पाप और पुण्य मेरे चश्में से – हरेन्द्र कुमार

गंगुवा ने जैसे ही आलू की बोरी (थैला) को माथे से नीचे उतरा बाबूसाहेब के आंगन में , बाबूसाहब आंगन में ही खड़े थे , गरजते हुए लहजे में बोले :- केकर लइका हवस (किसके लड़के हो)। गंगुवा डरे हुए और दबूपन नजरों से बाबूसाहब को देख कर बोला :- बुधिया के ह‌ई । गंगुवा के चाचाजी ने बाबूसाहब से बंटाई पर लेकर एक कट्ठा खेत में आलू की फसल उपजाया था ताकि अगले छः महीने तक सब्जी के किल‌्त से बचें। छठी कक्षा में पढ़ने वाला गंगु पच्चीस किलोग्राम का होगा और दस किलो आलू की बोरी माथे पर उठाए लगातार पैदल चलकर एक किलोमीटर दूरी तय करने के बाद पसीना आना लाजमी था । ठंड के मौसम में भी लालाट पर चमकती हुई मेहनतकस पानी की बूंदे पसीना और डर दोनों को दर्शाता था । गंगुवा ने बड़ी मुश्किल से बोरी को माथे से नीचे उतरा, तभी बाबूसाहेब ने कड़कती आवाज में कहा:-इसको सामने वाले घर में रख दे । गंगुवा मन-ही-मन सोच रहा था ‘पहले बता‌ए होते कहा रखना है तो मैं वही रखता’ ।

गंगुवा का जन्म 80 के दशक में हुआ था, घर में चाचाजी सातवीं पास थे , बाबूजी का तो चेहरा भी याद नहीं है जब वो टीबी नामक महाबिमारी से चल बसे, अब तो इलाज संभव है पर 80 के दशक में यह महामारी हैजा के जैसा महाबिमारी था ।



घर की माली हालत गंभीर बनी हुई थी , हालांकि 60 के दशक में ईंट का मकान बनना साथ में चापाकल लगना चाचाजी का सातवीं कक्षा पास होना अतिपिछड़ा जाती से होने के बाद भी आर्थिक स्थिति अच्छी थी यह संकेत देता था लेकिन 70 के दशक में कुछ ऐसे कुचक्र में परिवार फंसा की हालत 1947 वाली हो गई ।

गंगुवा मन में बड़बड़ाता हुआ अंधेरे कमरे में आलू के बोरी को एक कोने में रखा दिया । दिन के उजाले में भी गंगुवा उस कमरे के अंदर पड़े सामान को देख न सका जभी ,ची…की तेज आवाज सुनाई दी जैसे मानो चमगादड़ की आवाज हो। धीरे धीरे कदम से बाबूसाहब के घर से खेत की ओर बढ़ जाता है । बिना आहट वह दुबारा से बोरी लेकर वापस आता है इस बार बाबूसाहेब नहीं थे , दलान पर चले गए लगता है, पूजा का समय जो हो चला था । मन ही मन गंगुवा खुश हुआ चलो कोई सवाल जवाब करने वाला नहीं था ।

देहारी (Daily wages ) मजदूर लगे थे फिर भी बाबूसाहेब ने रमुवा के हाथ फरमान भेजा था कि मुझे (बाबूसाहेब) को पास के तहसीलदार के पास जाना है इसलिए जितना जल्दी हो सके आलू की फसल जल्द से जल्द घर आनी चाहिए। रमुवा बाबूसाहेब के मवेशियों के साथ-साथ साग सब्जी का भी ख्याल रखता था , बाबूसाहेब ने इसके एवज में एक बीघा जमीन खेती करने के लिए दिया था रमुवा को।

गंगुवा जब घर में बात सुनता तो ये तीर के समान शब्द बान उसके कानों में भी गुनजने लगते । अंग्रेज तो चले गए पर जो पढ़े लिखे लोग थे उन्होंने सभी अनपढ़ों से अंगुठे का निशान लगवाकर सतू,अनाज… इत्यादि पर खेती वाली जमीनें लिखवाली।

मां की बातें सुनते सुनते उसको कब निंद लग गई पता ही नहीं चला।रात के करीब एक बज रहे होंगे हु….आ,,,हु….आ… ये अवाज बधार (गांव के मैदानी इलाका) में सियार होने का एहसास दिला रहा था ।



तभी कुत्ते की भुकने के अवाज तेज होती गई भो…अ..भो..अ अवाज तेजी से कान के पर्दे से टकराकर मानो तन्त्रिका तन्त्र से कह रहा हो:- उठो । अब कुत्ते की तेज आवाज के साथ पैरों के धमक भी सुनाई दे रही थी , अब लोगों ने चिल्लाना शुरू किया :ंचोर हो….चोर हों!

गंगुवा के साथ मां,चाचा और पुरा परिवार छत पर पर खड़े होकर पड़ोस के रामराज से पुछने लगे :-क्या हुआ रामराज??

