़िया अपने बच्चे को अपने पंखों के अंदर समेट लेती है।

     दादी का सहारा मिलते ही वंशिका फ़ूट-फ़ूटकर रोने लगी।कौशल्या जी उसे चुप कराती हुई बोलीं कि अबसे बेटा, संभलकर रहना और घर में किसी को कुछ मत कहना।मैं हूँ ना तेरे साथ।

  ” हाँ दादी ” उसने अपनी दादी को कसकर पकड़ लिया था।

      यही सब देखकर कौशल्या जी ने दोनों बेटों से बस इतना ही कहा था कि बच्चे अब बड़े हो रहें तो अपने काम से थोड़ा समय निकालकर बच्चों पर भी ध्यान दो तो अंकित ने उन्हें ‘क्या अधिकार है? सौतेली’ तक कह दिया।

  वे तैश में आ गईं और बोलीं, ” तुम्हारी माँ होने का अधिकार तो मुझे उसी दिन मिल गया था जब तुम्हारे पिता ने मेरी माँग में सिंदूर डाला था।उनके न रहने पर भी मैं तुम्हारी माँ ही रहूँगी और गलती करने पर तुम्हें डाँटने का अधिकार मुझे हमेशा रहेगा।रही बात सौतेली की तो सुनो…अपने कन्हैया को डाँटने के लिये यशोधरा ने किसी से अधिकार नहीं माँगा था और न ही भरत को प्यार करने के लिये कौशल्या ने कैकयी से पूछा था।” कहते-कहते उनकी साँस तेज चलने लगी।बोली, ” घर में क्या होता है ,तुम लोगों को कुछ पता भी है? हमारी बच्ची….।” 

” दादी, आप बैठिये।” वंशिका ने अपनी दादी को सोफ़े पर बिठाकर पानी पिलाया और अंकित से बोली,” डैडी, कल शाम को मैं…।” उसने पूरी बात बताकर कहा कि कल अगर दादी समय पर न आती तो…।” वह रोने लगी।

     बेटे हतप्रभ थें और बहुएँ शर्मिंदा।उन्होंने कौशल्या जी के पैर पकड़ लिये और अपने व्यवहार के लिये माफ़ी माँगी।

      अगली सुबह दोनों बेटे काम पर जाने की तैयारी करने लगे, बहुएँ पति और बच्चों के लिए नाश्ता बनाने लगी और बच्चे…।वे तो दादी को घेरकर पूछने लगे,” दादी, आपने फ़ाइटिंग कैसे सीखी, हमें भी बताइये।” तभी अंकुर का छोटा बेटा श्रेयस दादी की गोद में बैठते हुए अपनी तोतली आवाज़ बोला,” दादी, मैं तो ना, अपनी गन से छब को उला दूँगा।(सब को उड़ा दूँगा) फिर तो घर में ठहाके गूँजने लगे। तभी रानी बुआ आईं, बहुओं को किचन में देखकर कहने लगीं,” आखिर है तो तुम्हारी सौते…।” उनकी बात पूरी हो पाती,उससे पहले ही अंकुर ने उन्हें ट्रेन का टिकट थमा दिया और बोला, ” बुआ, आईये, आपको स्टेशन छोड़ आता हूँ।” रानी बुआ ने अपनी दाल न गलते देख पतली गली से निकल जाना ही उचित समझा।  

                              विभा गुप्ता 

  #अधिकार              स्वरचित 

       किसी ने सही कहा है कि एक स्त्री ही है जिसके पास सभी अधिकार ईश्वर-प्रदत्त होते हैं।फिर चाहे वह किसी पुरुष की पत्नी हो अथवा बेटे की माँ,या फिर पोते- पोतियों की दादी।अपनों की रक्षा करने के लिये वे सदैव तत्पर रहती हैं जैसे की हमारी कौशल्या जी थीं।

V M 

2 thoughts on “तुम्हारी माँ हूँ – विभा गुप्ता : Moral stories in hindi”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!