मन की सिलवटें- अंजू निगम: Moral stories in hindi

Moral stories in hindi : ” प्रतापगढ़ वाले मामा का फोन आया था। उन्होंने नाके चौराहे के पास “जुगलकिशोर धर्मशाला” बुक करवा दी है।कल ही सबको वहाँ समान सहित पहुँचने को बोला है। अम्मा ने कहलवाया है कि तुम कब चलोगी वहाँ? ” गौरी ने पूरा ब्यौरा दिया।
” मैं तो कल नहीं जा पाँऊगी। परसों आखिरी पेपर है। तुम अम्मा-बाऊजी के साथ चली जाना। मैं पेपर खत्म होने के बाद, परसों ही पहुँच पाँऊगी।” मैंने अपनी मजबूरी रखी।
“तुम ही जाकर अम्मा से कह दो। तुम्हारे बिना मैं भी नहीं जाँऊगी। पता है न कानपुर वाली मौसी कैसे खोद-खोद कर पुछती है हर बात। अम्मा तो इन्हीं में रम जायेगी। मैं अकेले क्या करूँगी?”
“क्यों, मौसी के साथ निम्मी नहीं आ रही है क्या?”
“वो भी परसों आयेगी। तुमही अम्मा से कह दो न कि गौरी मेरे साथ आ जायेगी।”
“ऊँह,अम्मा तुझे छोड़ेगी अकेली। उस दिन के बाद से…।” बाकी के शब्द मैं मुँह में ही दबा गई।
गौरी ने सुना मगर शांत रही।”ठीक है, मैं कल अम्मा के साथ ही चली जाँऊगी।”
मैंने गौरी के दोनों कंधे पकड़ अपने पास बिठा लिया। ” कल तो घर पर ही रहूँगी। परसों मेरे साथ ही कॉलेज चल लेना। कैंटीन में बैठ जाना। अपना थोड़ा काम ले चलना।” मैंने गौरी को थोड़ा सहज किया। आजकल मेरी ये बहन बहुत बड़ी हो गई है। मेरी हर बात चुपचाप मान लेती है, मन मार कर भी।
“शादी में पहनने के लिये कान-गले का कोई बढ़िया सेट रख लेना।”
अब बनाव-शृगांर से गौरी कोसों दूर रहती। जब कभी अम्मा जोर से घुड़क देती तब कुछ औना-पौना गले-कान में टाँग लेती।
“कैसी लड़की जन्मी है? सजने-सवंरने का कोई शौक ही नहीं।” जब गौरी के साज-शृगांर से बात उतर कर अम्मा की कोख तक आ ठहरती, तब अम्मा की सारी तावदारियाँ, गौरी पर पाँच-छः कड़वी, चुभती हुई बातों से पूरी होती।
” जाने कैसी लड़की है ? बस, किताबें दें दो या पकवान बना-बना कर ठुँसाते रहो। जिस घर जायेगी, मेरी नाक कटायेंगी।” अम्मा का फिर घंटों चलता। इससे दादी के कलेजे को मन भर ठंडक पहुँचती।
अब गौरी भी ढीठ बनी सारी बातें एक कान से सुनती, दूजे से निकाल देती।
कभी मैं भी टोक देती।”क्यों री, एक छोटी सी बाली डाल लेने में तुझे कितना भार आ जाता है। रोज किच-किच सुनने की तेरी आदत हो गई है।”
मेरी बात सुन कर गौरी हौले से मुस्कुरा देती। उसकी एक मुस्कान मेरा सारा गुस्सा कपूर की तरह उड़ा देती। बहुत सुंदर मुस्कान थी मेरी गौरी की। मुस्काती तो दोनों गालों पर गठ्ठे पड़ जाते। खूब गोरा रंग, कुदरती तराशी हुई भौंहे, घने,घुंघराले बाल और तिस पर कमल से नैन।
” मेरे लिये नहीं बने है ये बनाव-शृंगार। तेरे पे खूब जँचते है। ऐसे भर- भरकर काजल नहीं डाला जाता रे मुझसे।” एक दर्द की लहर गौरी के चेहरे को छु जाती।
” शादी में ऐसी बावली सी चलोगी क्या? सब क्या कहेंगे, इतने बड़े अफसर की बेटी ,पहनने -ओढ़ने का कोई शऊर नहीं।” मैं हुलस कर बोल उठती।
