आ,अब लौट चलें” – नीति सक्सेना

वसुधा के सिर में पिछले तीन दिन से  बहुत दर्द हो रहा था।दर्द की दवा भी खा चुकी थीं पर कोई फायदा नहीं हो रहा था।डिजिटल ब्लड प्रेशर नापने वाले यंत्र से ब्लड प्रेशर नापा तो काफी बढ़ा हुआ निकला।इसका मतलब जो ब्लड प्रेशर वाली दवा वह खा रही थीं,उसका असर नहीं हो रहा था।बेटे अमित से कई बार कह चुकी थीं कि डॉक्टर के पास उनको ले जाए अपनी गाड़ी से पर वह बहुत ज़्यादा व्यस्त चल रहा था।नोएडा की जिस सोसाइटी में वो रह रही थीं,वह काफी सुनसान एरिया में बनी थी।आसपास कंस्ट्रक्शन चल रहा था।कोई मार्केट या डॉक्टर आस पास थे ही नहीं।बस सोसाइटी की खुद की एक छोटी मार्केट थी जहां थोड़ा बहुत ज़रूरत का सामान मिल जाता था।

वसुधा अपने पति सुरेश जी के साथ 6 वर्ष पूर्व अपने गांव से यहां नोएडा बेटे के पास आ गई थीं। बेटा अमित किसी मल्टीनेशनल कंपनी में इंजीनियर था । बहू मिताली भी आई टी इंजीनियर थी और किसी बड़ी कंपनी में काम कर रही थी।सुरेश और वसुधा हरदोई जिले के एक गांव में रहते थे। सुरेश जी वहीं के एक प्राथमिक विद्यालय से हेडमास्टर की पोस्ट से रिटायर हो चुके थे।वहां दो कमरों का छोटा पर पक्का मकान था उनका।थोड़ी बहुत खेती बाड़ी थी जिसको बंटाई पे उठा रखा था।

दो बेटे हुए थे उनके ,और दोनों ही मेधावी निकले। दोनों में सिर्फ दो वर्ष का ही अंतर था।हरदोई के इंटर कॉलेज से  12 th पास करने के बाद दोनों का ही कॉम्पिटेटीव एग्जाम्स पास करने के बाद लखनऊ के सरकारी और अच्छे इंजीनियरिंग कॉलेज में दाखिला हो गया था।इंजिनियरिंग  करते करते ही दोनों का अच्छी कंपनी में कॉलेज से ही प्लेसमेंट  हो गया  और बड़ा बेटा अभिषेक  तो कुछ साल बैंगलोर में जॉब करने के बाद अच्छा ऑफर मिलने के बाद कैलिफोर्निया चला गया था और अब वहीं बस गया था बीवी बच्चों के साथ। वहीं एक बहुत अच्छी आई टी कंपनी में ऊंचे पद पर था वो और वहां की नागरिकता भी मिल गई थी उसे। अब तो स्वयं का मकान भी खरीद लिया था उसने वहां पर। भारत वापस लौटने की उम्मीद अब न के बराबर थी उसकी।माता पिता को वह बहुत कम ही फोन करता।वसुधा का जब कभी मन करता तो बेटे, बहू और  नौ वर्षीय पोते आहान  और तीन वर्षीय पोती शीना को देखने के लिए वह उनको वीडियो कॉल कर लेती थी अपने मोबाइल से।

वसुधा और सुरेश जी गांव छोड़ कर यहां बेटे अमित के पास आना नहीं चाहते थे पर जब बहू मिताली गर्भवती हुई तो दोनों ने बहुत ज़िद करके उनको यहां नोएडा अपने पास बुला लिया था,ताकि मिताली की गर्भावस्था में ठीक से देखभाल हो सके।उसके बाद जब पोते अंश का जन्म हुआ तो भी उनको बहू और पोते की देखभाल के लिए रुकना पड़ा।शुरू में एक दो साल तक तो सब ठीक ही चलता रहा। छह महीने की  मैटरनिटी लीव समाप्त होने के बाद मिताली को अंश को घर छोड़ कर अपने ऑफिस जाना पड़ता था।

