मेरी भी कुछ ख्वाहिशें – डाॅ संजु झा : Heart touching story 

अंजु की जिन्दगी वैसे तो काफी व्यस्त रही है,परन्तु उम्र के पचासवें पड़ाव पर आकर एक बार फिर  से अपने अतीत का मंथन करने को मजबूर हो गई है।अब तक की जिन्दगी से उसने क्या खोया और क्या पाया,इसी का हिसाब लगाने बैठ गई।

उसके मन में सवालों की जैसे झड़ी लग गई है वह सोचती है कि समाज के निर्माण में पुरुष और नारी का बराबर का योगदान है।जिन्दगी रूपी गाड़ी  दोनों पहियों के संतुलन से ही चलती है,फिर पुरुष और नारी में इतना भेद क्यों है?यह भी बात सच है कि हमारा समाज पुरुष प्रधान है,इसके कारण पुरुषों को सदा से  सभी मामलों में वरीयता प्राप्त है।

उसी समय उसके पति नीरज की आवाज से उसकी सोच पर विराम लग जाता है।नीरज -“अंजु !मैं दोस्त  के यहाँ जा रहा हूँ।आने में देरी होगी।”

अंजु चाहकर भी नहीं कह पाती है कि छुट्टी दिन मेरी भी कुछ ख्वाहिशें रहतीं हैं।दिल की बात को जबान पर लाने में वर्षों लग गए। पुरुषों में धीरे -धीरे बदलाव आने लगा है,परन्तु आज की नारियां बहुत तेजी से बदल रहीं हैं।पुरुष उनके बदले हुए रुप से चमत्कृत हैं।

अकेलेपन में एक बार फिर से अंजु को पुरानी यादों ने घेर लिया।अंजु  भी अपनी बहू बेटी और बेटा दामाद के बदलते रुप से आश्चर्यचकित है।जब उसकी बेटी अक्षरा ने अकेले विदेश जाकर  नौकरी करने का फैसला किया तो वह सहम -सी गई, परन्तु दामाद ने उसे प्रोत्साहन देते हुए कहा-” अक्षरा!तुम पहले जाओ,मैं बाद में आने की कोशिश करता हूँ।”

बिना भावुकता के बंधन में बँधे अक्षरा विदेश चली गई।  कुछ दिनों बाद  दामाद भी वहाँ चले गए। उसे दामाद के रुप में बदलते हुए पुरुष को देखकर अच्छा लगा। अंजु खुद इतनी पढ़ी-लिखी होने पर भी अन्य शहर में सरकारी  नौकरी  लगने पर भी नहीं जा पाई।

पति ,पिता और ससुर सभी ने एक स्वर में कहा कि अकेली दूसरे शहर में नौकरी नहीं करेगी।उसमें भी विरोध करने का साहस कहाँ था? वह तो इतने में ही खुश थी कि उसे दादाजी और पापा जैसे संकुचित विचारोंवाले पति नहीं मिले।

अनायास ही अंजु चार पीढ़ी के पुरुषों के व्यवहार का तुलना करने लगी।उसके दादाजी किसान थे,तथा कम पढ़े-लिखे थे।दादाजी बेटियों और पोतियों को पढ़ाने के बिल्कुल पक्षधर नहीं थे,जिसका परिणाम यह हुआ  कि तीनों बुआ बस चिट्ठी-पत्री भर पढ़ पाईं।

उन्होंने तीनों बेटियों की शादी पन्द्रह वर्ष के अन्दर ही कर दी।दादी की भावनाओं का उनके लिए कोई महत्त्व नहीं था।वे बस बच्चा पैदा करने और काम करने की मशीन भर थीं।

धीरे-धीरे दादाजी का  का युग समाप्त हुआ।इस युग के पुरुष खुद को ही सर्वेसर्वा समझते थे।उनके लिए  नारी का अस्तित्व नामभर को था।दादाजी के बाद पापा का युग आरंभ हुआ। इस युग के पुरुष  पढ़ने -लिखने लगें।

इस कारण उनकी सोच में थोड़ा-सा बदलाव आया।जहाँ उसके दादाजी लगातार  दो पोतियों के जन्म पर दुखी होकर  दो दिन तक भूखे रहें,वहीं उसके पापा ने बेटियों के जन्म पर कोई दुख-दर्द नहीं व्यक्त किया,भले ही अंदर से जरुर दुखी थे।

बाद में उसके भाईयों के जन्म पर काफी खुश हुए  थे।उसके पापा प्रत्यक्ष रुप से तो बेटा-बेटी में भेद नहीं करते थे,परन्तु परोक्ष रूप से बेटा-बेटी में भेद स्पष्ट दिखता था।जहाँ वे दोनों बेटों की शिक्षा के प्रति सजग थे,वहीं तीनों बेटियों की शिक्षा के प्रति उदासीन।

