मैं अपनी दादी माँ जैसा बनना चाहती हूं-Mukesh Kumar

सुबह सुबह का टाइम था बच्चों और पति को स्कूल भेज चुकी थी थोड़ी देर सोचा सोफा पर आराम कर लेती हूं फिर बाकी घर का काम निपटाऊंगी.  तभी मेरी मां का फोन आया मैंने मां से पूछा मां सब कुछ ठीक तो है ना इतनी सुबह फोन ! क्योंकि मेरी मां अक्सर दोपहर में ही फोन करती थी  क्योंकि मैं भी तब फुर्सत में होती थी और माँ भी और हम दोनों काफी देर फोन पर बातें करते थे। मैं रोजाना बात इसलिए भी करती थी कि मेरी मां के साथ बात करने के लिए मेरे अलावा भी तो  कोई था भी तो नहीं। भाभी थी तो उन्हे सिर्फ अपनी दुनिया से ही मतलब था मां कैसी है उनसे कोई मतलब नहीं था।

लेकिन मैं तो बेटी हूं मुझे तो अपनी मां से मतलब होगा ही।  मां ने बताया कि आज शाम के ट्रेन से हम लोग गांव जा रहे हैं तुम्हारी दादी का देहांत हो चुका है चलो तुम भी।  मैंने आश्चर्य से पूछा माँ दादी का देहांत कैसे हो गया दादी से तो मैं कल सुबह बात किया था अच्छी भली चंगी थी।  मां ने कहा हां बेटी तुम सही कह रही हो हम भी कल शाम को ही बात किए थे। आज लेकिन सुबह ही तुम्हारे मनोहर काका का फोन आया कि  तुम्हारी दादी अब नहीं रही मनोहर काका हमारे गांव में नौकर थे जो दादी की देखभाल किया करते थे। मेरे पापा और ताऊ ने कितनी बार दादी को कोशिश किया कि वह उनके साथ शहर में रहे लेकिन दादी बोली नहीं मैं यह जगह छोड़कर अब कहीं नहीं जाऊंगी।  मैं अपनी आखिरी सांस वहीं लूंगी जहां पर तुम्हारे दादा ने लिया था।



 दादी से कोई जोर जबरदस्ती भी नहीं करता था सबने मिलकर दादी के देख रेख के लिए एक नौकर रख दिया था जो दादी की सेवा करता था। मां बोली जल्दी से तैयार हो जाओ तो मैंने कहा मैं अचानक से कैसे जा सकती हूं बच्चों की पढ़ाई और फिर तुम्हारे दामाद जी को भी छुट्टी तो अचानक से नहीं मिलेगी ना।  मां ने कहा एक बार दामाद जी से बात कर लो तुम्हें तो पता ही है तुम्हारी दादी तुमसे कितना लाड़ प्यार करती थी।

 मैंने मां को कहा ठीक है मां फोन रखो मैं तुम्हारे दामाद से बात करती हूं फिर बताती हूं।  मैंने तुरंत अपने हस्बैंड रूपेश को फोन लगाया और दादी की मृत्यु की खबर उनको दी और बताया कि मां लोग शाम की ट्रेन से गांव जा रहे हैं क्या हम भी चलें।  रूपेश ने कहा देविका ऑफिस में बहुत ही टाइट रूटीन है 1 दिन की भी छुट्टी लेने की फुर्सत नहीं है ऐसा करो तुम बच्चों को लेकर चले जाओ मैं छुट्टी लेकरतेरहवीं के दिन आऊंगा।

मैंने सोचा थोड़ी देर में सामान पैक कर लूंगी।  बैठे-बैठे मैं अपने बचपन के स्मृतियों में खो गई।   दादी का वो चेहरा मुझे याद आने लगा मध्यम कद की दादी रंग गेहुआ उम्र 50 के पास फिर भी एक भी बाल सफेद नहीं। मेरी  दादी शरीर मन और दिमाग से भी मजबूत थी।

मेरे पापा चंडीगढ़ के जल बोर्ड में फर्स्ट रैंक के अधिकारी थे तो शुरू से ही हम लोग शहर में ही रहे लेकिन गर्मी की छुट्टी हो या फिर दशहरे या दिवाली की छुट्टी हम लोग गांव में ही मनाते थे।  सच कहे तो हमारा दिल भी अपने गांव में ही बसता था हम इंतजार करते थे कि कब हमारी छुट्टियां हो और हम गांव चले जाएं अपनी दादी के पास दादी हमें बहुत प्यार करती थी कम से कम मुझे तो बहुत प्यार करती थी शायद इसलिए भी कि मैं अपने सभी भाइयों और बहनों में छोटी थी।



