दामन – कंचन श्रीवास्तव

सभी जगह गंध मची हो खुद की तो चुप बैठना चाहिए, क्योंकि जितनी सफाई दोगे लोगों के मन में शंका और भी  पैठ बनाती जाएगी।

हां यही सच्चाई है क्योंकि दुनिया उधर भागती है जिधर भीड़ हो,अकेले चलने वाले के साथ कभी नहीं चलती,यह जानते हुए भी कि सच्चाई इसी के साथ है, क्या करें अकल पर पर्दा जो पड़ा होता है।

रीती ही दुनिया की ऐसी है कोई क्या करे,वो बात अलग है कि उसकी तरह ध्यान तब खिंचता है जब या तो एक कामयाब इंसान बन जाए या भलाई करते करते दुनिया से चला जाए,जिसका गुणगान बाद में उससे संभलने वाली जिंदगियां करती हैं।

पर अफसोस कि तब अपनी तारीफ सुन सके वो इस लायक ही नहीं होता।

कहते हुए अखबार किनारे रख  काकी उस ओर देखने लगी जहां लोगों के आने जाने का सिलसिला कभी थमता ही नहीं , बेचारी रिक्की चाय बनाते बनाते थक जाती है हां…….. हां…….हां……….. आप ग़लत मत समझिए हमेशा नहीं अभी कुछ सालों में ।अरे भाई अब तो बेधड़क दरवाजा खोलकर लोगों का स्वागत करती है।

कभी एक वक्त था जब कन्खियों से खिड़की से झांक लेती और भीतर से ही कह देती रमेश घर पर नहीं है ।और फिर इतना सुनते ही कर्जदारों,बे सी  वालों और लेनदारों की गालियों और  कड़वे शब्दों की बौछार और धमकियों घंटों चलता।

और वो बेचारा दुबका घर के किसी कोने में बैठा रहता।


एक रोज इन सबसे तंग आकर उसने शहर छोड़ने का फैसला किया ।हां…. हां…. गलत मत सोचिए साथ नहीं सबके।

अकेले वो भी तब जब जान की धमकी मिलने लगी

बाकी सब यही रहे, और वो कमाने बाहर चला गया।

फिर तो वो घर वालों से मिलने रात के अंधेरे में छुपके आता।

पर इसमें में लोगों को संतोष न हुआ और खबर लगते ही इसकी जासूसी करने लगे।

फिर तो इसने घर आना भी बंद कर दिया,और पैसे घर खर्च के लिए भेजता रहा।

फिर अच्छी मोटी रकम कमा कर घर लौटा तो लेनदारों को बुलाकर सबका बकाया चुकता किया।

ये देख सबकी नज़रें नीची हो गई।हो भी क्यों ना , बेइमान तो था नहीं वो मजबूर था तभी तो परिवार को नहीं ले गया वरना उन्हें भी ले जाता।

इस तरह समय बीतने लगा।

और एक दिन वो बीमार पड़ गया।हां बीमार और एक ऐसे  रोग से ग्रसित हो गया जिसका इलाज लम्बा चलना था।

ऐसे में परिवार वालों के साथ की  जरूरी थी।तो वो अपने काम पर पुनः: वापस कई महीने नहीं गया।

जब वो नहीं गया तो वहां से लोगों के फोन आने शुरू हो गए।पर मना होने के कारण फोन नहीं उठा तो लोग पता पूछ पूछ कर घर आने लगे।

आने वाला हर शख्स अपरिचित होता।


पर तारीफों के पुल ऐसे बांधता की पूछों ना,उन्हीं से तो पता चला कि ये सारे अपरिचित चेहरे ऐसे ही नहीं दिख रहे कहीं न कहीं किसी न किसी मोड़ पर जब ये निराश और असहाय होके उम्मीद छोड़ दिए थे तो रमेश ने इसकी शरीर से ही नहीं पैसे से भी मदद की और नई जिंदगी दी।

यही तो है लोगों के माप का पैमाना।

गर उनकी जरूरत तुम्हें पड़ जाए तो लोग पैरों की जूती समझते हैं।

पर यदि आप उनके काम आ जाइए तो लोग पूजते  नहीं थकते।

यही तो देख रही हूं वर्षों से कभी जिसको लोगों दरवाजे पर आके गालियां दे जाते थे ।आज उसी के दरवाजे पर भीड़ सिर्फ इसलिए है कि कभी वो कमजोर ईमानदार था।

और आज मजबूत ईमानदार है।तभी बालकनी से आवाज़ आई काकी आइए ना चाय ठंडी हो रही ।

और ये हाथ हिलाकर आती हूं का इशारा कर उस ओर चल पड़ी ।जिस परिवार को कभी इन्होंने प्यार ही नहीं बल्कि जरूरत के वक्त संभाला भी ,पर चुपचाप किसी को कानों कान खबर तक नहीं हुई।

क्योंकि सबसे पहले जब वो अपने घर लौटा तो जेवर साथ लेके लौटा वो जेवर जो कभी  गिरवी रखकर काकी ने कुछ पैसा उसकी जेब में ये कहकर डाले थे कि परदेश जा रहा है ले कुछ रखले किराया और  खाने के काम  आएंगे।

तो सबसे पहले इनका जेवर ही लाकर इनके हवाले किया था।आज सारी गंध खुशबू में बदल गई।

सिर्फ उसकी ईमानदारी के सहारे।

स्वरचित

कंचन श्रीवास्तव

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