माफ़ी – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

रामदिन काका ने प्रभा के कमरे के बाहर दरवाजे पर खड़े होकर आवाज लगाई।

“बहुरिया आपके बाबूजी आए हैं मिलना चाहते हैं। उन्हें बुला लूँ अंदर !”

काका को ही पूरे घर के देख -रेख की जिम्मेदारी दी गई थी। प्रभा जब से ब्याह कर इस घर में आई थी तब से ही देखा था । उसके ससुर जी के व्यापार के सिलसिले में घर से बाहर रहने पर  सबकी देखभाल करना और घर के साथ-साथ घर के लोगों की चिंता करने की जिम्मेदारी भी उन्हीं की थी। राम दिन काका बुजुर्ग आदमी थे इसलिए प्रभा भी उनको पिता तुल्य सम्मान देती थी। काका दुलार से प्रभा को बहुरिया कहा करते थे।

नहीं !!

“जाकर उनसे कह दीजिये मुझे नहीं मिलना है वो वापस लौट जाएं ।”

“बहुरिया  जिद मत कीजिए बेचारे इतनी दूर से कितनी  बार  आ चुके हैं आपसे मिलने। एक झलक देख तो लीजिये पिता हैं आपके। कुशल- क्षेम पूछकर चले जाएंगे। “

“काका, मैं जो कह रही हूं वह जाकर उनसे कह  दीजिये। मेरा उनसे कोई नाता रिश्ता नहीं रहा। उनके लिए मैं मर चुकी हूँ। मरे हुए से कौन मिलता है?”

भारी पैरों से काका बाहर बरामदे की ओर लौट गए ।आज तक वह समझ नहीं पाए थे कि बहुरिया अपने पिता से क्यूँ नहीं मिलना चाहती हैं।

शाम को जब प्रभा दीया -बाती लेकर तुलसी चबूतरे पर दीया जलाने घर के बाहर निकली तो काका हाथों में एक कागज का टुकड़ा लिए पास आकर खड़े हो गए।

   सफेद रंग की साड़ी पहने प्रभा संध्या के समय हाथ में जलते हुए दीय की लौ में साक्षात देवी लग रही थी। नसीब ने बेवक्त ही उसे वैधव्य का चोला पहनने पर मजबूर कर दिया था। पांच साल पहले ही वह लाल जोड़े पहने महावर लगे पैरों से ससुराल की देहरी लांघकर गृह प्रवेश की रीत निभा कर आई थी लेकिन हाय रे नसीब….

“क्या बात है काका….कुछ कहना है क्या?”

“नहीं बहुरिया कहना नहीं है बस यह देना था आपको।यह चिट्ठी आपके बाबूजी ने दिया था और कहा था कि मैं आपको दे दूँ।”

प्रभा ने अनमने से काका की हाथों से वह काग़ज़ का टुकड़ा ले लिया और अंदर चली गई । पूजा पाठ खत्म हो जाने के बाद वह अपने कमरे में जाकर अंदर से दरवाज़ा सटा लिया और धीरे से कागज के टुकड़े को खोला। पूरे पन्ने में बस चार लाइन लिखा था….बेटा माँ -बाप  ताउम्र बच्चों  की गलती माफ करते हैं।क्या बच्चों का फर्ज नहीं बनता कि वे अपने  माँ बाप की गलत फैसले पर पर्दा डाल दें। उन्हें उनके द्वारा किए गलती को माफ कर दे! मुझे माफ कर दे बेटा! यह बोझ लेकर मैं जी नहीं पाऊँगा ।




प्रभा काग़ज़ के टुकड़े को अपने मुट्ठी में भीचते हुए फफक पड़ी। उस बंद कमरे में उसके दर्द को समझने वाला कोई नहीं था। आज सब उजड़ जाने के बाद बाबूजी को एहसास हुआ है कि वह गलत थे लेकिन क्या फायदा …. क्या वर्षा जब फसल सूख जाय…!

प्रभा की झरती आंखों में एक बार फिर अतीत का दर्द झिलमिला गया। हायर सेकंडरी की परीक्षा में उसने अव्वल स्थान प्राप्त कर पूरे खानदान की ल़डकियों में अपना नाम  सबसे उपर दर्ज करवा लिया था। समूचे गांव में माँ ने मिठाई बटवाई। प्रभा के पैरों में जैसे पंख लग गए थे। उसे तो पढ़ लिखकर अपने पिता की तरह बैरिस्टर बनना था। शहर के सबसे अच्छे डिग्री कालेज में उसका नामांकन हुआ। फिर शुरू हुआ पढाई का सिलसिला। कभी कभार नोट्स लेने देने के सिलसिले में वह अपनी एक सहपाठी के घर जाया करती थी।