गांव में मैं दादी के आसपास ही भटकती रहती थी दादी का हर छोटे-मोटे काम मे  मदद कर देती थी मुझे याद है दादी बहुत सजने सँवरने की शौकीन थी। उनके सिर में सफेद बाल ज्यादा तो नहीं थे एक दो ही थे लेकिन वह बोलती थी देविका अगर तुम मेरे सिर से जितना भी सफेद बाल निकालोगी मैं तुम्हें इतने ₹1 दूंगी।  मैं भी चालाक थी मैं दादी का जो बाल निकाल दी थी फेकती नहीं थी अगले दिन ही दादी को फिर से वही बाल को दिखा देती थी और बोलती थी दादी यह देखो मैंने 10 बाल आज भी निकाल दिए और दादी से ₹10 ले लेती थी। उस समय के ₹10 शायद आज के ₹100 हो जाए।  

गांव में एक चाट  वाला आता था हम सब उसका इंतजार करते थे और चाट सही में इतना स्वादिष्ट बनाता था कि वह स्वाद आज तक मैं शहर में खाने के लिए तरस गई हूँ।  सही है कि यहां पर हम बहुत बड़े-बड़े रेस्टोरेंट्स में जा कर खाते हैं लेकिन वह गांव की मिट्टी की खुशबू जो चाट में आता था और शायद ही शहर के इस चाट में आ पाए।

हमारा गांव ज्यादा बड़ा नहीं था पर हम उस गांव के सबसे अमीर आदमी थे हमारे घर के पीछे भी अच्छा खासा बगीचा था और आगे भी।  घर के सामने ही एक अमरूद का पेड़ हुआ करता था शायद वह आज भी है पता नहीं क्योंकि अब शादी के 15 साल बाद इस बार पहली बार ही गांव जाऊंगी।   अमरूद के पेड़ का फल इसलिए नहीं अच्छा लगता था खाने में मीठा था बल्कि इसलिए कि पेड़ पर अमरूद चढ़कर तोड़ने में जो मजा था उस का आनंद ही कुछ और था मैं पेड़ पर चढ़ने में माहिर थी।  मैं दुबली पतली थी इस वजह से पेड़ के पतली पतली डालियों पर भी चढ़ जाती थी और दादी हमसे सुबह सुबह अमरूद तोड़ने को कहती और फिर हम सब भाई-बहन उस अमरूद का मजा लेते।

हमारे घर के आगे ही हरी-हरी सब्जियां भी दादी उगाई रहती थी जिसमें गोभी, पालक, धनिया, सोया, लहसुन, मिर्च, बैंगन मतलब जितनी सब्जियां होती थी सारी सब्जियां दादी उसमें उगा देती थी और उन सब्जियों को खाने में जो टेस्ट आता था वह आज के सब्जियों में कहां है।



सच कहूं तो मुझे पर्यावरण के प्रति आकर्षण मेरी दादी के कारण ही हुआ।  मैं दादी की लाडली थी मैं दादी के साथ सब्जियों के बीज लगाने उन्हें पानी देने में मुझे बड़ा मजा आता था हालांकि कुछ दिनों के बाद पापा ने बिजली का मोटर भी लगा दिया था ताकि दादी को सब्जी को पानी पटाने में ज्यादा दिक्कत ना हो नहीं तो दादी चापाकल चला कर बाल्टी में पानी भर भर के सब्जियों को पानी  देती रहती थी।

मेरी दादी सब्जी किसी को नहीं बना देती थी वह कहती थी कि तुम लोग शहर के  हो बहुत तेल मसाले डालते हो उससे आदमी की तबीयत बिगड़ जाएगी मेरी दादी बहुत कम तेल और मसाले में ऐसी सब्जियां बनाती थी कि वह सब्जियां खाने के बाद हम सब उंगलियां चाटते रह जाते थे। दादी मां के  के हाथों में जो स्वाद था वह हमारे हाथों में कहां। सब्जियों के स्वाद का कारण एक यह भी था कि सब्जियाँ ताजा ताजा हमारे बगीचे की ही होती थी और सरसों का तेल भी कोल्हू का होता था जो दादी खुद ही मनोहर काका से  कोल्हू से निकलवा कर मंगवाती थी।

मेरी जब शादी हो गई तो मेरे पति कहा करते थे रहती तुम चंडीगढ़ में हो और स्वाद तुम्हारा खाने का  बिल्कुल गांव जैसा आता है। गांव की देसी चीजें खाने में ज्यादा पसंद करती थी और यहां पर भी अपने बच्चों को भी खिलाती थी मुझे दही चुरा, सतुआ भुजा, चूल्हे में सेकी हुई मक्के की लाल लाल रोटियां।  हरे हरे मटर के साथ भुना हुआ चूड़ा मैंने यह सब अपनी दादी से ही बनाना सीखा था।

दादी जो मूली के पत्ते का साग बनाती थी उसका स्वाद बिल्कुल लाजवाब होता था और वह मैंने दादी से ही सीखा था अगर आज यहां पर भी बनाती हूं तो मेरे पति उसको खूब चाव से खाते हैं और मेरे बच्चे भी।  उपले की आग में पकाया हुआ बैंगन का चोखा ओह हो क्या लाजवाब स्वाद आता था यहां भी मन करता है वैसा चोखा खाने का लेकिन शहर में यह कहां मुमकिन है तो हम गैस पर ही बैंगन पका लेते हैं थोड़ा बहुत तो स्वाद आ ही जाता है।