” तु कर देना मेरा मेकअप- शेकअप।” इस बात को यहीं समाप्त कर गौरी कमरे से निकल जाती।
अगले दिन ,तीन-चार जोड़े लाकर गौरी ने मेरे बिस्तर पर फैला दिये।
” देख लें, अच्छे वाले यही है।”
उनमें एक बैंगनी रंग का चंदेरी सूट मैंने अलग किया। छोटी-छोटी सुनहरी बूटियों वाला ये सूट गौरी पर बहुत जंचेगा। अम्मा का सच्चे मोती वाला सेट बिल्कुल मैच कर जायेगा। गौरी के नाम पर तो अम्मा फटाफट सेट निकाल कर दें देगी। मुझ लापरवाह को तो सौ ताकीद पकड़ा देती है। हो भी क्यों न! ननकू की बारात में अम्मा की दस तोले की मटरमाला बस खोते-खोते ही बची थी।
खैर, गौरी बैंगनी रंग देख उखड़ गई।
“तुझे मालूम है न, मुझे हल्के रंग पंसद…।”
“बस कर, सारे हल्के रंग के सूट भर रखे है। अभी से कैसा संन्यासी जैसा वेष धरे रहती है।” मैंने अनजाने में फिर गौरी का दबा जख्म कुरेद दिया था। बहुत दिनों बाद गौरी की बड़ी-बड़ी आँखों में, महीनों से दबा, पानी उतर आया था। मैं तुंरत खाट से उठ उसके पास चली आई।
” तुझे जो पंसद हो ,वही पहन लें। तुझ पर तो सारे रंग फबते है।” मेरे लिए अभी बातों को घुमाना आसान नहीं था। गौरी, खिड़की के पास जाकर ठहर गई। सामने ही तो था अतुल का घर। लगा जैसे अभी सामने घर से कोई आवाज देता सधिकार यहाँ तक आ धमकेगा।
उन रेशमी दिनों ने बहुत सपने संजो दिये थे हम सबकी आँखों में। सामने पड़े खाली घर में जब अतुल का परिवार आ बसा था तब क्या मालूम था कि समय अपने किस-किस रूप में हमें बांधता चला जायेगा।
खूब सामाजिकता निभा लेने वाली अम्मा ने ही सबसे पहले नौकर के हाथ पानी, चाय-बिस्कुट भिजवा कर गौरी को भी साथ कर दिया था।
” जा, पूछ आना, किसी और चीज़ की जरूरत हो तो बता दें। रात का खाना यहीं खाने को भी याद से बोल आना।”
गौरी सिर हिलाती अक्षरतः वही बोल आई थी जो अम्मा ने कहा था। बाद में मुझे लगा कि गौरी के इसी भोलेपन में अतुल बंध गये होगें।
उस रात तो लगा ही नहीं कि दोनों परिवार पहली बार मिल रहे है। शुरु में तो हमारे घर का वैभव, उन्हें संकोच से भर गया था पर हम सबकी सरलता ने तकल्लुफी की दीवार को बहुत झीना कर दिया था।
उन दिनों दादी, ताया के पास ही रहती थी। कभी-कभार ही हमारे घर टिकती। अम्मा दो बेटियों को जन्म देनें की अपराधिनी थी जिसकी सजा आजीवन हमें और अम्मा को मिलती रही। गौरी का रूप उनकी नफरत को जरा कम न कर पाया। वे होती तो पहले ही सामने बसे, कुमार परिवार का कुल-गोत्र निकलवा लेती।
उस दिन गौरी का जन्मदिन था। अम्मा जन्मदिन में सवेरे सूजी का हलवा जरूर बनाती।
” गौरी, जल्दी से नहा-धोकर पूजा कर लें। पापा के दफ्तर जाने से पहले तेरा टीका कर दूँ। नीना के साथ जाकर सामने भी हलवा दें आ। शाम के खाने के लिए भी बोल आना।” अम्मा ने रसोई से ही आवाज दी।
“शाम को क्या बनाओगी अम्मा? “
“तु बता, क्या खायेगी?” अम्मा की ममता उमड़ आई।
“आप तो सब अच्छा ही बनाती है। बूँदी का खट्टा-मीठा रायता मैं बना दूँगी।”
“तुझे तो बूँदीं का रायता पंसद नहीं। लड़की, तेरा स्वाद भी बदलता रहता है।”
