क़ाबिल – नीलम सौरभ

वह दम्पत्ति डॉ. शैलजा से अब मिन्नतें करने लगा था, “डाक्टरनी जी! बहुत खरच करके पता लगवा पाये हैं जी, कि एहू बार लड़की होवे वाली है!” पति ने अपनी हथेलियाँ आपस में रगड़ते हुए कहा तो उसकी पत्नी ने आगे जोड़ा, “पहिले से ही एक लड़की है हम लोगन की….गरीब लोग हैं जी!”

“तो?” प्रश्नवाचक मुद्रा में डॉ. शैलजा की भृकुटि थोड़ी टेढ़ी हो गयी।

“ज्यादा बोझा नहीं उठा पायेंगे… दो-दो लड़की का जी!”  पति बड़ी दीनता से दोनों हाथ जोड़कर बोला।

“कैसा बोझ? लड़की है तो बोझ!…. लड़का होता तो नहीं??”  डॉ. शैलजा की आवाज़ से एकाएक हल्का क्रोध झलक उठा था।

“लड़का तो जिनगी भर का सहारा रहेगा न जी, कमा कर खिलावेगा….बहू लावेगा, जो हमारी सेवा करेगी।” वह आदमी बोल रहा था।

“बेटी को पालो-पोसो, जनम भर की कमाई लुटा कर बियाह करो…जा के पराये घर की सम्पत्ति हो जावेगी!…. ना, हमें तो यह बच्चा गिरावे का है, मतलब गिरावे का है!” इस बार पत्नी एकदम दृढ़ता से बोली।

डॉ. शैलजा अचानक झटके से अपनी कुर्सी से खड़ी हो गयीं।

अचकचा कर दोनों पति-पत्नी भी प्रतिक्रिया-स्वरूप खड़े हो गये। हाथ जोड़ दिये। उन्हें लगने लगा था, शायद डाक्टरनी जी नाराज़ हो गयी हैं।


“देखिए मुझे, अच्छे से देख लीजिये! फिर बताइये, कहाँ से बोझ लग रही हूँ मैं?….मैं भी किसी की बेटी ही हूँ, बेटा नहीं!….यह बात तो आप लोगों को पता है न!”  हमेशा शान्त रहने वाली डॉ. शैलजा की आवाज़ ऊँची हो गयी थी तैश में।

“आपकी बात और है जी!…. हम लोगन बहुते ग़रीब लोग हैं,….देर रात तक ऑटोरिक्शा चलाते हैं…तब कहीं जाकर मुश्किल से गुजारा होवे है!”

आदमी गिड़गिड़ाया।

“हाँ मेरी बात अलग है, सही कहा तुमने!…लेकिन तुमलोगों से बस थोड़ी सी ही अलग!”

बोलते हुए डॉ. शैलजा का स्वर विचारपूर्ण हो गया था। अतीत के झरोखे से झाँकती हुई सी वे बोलीं, “मेरे पिताजी सायकल रिक्शा खींचते थे, मेरी माँ लोगों के नये-पुराने कपड़े सिलती थी!….मैं अपने माँ-बाप की तीसरी बेटी थी! …मेरे जन्म के तुरन्त बाद, पैदा करवाने वाली दाई ने दोनों को इशारों में मशवरा भी दिया था छुटकारा पाने का….फिर भी उन्होंने मुझे जिन्दा रखा, भरसक पाला-पोसा और इस मुक़ाम तक पहुँचाया कि….मैं इतनी क़ाबिल हो चुकी हूँ आज!!”  थोड़ा रुक कर तीखी नज़रों से दोनों को देखती फिर बोलीं,

“…..इतनी क़ाबिल कि कोई बेटी इस दुनिया में आ पायेगी या गर्भ में ही मार दी जायेगी, इस बात का फ़ैसला कर सकूँ!”

शर्मिन्दगी के मारे दोनों पति-पत्नी की नज़रें झुक गयीं और सिर भी।

____________________________________________

स्वरचित, मौलिक

नीलम सौरभ

रायपुर, छत्तीसगढ़

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!