अपना कर्तव्य समझ कर सुरेश जी और वसुधा बड़े प्यार से अंश की देखभाल करते,समय से उसको दूध देना,बेबी फ़ूड देना,नैपीस बदलना,उसको शुशु पॉटी करवाना,दूध की बॉटल पानी में उबाल कर ब्रश से साफ करके रखना ,गंदे नैपीज धोना इत्यादि इत्यादि ढेरों काम।बर्तन मांजने और झाडू पोंछा के लिए मेड आती थी पर अपना नाश्ता और दोनों समय का खाना वसुधा को ही बनाना पड़ता था क्योंकि मिताली और अमित रात आठ बजे से पहले घर नहीं लौट पाते थे क्योंकि उनके ऑफिस काफी दूर थे उनके घर से।  मिताली सुबह बस अपना और अमित का नाश्ता बना के खा पी के ऑफिस निकल जाती थी अपनी कार से।पैंसठ वर्ष की हो चलीं थी वसुधा और सुरेश जी भी अड़सठ वर्ष के हो चुके थे।अब पहले की तरह वो स्फूर्ति,शक्ति न रही थी दोनों के शरीर में बढ़ती उम्र के कारण। काम के अधिक बोझ के कारण थक जाती थीं वो।पर  पुत्र और पोते के मोह के कारण,नौकरीपेशा बहू की घर के कामों में  सहायता  के कारण दोनों खुशी खुशी पूरा घर और घर के सारे काम संभाले हुए थे।



अभी पिछले माह ही वसुधा को डेंगू हो गया था।करीब एक हफ्ते तक बुखार में रही वो, बाद में शरीर में कमजोरी भी बहुत हो गई थी।सुरेश जी ने एक दिन दबी जुबान से अमित से कहा भी कि कोई खाना बनाने वाली लगा ले, मां थक जाती हैं अब।पर अमित छूटते ही बोला,” क्या पिता जी,आपको मालूम भी है,यहां कुक के क्या रेट हैं।प्रति व्यक्ति  पंद्रह सौ रुपए लेती है खाना बनाने वाली।यहां यही रेट चल रहे हैं।हम चार लोगों के  छः हज़ार रुपए लगेंगे।वैसे ही इतने  सारे खर्चे हैं,फ्लैट की ई एम आई, मेंटेनेंस,गाड़ी का पेट्रोल,अंश की दवाई, हगीज का, दवा का खर्चा।अंश थोड़ा बड़ा और हो जायेगा तो इसके भी कुक पंद्रह सौ रुपए लेने लगेगी।वैसे भी मां के हाथ का बना खाना लाजवाब होता है,वैसा खाना कुक बना पाएगी क्या?”

सुरेश जी मन मसोस के चुप रह गए। मन ही मन सोचने लगे कि अच्छा खासा पैकेज है बहू बेटे का,पर मां को आराम देने के नाम पे इनको अपने खर्चे याद आने लगते हैं।अभी पिछले हफ्ते ही मिताली को हल्का बुखार और सर्दी जुकाम हो गया था।उसको बिस्तर पे ही लेटे रहने की ताकीद करके अमित मां को सारे कामों के लिए चकर घिन्नी सा नचाता रहा था।जबकि वसुधा को बुखार में भी रसोई का काम करना पड़ा था।

सुरेश जी का खेती बाड़ी से जो भी पैसा आता था वो वह अपनी और वसुधा की दवाइयों में, अपने छोटे मोटे खर्चों और यहां की पास में ही लगने वाली सब्ज़ी मंडी से ताज़ी सब्जियां खरीदने में खर्च कर देते थे।थोड़ा बहुत पैसा ही उनके बैंक अकाउंट में रहता था।

आज सप्ताहांत में शनिवार की अमित और मिताली दोनों की छुट्टी थी।

” अमित,बेटा,आज डॉक्टर के पास ले चल मुझे।लगता है ब्लड प्रेशर की दवाई बदलवानी पड़ेगी मुझे,इससे कोई फायदा नहीं हो रहा।चक्कर से आ रहे हैं और सिर में दर्द भी बहुत है,” वसुधा अमित के कमरे में आके उससे बोलीं।

” क्या मां,हम दोनों को दो दिन ही तो मिलते हैं आराम करने के लिए और कहीं घूमने फिरने के लिए।आज मैं और मिताली मल्टीप्लेक्स में नई मूवी देखने जा रहे हैं।कल दिखा देना डॉक्टर को,” अमित झल्लाते हुए बोला।

“पर बेटा,कल तो रविवार है और कोई डॉक्टर रविवार को नहीं बैठता,” वसुधा बोलीं।

” तो क्या हुआ,एक दिन दवाई नहीं खाओगी या डॉक्टर को नहीं दिखाओगी तो मर नहीं जाओगी,” अमित गुस्से से बोला।

वसुधा  हक्की बक्की रह गई।

उसके सीने पर हथौड़ा सा पड़ा।यह क्या कह रहा है अमित अपनी मां के लिए?