अम्मा ने गौर नहीं किया पर गौरी के गालों पर फैली लाली बहुत कुछ कह तो रही थी।
” क्यों भई, आजकल गाने बहुत गुनगुनाये जा रहे है? कब से चल रहा है ये सब ? अब हमसे ही पर्दा !” आज मेरा मन किया कि गौरी की जम कर खिंचाई करनी तो बनती है। मेरी जगह कोई और गौरी का हमराज बनने लगा है और मुझे खबर नहीं।
“क्या है, कुछ भी बोलती हो।”गौरी मुझसे आँखें नहीं मिला पा रही थी।
“सच्ची! तो ये बूँदीं का रायता कब से खाने का शौक हो गया।”
“अब हो गया। स्वाद बदलता रहता है। आज तुझे देर नहीं हो रही कॉलेज जाने में।” अम्मा की बात दोहरा कर वह बात को मोड़ना चाह रही थी। मगर ये राज-वाज का गहरा होते जाना मुझे पंसद नहीं था। सो, बात तो अभी होनी थी।
मैं ढीठ बनी खड़ी रही।
“अब क्या है? जा न यहाँ से।” गौरी खीझ रही थी।
“तो बता दो न।”
“अरे बाबा ! कुछ नहीं। मुँह से निकल गया मेरी माँ।”
” तो फिर अपने गालों से कहो न कि वे तुम्हारी चुगली न करें।” मैंने तिरछी नजरों से गौरी को देखा।
” जब कुछ है ही नहीं।”
“ठीक,मैं अतुल से पुछ आती हूँ फिर।” कहती हुई मैं बाहर जाने लगी।
“कैसा गजब करती है बावली ! वे क्या सोचेंगे?”
“ओहो,.वे। गजब। बात यहाँ तक पहुँच गई। मुझे खबर तक नहीं मगर ये प्रेम-कहानी शुरु कहाँ से हुई?”
” उनको कुछ नोट्स चाहिए थे। उस दिन मैं वही देने गई थी। आंटी पूजा कर रही थी। उन्होंने अतुल को ही नोट्स देने को कह दिया तो मैं भी उसके कमरे में नोट्स रखने चली गई। जब नोट्स रख कर जाने लगी तो अतुल सामने आकर खड़े हो गये।
“तुमसे कुछ बात करनी है, अभी।”
” वो…वो… नोट्स देने आई थी।” जब मैंने कहा तो अतुल ने हंसते हुये कहा ” नोट्स देने वाली इस घर में आकर रहने लगे तो कैसा रहे।”
“मैं तो जान छुड़ा कर भाग आई फिर।”
“ओहो ! मेरी भोली बहन ने कहा और वो मान गया। तुमसे जवाब नहीं माँगा।” मैं भी पूरी बात जानने के लिये अढ़ी थी।
“परसों पुछ रहे थे कि मुझे कब जवाब मिलेगा ? मैंने भी कह दिया पहले पढ़ाई खत्म कीजिये, फिर सोचते है।” गौरी ने होठों पर चौड़ी मुस्कान सजा कर कहा।
ये सब बता कर गौरी तो अपने कमरे में चली गई मगर मैं गंभीर हो गई थी। मैं जो देख पा रही थी , वह गौरी या तो देखना नहीं चाह रही थी या इससे अनजान थी।
दादी की कट्टरता क्या हमसे छुपी थी? दोस्ती और रिश्तेदारी करने में फर्क था। कुल-गोत्र के मिले बिना दादी,बात को आगे नहीं जाने देंगी, ये सोलह आने पक्का था। पिछले साल ही तो दादी की जिद के चलते ताया की लड़की की शादी टूट गई थी। हाथ में आया इतना बढ़िया लड़का कुल-गोत्र की भेंट चढ़ गया था। लल्ली अब तक कुंवारी बैठी है। फिर गौरी तो दादी की आँखों में किरकिरी बनी चुभती है।
मुझे लगा , मुझे अतुल से एक बार बात कर लेनी चाहिए।मैं गौरी को लल्ली बने नहीं देखना चाहती थी।
बरामदे में ही आंटी मिल गई।
” आंटी, अतुल है घर में?” नमस्ते करने के बाद मैं पूछ बैठी।
” अतुल नहीं है नीना मगर जिस बात को करने के लिये तुम आई हो ,वही बात मैं भी करना चाहती हूँ।”
“मतलब”!
