सपनो की तहरीर – भगवती सक्सेना गौड़

सुबह जैसे ही रवीना की नींद खुली, आज का सपना याद आ गया। वैसे कई बार परेशान रहती थी, सपने में कुछ दखा था, पर याद ही नह आता था।

तो आज का सपना उसका बहुत स्वादिष्ट सा था, जो तीस वर्ष पहले की यादों को जीवंत करने पर आमादा था।

उसने देखा था, सामने थाली में उंसकी रंजना भाभी कई व्यंजनों को सजाए उसके पास लेकर खड़ी थी, वो रवीना की वैसे तो हमउम्र पड़ोसन ही थी, पर पांच वर्षों से रोज मिलने के कारण आत्मीयता से परिपूर्ण था। कभी छत पर कपड़े फैलाते हुए, कभी पौधों में पानी डालते हुए दोनो घरों की बड़ी सी छत के एक किनारे खड़े दुनिया भर की चर्चा कर लेती थी।

तो उस थाली में वो फूटा की पूरी(चने की दाल का परांठा) और बखीर(गुड़ वाली खीर), अदरक,लहसुन, मिर्ची का कुचला और कोई तरी वाली सब्ज़ी लेकर आयी थी। असल मे अपनी सासु जी (राजरानी) की सबसे प्रिय बहू थी। हर त्योहार में राजरानी जी बड़े शौक से यही सब बनवाती और पूरा परिवार खुशबू बिखेरती डिशेस का आनंद लेता, असल में उसमे थोड़ा सा प्यार का तड़का भी महसूस होता था, सामने बैठ कर, सबसे आग्रह करके खिलाया जाता।

सपने में ये थाली देखकर रवीना पूर्ण रूप से राजरानी के ख्यालों में डूब गयी। पहली बार जब उन्हें देखा, सीधे पल्ले की सुंदर सी कलफ लगी साड़ी में, बड़ी सी बिंदी और मांग भर सिंदूर के साथ, बड़ी प्यारी लगी। जबकि रवीना मुम्बई से आई थी, जहां दुनिया उस समय तक ही बदल चुकी थी।

राजरानी जी उस पर भी अपनी सगी बहू जैसा ही प्यार लुटाती थी, आज जब उनकी सूरत आंखों में तैरने लगी, तब ध्यान आया, वो तो पंद्रह साल पहले ही स्वर्ग सिधार गयी। शायद पितर पक्ष चल रहे, इसलिए उनकी याद आ रही।

पर पता नही क्यों, रवीना सोच में पड़ गयी, कुछ अच्छे लोगो को ही बहुत कष्ट भोगना पड़ता है। दिन भर घर मे काम करते और प्यार लुटाने के बीच साठ वर्ष की उम्र में ही उन्हें पैरालिसिस हो गया। कुछ दिन अस्पताल में रही, फिर उसी अवस्था मे घर आ गयी। अब तो इकहरी हड्डी की एक खटिया में पड़ी रहती, दो वर्ष कुछ ज़्यादा बोल नही पायी।

रंजना भाभी ने पूरी तरह उनकी सेवा की,रोज गंदे कपड़े धोना, दिनभर ध्यान रखना, नहलाना, धुलाना, मालिश करना, फ़िर कोई एक कपड़ा पहना देना। बाद बाद में वो एक कपड़ा भी अपना अस्तित्व खोने लगा, क्योंकि वो छह महीने कोमा की अवस्था मे लिक्विड डाइट के साथ बिस्तर पर पड़ी रही, कभी भी बिस्तर खराब हो जाता था, सही कहा जाता है, बच्चे और बूढ़े एक से होते हैं।

उन वर्षो में उनके घर से भी शायद वो थाली लुप्त हो गयी थी। रवीना उनकी सहृदयता आज भी याद करती है, उसने एक स्नेहमयी सास का रूप उनमें देखा था, वो जमाना ही अलग था, जब ऐसे बहू बेटे भी घर मे होते थे, हर तरह की सेवा सुश्रुषा अपने हाथों से करते थे। समय बीत गया, शहर बदला, लोग बदले, लोगो का आचरण बदला।

उनकी आत्मा की शांति के लिए आज रवीना रसोई में उसी थाली के व्यंजनों को बनाने की तैयारी में लग गयी।

स्वरचित

भगवती सक्सेना गौड़

 

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