उन्होंने इंटर पास करते ही तीनों बहनों की शादी कर दी।ये अलग बात है कि अंजु तीनों बहनों ने शादी के बाद ऊँची शिक्षा हासिल  की।

उसके दादाजी ने अपनी बेटियों को बस अक्षर ज्ञान करवाया,तो उसके पापा ने अपनी बेटियों को इंटर तक की शिक्षा दिलवाई। गाँव में दादाजी लडकियों को कहीं बाहर नहीं जाने देते थे,तो शहर में उसके पापा तीनों बेटियों को स्कूल  -काॅलेज के सिवा कहीं जाने नहीं देते थे।

अंजु बहनों को पापा के कठोर अनुशासन  में रहने की आदत हो गई  थी।उनमें कोई  विद्रोह का स्वर नहीं था। उन्हें लगता था कि सभी पापा इतने ही कठोर और अनुशासनप्रिय होते हैं।माँ के लिए  भी पापा की इच्छा ही सर्वोपरि थी।हाँ!पापा अपनी इच्छा होने पर कभी-कभार उन्हें घुमाने या सिनेमा दिखाने ले जाते थे।धीरे-धीरे ही सही 

 पुरुष मानसिकता बदल रही थी।

वक्त  थोड़ा और आगे सरका। पुरुष  का रुप थोड़ा और बदला।अंजु तीनों बहनों की शादी हो गई।उन्हें पति रुपी पुरुष से कुछ छूट मिली,जैसे अपनी शिक्षा जारी रखना,अपनी इच्छाओं का इजहार करना।

परन्तु यहाँ भी पुरुषोचित अहं बरकरार रहा।घर के कामों तथा बच्चों के पालन-पोषण में उनकी कोई भूमिका नहीं थी।बस पैसे कमाना भर उनकी जिम्मेदारी थी।अंजु को इस युग के पुरुष की एक बात काफी अच्छी लगी।

भले ही वे अपनी पत्नियों से दोस्ताना व्यवहार  न रखते थे,परन्तु उनका बेटियों के साथ काफी दोस्ताना व्यवहार हो चला था।जब कभी वह अपनी बेटी को अपने पापा के साथ सुख-दुख बाँटते और घुल-मिलकर बातें करती देखती, तो उसे  पुरुष  के इस बदले रुप से काफी खुशी होती और थोड़ी-सी जलन भी।अंजु तीनों बहनें तो पापा के सामने एक शब्द बोलने का साहस नहीं कर पातीं थी,सुख-दुख बाँटना तो दूर की कौड़ी लाने के समान था।

वक्त थोड़ा और आगे सरका।पुरुष  मानसिकता थोड़ी और बदली।उसका बेटा अक्षय बड़ा होकर नौकरी करने लगा।बहू भी नौकरी करने लगी।

बेटे का पत्नी के साथ दोस्ताना व्यवहार, बच्चों के कामों में रुचि देखकर उसे महसूस हुआ कि भले ही आज की नारी तेजी से बदल रही है,परन्तु पुरुष भी खुद को बदलने की कोशिश कर रहे हैं।

अपनी पूर्व भूमिका को लेकर पुरुष भी दोषी नहीं हैं।पूर्व में पुरुष को देवता के पद पर पदस्थापित कर दिया गया था और नारी  उनकी दासी बना दी गई थी।पुरुष को रसोई में झाँकने की इजाजत नहीं थी।पुरुष को रोने पर कायर समझा जाता था।

गल्ती पुरुषों की नहीं है,गल्ती पुरुष प्रधान समाज की है,जिसने  पुरुष को ढ़ेर सारी वर्जनओं में जकड़ रखा था।वे अपना स्वाभाविक रुप भूल चुके थे।पुरुषोचित दंभ और अहंकार उनपर हावी हो चुका था।

आधुनिक समय में नारियों ने पुरुष  को एहसास दिलाया कि वे भी नारी के समान ही हाड़-माँस के मनुष्य हैं।नारियों की तरह घर और बाहर दोनों जगह की जिम्मेदारी उनकी भी है।कुछ पुरुष तो बदलते माहौल में खुद को ढ़ालने की कोशिश कर रहें हैं,कुछ पुरुषों  को समझ में आ रहा है कि देवत्व के आसन पर विराजमान रहने से अब काम नहीं चलेगा।यथार्थ की  जमीं पर उतरकर नारियों को बराबरी की भागीदारी देनी ही होगी।

उसी समय अंजु के पति घर में प्रवेश करते हुए कहते हैं -” अंजु!आज छुट्टी दिन  रात में तुम्हें सिनेमा दिखाकर  लाता हूँ।”

अंजु मन-ही-मन मुस्कराते हुए  सोचती है कि उसके पति भी देर से ही,परन्तु अवश्य बदल रहें हैं।

समाप्त।

लेखिका-डाॅ संजु झा(स्वरचित)

#पुरुष 

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