मतलब तुम जानती हो नीना। क्या गौरी इस घर की बहु बन कर आ पायेंगी? तुम्हारी दादी ये कभी नहीं होने देंगी।”
” मैं अम्मा-बाऊजी से बात करूँगी। मुझे यकीन है कि वे मान जायेंगे। जमाना बदल गया है।” मैं भी अपनी बात पर कायम थी।
” अम्मा-बाऊजी से मेरी बात हो चुकी है।” आंटी ने बेहद ठंडे लहजे में कहा तो मेरा बेतरह चौंक जाना लाजमी था।
“आपकी बात हो चुकी है? कब? अम्मा ने कुछ बताया नहीं। अतुल को मालूम है सब कुछ?” मैं हकबकायी दनादन सवाल करती रही।
” हाँ, वे दोनों आये थे मिलने। मैंने ही बात छेड़ी थी। बात भी इसलिए उठायी कि मुझे लगा शायद जमाना बदल गया है मगर तुम्हारे बाऊजी ने बात पूरी होने से पहले ही इस रिश्ते से इंकार कर दिया। तब लगा कि वाकई गहरी दोस्ती और रिश्तेदारी कर लेने में अभी भी फर्क है। मैंने अतुल को समझा दिया है। उसने यही दिखाया कि वो समझ चुका है सब मगर दर्द बहुत गहरा है। वक्त लेगा भरने में। गौरी इस घर में बहु बन कर आती तो मुझे बहुत खुशी मिलती। तुम समझाना उसे, अतुल की तरह वह भी समझ जायेगी। हम शायद अगले महीने दिल्ली शिफ्ट हो जाये। यहाँ रहेंगे तो…।”
मेरा काम बहुत कठिन हो गया था। अतुल चला गया ।सामने का घर फिर खाली हो गया था मगर इस बार किसी और के मन को भी खाली करके। गौरी ने अति तनाव में नींद को हमेशा के लिये गले लगा लेना चाहा मगर हम खुशकिस्मत थे कि गौरी आज हमारे साथ थी।
मुझे लगा सब सामान्य हो जायेगा। ये मेरी सोच थी क्योंकि जख्म मुझे नहीं लगा था इसलिए उसकी टीस का अहसास मुझे नहीं हो सकता था। मुझे लगता रहा कि दोनों अपने-अपने हिस्से का आधा- आधा दर्द पी रहे है।
मेरे ही कहने पर आज गौरी ने बैंगनी सूट पहना है, छोटी-छोटी सुनहरी बुटियों वाला। सच्चे मोतियों की माला पहन वह परी लग रही है। आज उसके चेहरे पर वही सुंदर सी, गालों में दो गठ्ठे पड़ जाने वाली मुस्कान सजी है।
कमरे में वापस आने पर गौरी ने बैग से निकाल कर एक कार्ड मेरे हाथ में थमा दिया।
अतुल
संग
साक्षी
“ये तुझे कहाँ मिला ? अतुल ने…!”
“हाँ कह दी। अम्मा की हिसाब-किताब की डायरी में रखा था। देखा न नीना, जिंदगी में हिसाब-किताब ही काम आता है।”
अंजू निगम
नई दिल्ली
( स्वरचित)

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