“कर्तव्य” – ऋतु अग्रवाल

 “माँ, सुलेखा, देखो आज आप सबके लिए एक सरप्राइज है।” मयंक एक हाथ में मिठाई का डिब्बा और दूसरे हाथ में ब्रीफकेस लिए खड़ा था।

       पर वहाँ उसकी बात सुनने वाला कोई ना था। हाथ का सामान टेबल पर रख मयंक माँ के कमरे में गया। माँ आंखें बंद किए लेटी थी।

      “माँ! क्या हुआ? आप इस समय…… आप तो कभी शाम को नहीं सोती।” मयंक ने माँ के पास बैठते हुए कहा।

       “और क्या करूँ? अब तो मुझे चुपचाप अपने कमरे में ही रहना है। फिर चाहे मैं सोऊँ या रोऊँ, किसी को क्या फर्क पड़ता है।” कहकर मंजू जी रोने लगी।

      “अच्छा, आप चुप हो जाओ। मैं आज ही सुलेखा से बात करता हूँ।  यह रोज-रोज का लड़ाई झगड़ा यहाँ नहीं चलेगा।” कहकर मयंक अपने कमरे में चला गया।

      “सुलेखा! बच्चे कहाँ हैं? आज उनकी मनपसंद मिठाई लाया हूँ।” मयंक ने पलंग पर बैठते हुए कहा। पर सुलेखा चुपचाप कपड़ों को इस्त्री करने में लगी रही।         

        मयंक अनमना सा हो गया। उसकी खुशी में खुश होने वाला कोई नहीं। वह सब के लिए सारा दिन मरता खपता है पर जब शाम को वह घर लौटकर आता है तो कभी माँ को मनाना पड़ता तो कभी बीवी की जली कटी बातें सुननी पड़ती।

       मयंक बिना कुछ खाए पिए घर से बाहर निकल गया। कहाँ तो वह सबके साथ बैठकर खुशखबरी की मिठाई खाना चाहता था, कहाँ टपरी पर बैठकर चाय पीनी पड़ रही है।

          रात को थक-हार कर नौ बजे मयंक घर लौटा। घर लौटने का मन तो नहीं था पर मरता क्या न करता। घर तो वापस आना ही पड़ता। भला रात कहाँ गुजारता।

         घर में कदम रखते ही माँ का गुस्से भरा स्वर सुनने को मिला,” तेरी ही वजह से मेरा बेटा देर रात तक घर से बाहर रहने लगा है वरना पहले तो ऑफिस से घर और घर से ऑफिस। और कहीं जाने का नाम तक नहीं लेता था और आज नौ बजे तक भी घर से बाहर है।”



         “हाँ! हाँ! मैं ही लड़ती हूँ। आप तो दूध की धुली हैं। सारा दिन मैं काम करती हूँ  और आप बेवजह के ताने मारने और कलह करने का कोई मौका नहीं छोड़ती।

मैं तो परेशान हो चुकी हूँ आपसे।” सुलेखा चिल्लाई।

       माँ और सुलेखा के झगड़े के कारण बच्चे सहमे से दरवाजे के पास खड़े थे। मयंक का सिर दर्द से फटा जा रहा था।

       “भड़ाक” की आवाज के साथ दरवाजा बंद कर मयंक चीखा,” यह घर है या मछली बाजार। जब देखो चीख- चिल्लाहट, लड़ाई झगड़ा। कोई दो घड़ी सुकून से यहाँ बैठ नहीं सकता। सुबह शाम क्लेश ही क्लेश।यही हाल रहा तो मैं घर आना ही बंद कर दूँगा और ये बच्चे भी कहीं भाग जाएँगे।फिर आप दोनों लड़ती रहना। पता है, आज मैं कितना खुश था? जिस प्रमोशन के लिए मैं दिन-रात एक कर रहा था, ओवरटाइम कर रहा था, आज मुझे रिवार्ड के तौर पर वह प्रमोशन मिला। मैं सबकी पसंदीदा मिठाई लाया। सोचा, खाना सब साथ बाहर खाएँगे। पर नहीं,आप लोगों को कुछ नहीं दिखता। मैं इस घर के लिए क्या नहीं करता? पर यहाँ तो सुकून नाम की चीज ही नहीं है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं ऐसे परिवार के लिए क्यों मर खप रहा हूँ?”

        “यह तो तेरा कर्तव्य……।” माँ के शब्द मुँह में ही रह गए।

     “हाँ, सारे कर्तव्य मेरे ही हैं। अपने कर्तव्यों से मैं कब पीछे हटा?  पैसा कमाने से लेकर आप की बीमारी हारी में आपको डॉक्टर के यहाँ ले जाने में, घर के छोटे-मोटे कामों में हाथ बँटाने में, बच्चों को पढ़ाने में, सब की फरमाइश पूरी करने में, नाते रिश्तेदारों के प्रति जिम्मेदारी उठाने में,सुलेखा के शौक पूरे करने में मैंने कहाँ कोताही बरती माँ? तुम बताओ, सुलेखा क्या मैं अपने कर्त्तव्य पूरा नहीं करता? पर क्या आप लोगों का मेरे प्रति भी कुछ कर्तव्य है या नहीं? मैं थका हारा घर आऊँ तो क्या आप लोग मुझे हँसकर एक कप चाय पिला नहीं सकते? मेरा दिन भर का हाल चाल पूछ ले इतना सा भी कर्तव्य नहीं है आप लोगों का? आप लोगों पर घर की जिम्मेदारी है पर मुझ पर तो घर और बाहर दोनों की जिम्मेदारी है। पैसा कमाकर घर चलाना मेरा कर्तव्य है पर क्या इस घर में शांति और सुकून बनाए रखना आप दोनों का कर्तव्य नहीं है?” मयंक की साँस फूलने लगी। निढाल होकर वह कुर्सी पर बैठ गया।

       माँ और सुलेखा के कानों में कर्तव्य शब्द गूँज रहा था। 

 

मौलिक सृजन 

ऋतु अग्रवाल

मेरठ

 

1 thought on ““कर्तव्य” – ऋतु अग्रवाल”

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!