मेरे दादा जी का देहांत मेरे पापा लोग जब बिल्कुल छोटे थे तभी हो गया था।  मेरे दादाजी के भाइयों ने मेरी दादी को बहुत परेशान किया वह हमें हमारा हिस्सा नहीं दे रहे थे लेकिन दादी भी मेरी झांसी की रानी से कम नहीं थी सब से लड़ाई कर कर आख़िर अपना हिस्सा ले ही लिया और खुद खेती करती थी।

 मेरी दादी पढ़ी नहीं थी लेकिन  अपने सभी बच्चों को वहीं पास के ही शहर में हॉस्टल में भर्ती करवा दिया था ताकि इनकी पढ़ाई में कोई बाधा ना आए मेरी दादी चाहे जैसी भी रहती थी लेकिन मेरे पापा लोगों को किसी भी चीज की कमी नहीं होने दी।

दादी हर महीने पापा और बड़े ताऊ से मिलने शहर उनके हॉस्टल जाती थी और गांव से उनके लिए बनाकर तिल के लड्डू, नमक पारे सब कुछ ले जाती थी और उन्हें गांव नहीं आने देती थी गांव नहीं आने का देने का कारण  यही था कि दादी को डर था कि कहीं मेरे दादा के बड़े भाइयों मेरे पापा लोगों कुछ कर ना दे। दादी मेरी दादा को तो खो ही चुकी थी अब अपने बेटों को खोना नहीं चाहती थी।

एक बार की बात है  गेहूं के फसल काटने का टाइम आ गया था दादा के बड़े भाइयों ने जाकर गेहूं की फसल काटने लगे नौकरों ने दादी को आकर बताया दादा के भाई लोग जबरदस्ती गेहूं की फसल काट रहे हैं।  फिर क्या था दादी ने आव देखा न ताव घर में रखी हुई खानदानी लाइसेंसी बंदूक निकाली और खेत पर चली गई उस दिन के बाद तो किसी की हिम्मत नहीं हुई दादी की तरफ आंख उठाने की।

मैं कभी-कभी यही सोचती हूं कि शायद आज की महिलाएं भी इतनी ही स्वनिर्भर और स्वालंबी होती तो कितना अच्छा होता शायद हम भी वैसा नहीं है।

दादी बताती थी कि जब वह शादी करके आई थी तो उसकी उम्र ज्यादा नहीं थी मात्र 14 साल वह अपने मायके में भी बहुत अमीर घर की थी दादी के पिताजी अपने गांव के प्रधान थे।  दादी ने अपने मायके में छूकर भी काम नहीं किया था लेकिन ससुराल आते ही 14 साल में ही इतना काम किया। वह बताती थी कि उसके सास उससे बिल्कुल नौकरों जैसा काम करवाती थी दूर कुएं से पानी लेकर आना होता था मेरी दादी एक बार में 20 लीटर तक पानी लेकर आती थी।



 16 साल में ही मेरी दादी माँ,  माँ बन गई थी। मेरी दादी बचपन से सीधे जवानी में प्रवेश कर चुकी थी उसने तो अपना किशोरावस्था देखा ही नहीं था।  मेरी दादी की मृत्यु 80 साल में हुई थी लेकिन 80 साल में भी वह 60 साल की लगती थी। उसकी मृत्यु प्राकृतिक रूप से हुई थी।  मैं चाहकर भी अपने आप को गाँव जाने सेरोक नहीं पाई।
शाम होते ही मम्मी पापा के साथ में गांव चली गई। मैं गांव पहुंचकर अपने बचपन को महसूस कर रही थी मेरी उम्र भले आज 40 के करीब हो चुकी थी लेकिन गांव में सब कुछ वैसा ही था दादी ने सब कुछ ऐसा लगता था कि समय को रोक दिया हो वैसे ही अमरूद का पेड़ अभी भी थे हां पेड़ जरूर बड़ा हो गया था।

अगर कोई मुझसे पुछे की आप किस तरह की महिला बनना चाहती हैं तो मैं बिल्कुल बिना संकोच के अपनी दादी का नाम ले सकती हूं क्योंकि मैं दादी की तरह बहुमुखी,  आत्मनिर्भर, बनना चाहती हूं या जो कहूं तो हर महिलाओं को मेरी दादी की तरह बनना चाहिए जिसको किसी के सहारे की जरूरत ना पड़े अपनी दुनिया अपनी कलम से खुद लिखे।

दोस्तों उम्मीद है आपको मेरी यह दादी की कहानी पसंद आई होगी तो फिर देर किस बात का कर दीजिए इस पोस्ट को लाइक और शेयर फिर मिलते हैं ऐसे ही कुछ दिल के छूटे हुए रिश्तो की कहानी के साथ तब तक दीजिए इजाजत।  

 

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