एक दिन वह बिना झुंझलाहट प्रभा के घर अपना नोट्स वापस लेने आ पहुंचा। फिर क्या था चाचा, ताऊ ,बुआ सब नाग की तरह फुंफकार उठे। प्रभा के साथ उस लड़के को देख उन लोगों के खड़े नाक कट गए। माँ को बैठक में बुलाया गया और एक फरमान जारी हुआ। यह पढ़ाई छोड़ने का फरमान था। माँ ने लाख मिन्नतें की । उन्होंने सबको समझाया कि ऊँची पढ़ाई में एक दूसरे का सहयोग लेना पड़ता है। कोई सहपाठी घर पर आ गया इसका मतलब यह नहीं है कि प्रभा के कदम लड़खड़ा गये हैं।

प्रभा के रूढ़िवादी परिवार में यह घटना भूकंप की तरह आया था। उस भूकंप में परिवार के साथ साथ बाबूजी भी हिल गये। बेटी की इच्छा पर सामाजिक प्रतिष्ठा भारी पड़ा। देखते-देखते उन्होंने अपने एक मित्र के पुत्र से जो ऊंचे घराने का इकलौता वारिस था विवाह तय कर दिया।  प्रभा की रजामंदी का कोई प्रश्न ही नहीं  था। विवाह के दिन तय कर दिये गये।




बेचारी अभी उड़ना भी नहीं सीख पाई थी कि घर वालों ने उसके पंख काट दिए। सारे सपनों को वहीँ छोड़ रोती – बिलखती वह बाबुल की देहरी से बिदा हो गईं।

   प्रभा का ससुराल नाम का था जो जेल से कम नहीं था। ससुर जी बड़े कड़े मिजाज के थे। बात -बात में बंदूक निकाल कर खड़े हो जाना उनका शान था। पति के बारे में कुछ ना ही कहा जाये तो ज्यादा बेहतर है क्योंकि इकलौते औलाद होने की वजह से वह जिद्दी के साथ ही साथ सारे अवगुणों के धनी थे।

गौने के लिए मायका आयी प्रभा ने माँ को सबका परिचय बताया। माँ ने किताबों से भरी संदूकची साथ में दे दी और कहा बेटा यह किताबें ही तुम्हारी सखी है  इन्हीं से दोस्ती कर लेना ताकि अकेलापन नहीं खेलेंगी। तुम अपनी पढ़ाई पूरी कर लेना। प्रभा बहुत खुश थी कि अब उसे कोई मतलब नहीं कि ससुराल की चारदीवारी कितनी ऊंची है और पति को उसकी कोई कदर नहीं है। वह अपना ध्यान पढ़ने में लगाएगी। उसने पढ़ना शुरू कर दिया। लेकिन पता नहीं कौन सी कलम से प्रभा का नसीब लिखा गया था। नशे में धुत पति ने एक दिन गुस्से में आकर उसकी सारी किताबें और सर्टिफिकेट में माचिस लगा दी। प्रभा रोती बिलखती बचे हुए किताबों को समेट कर संदूक में बंद कर दिया।

कुछ ही महीने बाद आपसी रंजिश में दुश्मनों ने पति को कचहरी से लौटते समय गाड़ी में ठोकर मार दी। पैसा पानी की तरह बहाया गया पर वह बच नहीं पाये ।इस बार किस्मत ने प्रभा की बची खुची जिंदगी की आस भी खाक कर दी।

उस दिन के बाद से वह मूक -बधिर बस जिंदगी को बोझ की तरह ढोए जा रही थी। प्रभा ने अंधियारे को गले लगा लिया था। वह किसी से भी नहीं मिलती थी चाहे वह उसके मायके वाले ही क्यों न हो। माँ छटपटा कर रह गईं कि एक बार बेटी को देख पाती लेकिन प्रभा ने साफ मना कर दिया।

अपने आंसुओं को पोंछते हुए प्रभा ने कांपती हाथों से लोहे की भारी भरकम संदूक को खोला और उसमें से एक थैला निकाला। थैले में कुछ अधजले सर्टिफिकेट थे जिनको सीने लगाकर वह फुट -फुट कर रोने लगी। अनायास ही उसके मूंह से निकल पड़ा-” बाबूजी मैंने तो माफ कर दिया…क्या आप अपने आप को माफ कर पाएंगे !”

स्वरचित एंव मौलिक

डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर,बिहार

6 thoughts on “माफ़ी – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा”

    • ऐसी कई कहानियाँ कहीं न कहीं उन बकसो में बंद होंगी जिनके पर उनके बाजूयो से जुड़ने से पहले ही काट दिये गये होंगे।

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  1. Jab ma-baap par samajhavi ho jata hai to kahi kisi kone me aisi bahot si Prabha andhere ko gale laga roti hai.. par sunane wala koi nii hota

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