उम्मीदों का दिया बुझने मत देना (भाग 4) – मुकेश पटेल

4 साल बाद महेश की बेटी का जहां पर नैना का ससुराल था उसी शहर में एक सरकारी अस्पताल में हड्डी के डॉक्टर के रूप में नियुक्ति हो गई थी।  महेश की बेटी सब कुछ भूल चुकी थी बचपन में उसकी बुआ उसके साथ बुरा बर्ताव करती थी वह सोच रही थी कि अब शायद बुआ उसके साथ पहले जैसा बर्ताव ना करें। 1 दिन नीलिमा अपने बुआ के यहां गई।  लेकिन वहां जाने के बाद उसने महसूस किया कि बुआ के बर्ताव में कोई परिवर्तन नहीं हुआ था बल्कि उसके बुआ का बेटा भी नीलिमा के साथ सही से बात नहीं किया। नीलिमा ने सोच लिया अब वह कभी बुआ के घर नहीं आएगी।  थोड़ी देर बाद ही वह वहां से विदा होकर चली गई।

वह घर जा कर खूब रोइ और अपनी मां को फोन कर के  सब कुछ बताया उसकी मां ने कहा बेटी तुम नाराज ना हो कई लोगों का स्वभाव होता है बिच्छू की तरह वह कभी भी डंक मारना नहीं भूलते हैं लेकिन दूसरों के स्वभाव की वजह से हम अपना स्वभाव क्यों बदले।

नीलिमा अपनी मां से बात कर ही रही थी तभी उसी फोन पर हॉस्पिटल का फोन आ रहा था नीलिमा ने बोली मां तुम फोन रखो हॉस्पिटल से इमरजेंसी कॉल आ रहा है जैसे ही नीलिमा ने फोन उठाया हॉस्पिटल से सीनियर डॉक्टर का फोन था नीलिमा तुम जल्दी से हॉस्पिटल पहुँचो  एक इमरजेंसी केस आया है एक लड़के का एक्सीडेंट में पूरी तरह से पैर का हड्डी चकनाचूर हो गया है।

नीलिमा  जल्दी से अपना कार निकाला और हॉस्पिटल की तरफ चल दी। वह हॉस्पिटल पहुँचते ही इमरजेंसी वार्ड में गई जहां पर रोगी था वहां गई तो देखा  अरे यह तो मेरी बुआ का लड़का है जल्दी से अपने साथ 4 डॉक्टरों को को ऑपरेशन रूम में पहुंचने को बोल दी।

रात भर ऑपरेशन चला और ऑपरेशन कामयाब हुआ।  सुबह जब नीलमा के बुआ के लड़के को होश आया। और जब सामने नीलिमा को देखा तो बहुत शर्मिंदा हुआ जिसको वह मजाक बना रहा था आज उसी ने उसको एक नई जिंदगी दी नहीं तो वह पूरे जीवन दोबारा चल नहीं पाता।  

उसकी बुआ का लड़का शर्म से नीलिमा से नजरें नहीं मिला पा रहा था कि वह जिसे पूरी जिंदगी विकलांग कह कर मजाक बनाता रहा आज उसी लड़की ने उसे विकलांग होने से बचा लिया था।

कुछ दिनों के बाद नीलिमा के बुआ के लड़के को हॉस्पिटल से छुट्टी मिल गई और उसके कुछ दिनों बाद ही रक्षाबंधन आने वाला था नीलिमा के बुआ के लड़का खुद नीलिमा को अपने घर ले गया और उसकी हाथ से पहली बार राखी बंधवाया और उसने कहा कि नियम तो यह होता है कि एक भाई बहन की रक्षा करें लेकिन आज एक बहन ने भाई की जिंदगी बचा ली।  नहीं तो मैं पूरी जिंदगी बिस्तर पर ही होता। नीलिमा ने बस इतना ही कहा भाई मैंने कुछ नहीं किया है एक डॉक्टर का यह फर्ज होता है चाहे रोगी कोई भी हो उसके लिए तो वह रोगी ही होता है। और मैंने तो सिर्फ अपना फर्ज निभाया।

नीलिमा की बुआ ने भी इस बार नीलिमा को प्यार से गले लगाया और नीलिमा के बुआ के आंखों में आंसू थे और ऐसा  लग रहा था कि नीलिमा की बुआ नीलिमा से माफी मांग रही हो कि बेटी मुझे माफ कर दे पूरी जीवन मैंने तुम्हें कितना गलत सोचा।

नीलिमा ने अपनी बुआ से बस इतना ही कहा बुआ आगे कहने की जरूरत नहीं है मैं सब समझ गई हूं।  बस यह समाज को समझना जरूरी है पता नहीं क्यों लड़की को हमेशा से एक अलग चीज मानता है जबकि लड़की में भी वैसा ही खून और वही सब कुछ होता है जो एक लड़के में होता है।  बस जरूरत है लड़की को हौसला देने की आज मेरे मां बाप ने मेरा साथ दिया और मेरी विकलांगता को कभी भी कमजोरी नहीं बनने दिया और ना ही या यह एहसास होने दिया कि मैं विकलांग हूं।

आज नीलिमा को अपने मां की कही हुई बात याद आ रहा था जो बचपन से ही हमेशा उसे करती थी बेटी कभी भी अपनी उम्मीदों का  दिया को बुझने मत देना क्योंकि इसमें देर लगता है लेकिन जलता जरूर है और जब यह जलता है तो ऐसा रोशनी बिखेरता है कि उस रोशनी में सारे गम के अंधियारे दूर हो जाते हैं।  सिर्फ तुम्हारे सामने उजाले होते हैं और सब तुम्हारे होते हैं और नीलिमा को ऐसा लग रहा था कि वह उम्मीदों का दिया जल गया है सब अंधियारा दूर हो गया है।

समाप्त

Writer: Mukesh Patel (Founder of Betiyan)

1 thought on “उम्मीदों का दिया बुझने मत देना (भाग 4) – मुकेश पटेल”

  1. Sir ye kahani bhut hi amazing👍😍🤩 thi… Aur aapne jo ye “Betiyan” website bnayi h wo bhut hi acchi h❤❤❤….. Har ek kahani se har roj kuch nya sikhne ko milta h 😊….

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