“मर तो नहीं जाओगी”,ये शब्द हथौड़े की तरह उसके मस्तिष्क पर प्रहार करने लगे।

ऐसे संस्कार तो नही दिए थे उसने अपने बेटों को।बड़े  अभिषेक ने तो पहले ही अपने क्रिया कलापों और अपने हाव भावों से यह संकेत दे दिया था कि वह अब अपने माता पिता और भाई से दूरी बना कर रखना चाहता है,छोटा अमित भी रंग दिखाने लगा था।

बाहर खड़े सुरेश जी के कानों में भी बेटे अमित के ये कटु शब्द पड़ चुके थे।

सुरेश जी बीच बीच में अपने गांव हो आते थे घर और खेती बाड़ी को देखने के लिए पर वसुधा को छोटे अंश की देखभाल के कारण रुकना पड़ता था।

आंखों में आंसू लिए वसुधा अपने बिस्तर पे आके लेट गई।उसको अपना गांव,घर याद आने लगा।गांव में उनके घर के आस पास रहने वाली  अपनी हम उम्र सहेलियां याद आने लगीं  जो जब तब उसके घर आके दो मिनट बैठ कर उसके हाल चाल ले जाती थीं,अपने मन की बात बता जाती थीं।किसी ने खीर बनाई तो उनके घर पहुंचा जाती थी,और जब वो कढ़ी बनाती थीं तो आस पास अपने पड़ोसियों को बांट आती थीं।

यहां तो सोसाइटी में रहने वाली नई उम्र की लड़किया एक स्माइल तक नहीं मारती थीं उनको देख के। रविवार का दिन ऐसे ही निकल गया।वसुधा और सुरेश जी ने अमित से कोई  खास बात नहीं की।अमित और वसुधा भी टीवी पे OTT पे कोई वेब सीरीज देखते रहे। न ही मिताली ने और न अमित ने वसुधा से उनकी तबियत के बारे में कुछ पूछा। हां, नन्हा अंश ज़रूर उनके कमरे में आके अपनी मनभावन ,मन मोहने वाली बातों से उनका दिल बहलाता रहा।



अंश भी अब स्कूल जाने लगा था और उसको स्कूल  बस में बैठाने की जिम्मेदारी सुबह सुरेश जी की होती थी और दोपहर में बस से उतरने पर घर लाने की जिम्मेदारी वसुधा की।

आज सुरेश जी को दोपहर में सोसाइटी के पास बने होम्योपैथिक क्लिनिक में अपने घुटनों के दर्द की दवा लेने जाना था अतः खाना खा के वह वहां चले गए थे। दो बजे तक ही उनकी क्लिनिक खुलती थी।वसुधा रात भर सो नहीं पाई थी अजीब सी बेचैनी और सिर दर्द के कारण।अमित का व्यवहार उसको अंदर तक कचोटे दे रहा था।

रात में उसका सिर सहलाते हुए सुरेश जी उससे बोले भी थे कि ,” कितनी बार तुमसे कहा वसुधा कि वापस गांव चलते हैं,पर हर बार तुमने पुत्र के प्रति अपने कर्तव्यों और उनकी जरूरतों का हवाला देके मुझे चुप करा दिया।अब समय आ गया है,अंश भी बड़ा हो गया है।अब इन दोनों से कहो अपनी गृहस्थी आप संभालें।हमारा यूज कर रहे हैं ये लोग। पता नहीं हमारे पालन पोषण में क्या कमी रह गई जो दोनों बेटे ऐसे स्वार्थी निकले।तुम कहती हो कि अमित हम दोनों से बहुत प्रेम करता है।करता होगा थोड़ा बहुत प्रेम,पर इस प्रेम में अब उसका निज स्वार्थ शामिल हो गया है।अगर वाकई उसको हमसे प्रेम होता,हमारा ख्याल होता तो अब तक उसने तुम्हें डॉक्टर को दिखा दिया होता।आस पास कहीं डॉक्टर होता तो मैं ही ले जाता तुमको ऑटो में बिठा के।पर यहां से उन्नीस बीस किलोमीटर दूर उसकी क्लिनिक है और वहां जाने के लिए यहां से ऑटो बड़ी मुश्किल से ही मिलते हैं,तभी अमित पे निर्भर रहना पड़ता है।होम्योपैथिक वाले वैद्य जी की दवा से तुमको फायदा होता नहीं,वरना तो पास होने के कारण वही सबसे अच्छे थे। “

