एक टुकड़ा ख्वाब – श्वेता शर्मा

भारत सरकार के द्वारा पूरे देश में आजादी का अमृत महोत्सव मनाया जा रहा है । इसी क्रम में मेरे विभाग को  कॉलेज के छात्रों के बीच एक प्रश्नोत्तरी करवाने का निर्देश हुआ । तो लग गयी हमारी पूरी टीम भारत सरकार के हुक्म को मानने मे। चूंकि आदेश सरकारी था सो सारे नियमित काम काज ठप्प करके लग गये हम सब इस कार्यक्रम को सफल बनाने में । मीटिंग के दौर चल निकले। चाय की चुस्कियों में कार्य का विभाजन, प्रतिदिन की प्रगति, आदि पर चर्चा होती । सीमित बजट में असीमित संभावनाओं को तलाशना था । मुझे काम मिला सांस्कृतिक कार्यक्रम को आयोजित करवाना और कॉलेजों से छात्रों की टीम लेकर आना । एक सरकारी कॉलेज से फोन पर बार बार संपर्क करने पर भी कोई सटीक उत्तर नहीं मिल पा रहा था । 

तब उस कॉलेज के प्राचार्य से मिलने का निश्चय किया । खैर, उनसे मीटिंग तय हुआ समय मिला सुबह 11 बजे । मैं ठीक 10.45 पर पहुँच गयी । प्राचार्य महोदय किसी से मीटिंग में व्यस्त थे । उनके सहायक ने मेरे आने की सूचना दी । मुझे प्रतीक्षा करने को कहा गया । मैं खिड़की से नीचे झांकने लगी। नीचे एन सी सी की ड्रिल चल रही थी । बिलकुल सामने मैदान था। बायीं ओर सेंट्रल लाईब्रेरी थी उससे लगा हुआ वाणिज्य संकाय। विचार क्रम में थे  तभी मेरा बुलाबा आ गया । अंदर एक सुलझे हुए,  बेहद सौम्य, गंभीर महोदय बैठे थे ।

 अनुभव की सफेदी उनके मस्तक से झांक रही थी । ज्ञान के प्रकाश से उनका मुख आलोकित था । वो मेरे प्राचार्य नहीं थे, पर न जाने क्यों मेरे दोनों हाथ ही नहीं जुड़े उनके  अभिवादन में अपितु सिर भी पूरी विनम्रता से झुक गया । मेरा इस प्रकार झुक जाना शायद उनको विस्मित कर गया। वे प्रत्युत्तर में उठ कर खड़े हो गये । उन्होंने मुझे बैठने का आग्रह किया । औपचारिक वार्ता के बाद उन्होंने मुझसे पूछा कि क्या मैं इस महाविद्यालय की छात्रा रह चुकी हूँ ? मैंने उत्तर दिया..”नहीं सर” । उन्होंने मेरे व्यक्तिगत जीवन के बारे में पूछना आरंभ कर दिया । खैर उनसे बात चीत करके मैं बाहर निकली । 

फिर मेरा मन हुआ कि कॉलेज का एक चक्कर लगाया जाये । वह सिर्फ एक चक्कर नहीं था । मैं 17 साल पीछे लौट गयी । उस एक चक्कर में मैंने जी लिए अपने जीवन के 5 साल जब मैं भी छात्रा थी। मेरा कॉलेज, मेरी लाइब्रेरी, साइकल स्टैंड, कैंटीन, पुस्तकें, लेक्चर, प्रोफेसर, सहेली, और जीवन का अनमोल समय जिसका सदुपयोग मुझे इस मुकाम तक ले आया । 17 साल तक सरकारी सेवा  करने के बाद भी आज उस कॉलेज में मैं खाली हाथ खड़ी थी । वहाँ पढ़ने वाले छात्रों के हाथ में पुस्तकें थीं । मुझे उनसे ईर्ष्या थी । मैं वहीं रुक जाना चाहती थी । किंतु मुझे लौटना था अपने वर्तमान में । मेरी आँखे नम थी । मैंने दोनों हाथ जोड़ कर दिल से प्रार्थना की, मुझे एक बार सिर्फ एक बार फिर से छात्र बना दो । यूँ तो अनेकों अधूरे सपने है, किन्तु यह सबसे कीमती सपना है ।काश कि मैं फिर से अपना यह सपना पूरा कर पाती। 

काश………….. 

मौलिक एवं अप्रकाशित

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