रामराज ने कहा:- लगता है बाबूसाहब के यहां चोरों ने हाथ साफ कर लिया है कल पता चलेगा कि पड़ोसी गांव में क्या हुआ।

अगले दिन पता चला कि जेवरात के साथ चोरों ने अनाज पर भी हाथ साफ़ कर लिया है । गंगुवा सोचने लगा कही आलू भी तो चोरी नहीं हुई । गंगुवा के दोस्त लोटनाव ने अवाज लागाई :- गंगुवा बाड़े रे ….! रविवार का दिन था सुबह सुबह गंगुवा दोस्तों के साथ निकल गया कपड़े से बने फुटबॉल खेलने के लिए ।गंगुवा जो कुर्ता पहना था उसके छः के छः बटन अलग अलग रंग के थे ,‌ अलग अलग धागों से बटन टके हुए गरीबी का एहसास दिला रहे थे । फुलपैन‌्ट के जीप के जगह मां ने सिलाई करके जीप को हमेशा के लिए ईलाज कर दिया ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी,पर इन सबसे बेखबर गंगुवा फुटबॉल खेलने में व्यस्त था।

परीक्षा के समय नजदीक आ रहा था किरोसीन तेल के लिए मां ने राशन कार्ड पकड़वाया और तीस रुपए दिए पांच लिटर तेल के लिए । बोली:- देख गंगुवा पैसे की किल्लत है बजार में कुछ खा मत लेना । गंगुवा बोला:-ठीक है मां । गंगुवा ढाई किलोमीटर की दूरी तय कर बजार में जैसे ही कदम रखता है मिठाई की खुसबू से रुबरु होता है । चाट पकौड़ी देखकर मुंह में पानी आने लगता है, तभी उसको मास्टर जी द्वारा अपने पाठ्यक्रम में पढ़ाया यह वाक्य याद आता है कि बजार की चीज जो ढकी हुई न हो उसे नहीं खानी चाहिए और चेहरे पर संतोष के भाव लिए आगे बढ़ जाता है।



टन…टन… करते हुए साईकिल , पो….ह…पो….ह करते हुए बस की आवाज बजार होने का बोध करा रहे थे । अब गांव वाले दिखने लगे थे , सबने अपने अपने किरोसीन तेल वाला डब्बा लाइन मे लगा दिया था ,गंगुवा ने भी रामू काका के डब्बे के पीछे अपना डब्बा लाइन में लगाकर कटहल के पेड़ के नीचे बैठ गया। दस बजे सुबह का आया दोपहर के बाद तीन बजने वाला था डीलर ( डिस्ट्रीब्यूटर्स) का कोई अतापता नहीं था । लोग उदास हो गांव के तरफ वापस आने लगे , कोइ कहता डीलर ने ब्लैक में किरोसीन तेल बेच दिया , कोइ कहता इस डीलर का कोटा किसी और डीलर को दे दिया ,जितनी मुंह उतनी बातें । जलेबी को घूरता हुआ , चाट पकौड़ी को निहारता हुआ , मिठाई की खुशबू को सूंघता हुआ बोझिल मन से गंगुवा भी गांव के लिए प्रस्थान कर चुका था । थका हरा बाजार से जैसे ही गंगुवा घर आया , मां ने ताजा पानी कल से चलाकर दिया और साथ में गुड़ भी दिया ।

साम सात बज चुके थे मां ने गरमा गरम रोटी बनाया साथ में साबुत मिर्च गोबर की अंगीठी पर भुन कर दिया । गंगुवा ने नमक , सरसों तेल और भुने मिर्च के साथ तीन रोटी खा लिया , मां ने अवाज दी :- और रोटी दू क्या बेटा ? गंगुवा को मानो बेटा शब्द सुने काफी दीन हो गया था वह स्कूल के नाम रजत और बेटा के बीच गंगुवा कुंडली मारकर बैठा हो । जी मां एक रोटी और :- गंगुवा धीरे से मुस्करा कर बोला।

नींद ने दस्तक देनी शुरू कर दिया था सोते सोते गंगुवा ने मां से पूछा :- मां पुण्य और पाप क्या है ? बारह वर्ष होते होते अक्सर इस तरह के सवाल मन को कचोटने लगते है । अब तक गंगुवा को यह समझ आ रहा था बाबूसाहेब ने आम जनता को लुटा , चोरों ने बाबूसाहेब को लुटा , डीलर ने गांव के लोगो के हक को लूटा ।

मां ने सरसों का तेल सर पर मिलाते हुए बोला :- बेटा मानव सेवा से बढ़ा पुण्य नहीं है और लाचार , बिमार , बेरोजगार को सहायता देने लायक होकर सहायता नहीं करना पाप है ।

तभी office boy ने दरवाजा खटखटाया : सर लंच लगा दू । 45 के तापमान में औफिस के अन्दर 18 का तापमान बहुत कुछ कहता है गंगुवा के बारे में। लगा सपना देख रहा हूं गंगुवा बोला :- हा लंच लगा दो , सलाद और मिठाई ज्यादा है आपस में बाट लेना ।

आज गंगुवा को संतुष्टि है की गुरु उसने मां को माना और एक हजार लोगों को रोजगार के लायक बनाया ।

आपने अपना कीमती समय निकाल कर पढ़ा ,

मै हमेशा आपक आभारी रहूंगा।

धन्यवाद।

हरेंद्र कुमार ।

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