वसुधा कुछ नहीं बोली, चुपचाप आंसू बहाती रही।अमित,बहू और पोते अंश से अब दूर जाने का मन उसका नहीं करता था,उनके खराब व्यवहार के बावजूद भी।पुत्र मोह में बंधी हुई थी वो।

सुबह अंश को सुरेश जी स्कूल बस में चढ़ा आए थे।वसुधा ने भी घर का काम निबटाया और लेट गई।रात भर जागने के कारण कब उसकी आंख लग गई,उसको पता ही नहीं चला। दरवाज़े की घंटी बजने के कारण हड़बड़ा कर वह उठी। दरवाज़ा खोला तो अंश खड़ा था।

ओह,मैं आज सोती कैसे रह गई। वसुधा ने सोचा।घड़ी पे नज़र डाली तो डेढ़ बज रहा था। सुरेश जी वैद्य जी के यहां से अभी तक नहीं लौटे थे।



अंश स्वयं ही बस से उतर के ऊपर घर आ गया था।ग्यारहवे फ्लोर पे फ्लैट था उनका  ।लिफ्ट होने के कारण आने जाने में कोई परेशानी नहीं थी।वैसे भी अंश अब पांच वर्ष का हो चुका था।

रात को खाना खाते समय अचानक अंश मिताली से बोला,” मम्मी,पता है, अब मैं बड़ा हो गया हूं । आज दादी मुझे लेने नीचे गेट पे नहीं आई थीं तो मैं खुद ही अकेला लिफ्ट से ऊपर आ गया,” अंश गर्व से बता रहा था।

” क्या? तुम अकेले ऊपर आए? मम्मी आपको पता है कि बस सड़क के उस पार खड़ी होती है।सड़क क्रॉस करके इधर गेट पे आना पड़ता है बच्चों को।सड़क पे इतना ट्रैफिक रहता है।अंश को कुछ हो जाता तो? लिफ्ट में आते टाइम अगर लाइट चली जाती तो कितना घबरा जाता वो? अभी पांच साल का बच्चा ही तो है।,” मिताली बिफर के बोली।

” बेटा,रात भर सो नहीं पाई थी,इसलिए कब आंख लग गई,मुझे खुद पता नहीं चला,” वसुधा सफाई देते हुए बोली।

” आपका आराम ज़्यादा ज़रूरी है मम्मी जी,या अंश की सुरक्षा,”? मिताली बोली और पैर पटकती हुई गुस्से से अंदर चली गई।

” मां,आपको अपने पोते का ज़रा भी ख्याल नहीं? दादियां ऐसी होती हैं क्या,”? अमित ने तंज कसा और अंश को लेके अपने बेडरूम में चला गया।

सुरेश जी और वसुधा, दोनों हतप्रभ,ठगे से खड़े रह गए।

हाथ धो के जब सुरेश जी कमरे में आए तो देखा वसुधा सामान बांध रही थी ।अपनी अटैची में कपड़े भर रही थी।

“कल ही गांव चलते हैं।रिजर्वेशन तो मिलेगा नहीं इतनी जल्दी।कल सुबह की पहली बस पकड़ लेंगे हरदोई की। ऑटो वाला बस स्टैंड तक तो पहुंचा ही देगा।,” वसुधा सुरेश की तरफ देखती हुई बोली।

सुरेश जी ने मुस्कुरा के हामी भरी और वो भी अपनी दवाइयां डिब्बे में पैक करने में लग गए।ऊपर वाले फ्लैट की बालकनी में किसी ने अपने मोबाइल में गाना बजा रखा था,” आ,अब लौट चलें, बांह पसारे,राह निहारे,तुझको पुकारे, देस तेरा

आ,अब लौट चलें”

गाने की पंक्तियां सुन के दोनों ने एक दूसरे की तरफ देख कर एक ठंडी आह भरी और सामान पैक करने लगे।

स्वरचित और अप्रकाशित

नीति सक्सेना

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