सपनों की नई उड़ान- मुकेश कुमार

लक्ष्मी बचपन से ही  पढ़ाई करने में बहुत ही बुद्धिमान थी।  बड़ी होकर डॉक्टर बनना चाहती थी। वह अक्सर गांव में देखती थी कि सही तरीके से इलाज नहीं होने के कारण उसके गांव के लोग बीमारी से बहुत कम उम्र में ही मर जाते थे।   ख़ासकर की महिलाएं। लक्ष्मी के गांव के लोग गरीब थे उनके पास इतना पैसा नहीं होता था कि वह शहर जाकर इलाज करा पाए। कहा जाता है गरीब आदमी को सपने देखने का कोई अधिकार नहीं होता है और यही बात लक्ष्मी के साथ भी हुआ 12वीं की पढ़ाई कर रही थी उसी दौरान उसकी मां बाप ने जबरदस्ती लक्ष्मी की शादी कम उम्र में ही कर दिया।  लक्ष्मी ने अपनी मां बाप को लाख समझाया लेकिन उन्होंने अपने छोटे भाई बहनों की दुहाई देकर लक्ष्मी की शादी कर दी।

लक्ष्मी को  शादी से पहले यह भी नहीं पता था उसका पति करता क्या है बस इतना पता था कि उसका पति दिल्ली में नौकरी करता है।  शादी के बाद लक्ष्मी ने अपने पति से पूछा कि दिल्ली में आप क्या काम करते हो। पति ने कहा, “छोले भटूरे की दुकान में भटूरे बनाता हूं।” लक्ष्मी ने पूछा इस काम से महीने में कितना कमा लेते हो, उसके पति ने कहा यही कुछ 6-7 हजार रुपये।  लक्ष्मी ने कहा इस महंगाई के जमाने में सिर्फ 6-7 हजार से क्या होगा। तुम कोई दूसरा नौकरी क्यों नहीं करते हो आजकल तो किसी भी प्राइवेट कंपनी में भी 8 से 10 हजार तो आराम से मिल जाता है लेकिन लक्ष्मी के पति ने कहा कि मुझे कोई काम भी तो नहीं आता है।

एक दिन लक्ष्मी को पता चला कि उसका पति एक-दो दिनों में ही दिल्ली जाने वाला है।  लक्ष्मी ने अपने पति से कहा मैं भी तुम्हारे साथ चलूंगी दिल्ली। लक्ष्मी के पति महेंद्र ने कहा, “तुम दिल्ली जाकर क्या करोगी वहां तो मैं अपने दोस्तों के साथ रहता हूं, इसलिए कुछ पैसे भी बच जाता है तुम जाओगी तो सेपरेट रूम लेना पड़ेगा फिर तो एक रुपए भी नहीं बचेंगे और फिर घर पर भी पैसा भेजना होता है मां बाबूजी के लिए कैसे हो पाएगा।  

लक्ष्मी ने साफ शब्दों में कह दिया था मुझे नहीं पता अगर तुमने मेरे साथ शादी किया है तो मैं तुम्हारे साथ ही रहूंगी और मैं तुम्हारे साथ दिल्ली चलूंगी कुछ ना कुछ तो मैं भी कर लूंगी।

महेंद्र लक्ष्मी को बोला कि ठीक है पहले मुझे जाने दो मैं  अलग से वहां पर रूम किराए पर ले लूंगा तब उसके एक महीने बाद तुम आ जाना।



एक महीने बाद लक्ष्मी अपने पति महेंद्र के पास दिल्ली पहुंच चुकी थी।  एक झुग्गी झोपड़ी कॉलोनी में महेंद्र ने ₹1000 महीने पर एक कमरा किराए पर ले लिया था और दोनों पति-पत्नी वहीं पर रहने लगे।  अब उनका खर्चा भी बढ़ गया था पहले तो महीने में ₹3000 बचा लेता था। अब तो मुश्किल से ₹1000 भी नहीं बचता था। लक्ष्मी भी कुछ दिनों बाद आसपास के बच्चों को ट्यूशन देना शुरू कर दी थी उससे  लक्ष्मी भी 2 से 3 हजार महीना कमाने लगी।

ऐसे करते-करते 5 साल से भी ज्यादा बीत गया था अब तो लक्ष्मी और महेंद्र को एक 4 साल का बच्चा भी हो गया था  इसके बारे में सोच कर लक्ष्मी परेशान रहने लगी थी वह अपने बच्चे को अच्छे स्कूल में पढ़ाना चाहती थी ताकि उसे बड़ा आदमी बना सके लेकिन उसे समझ नहीं आता था वह कैसे यह सब करेगी क्योंकि आज 5 साल बाद भी लक्ष्मी और महेंद्र मिलाकर ₹10000 से ज्यादा नहीं कमा पाते हैं और फिर महंगाई भी इतना ज्यादा है।

लक्ष्मी सोचती थी कि वह अपने सपने को तो  दफन कर चुकी है लेकिन वह अपने बच्चों को अपनी वाली जिंदगी नहीं जीने देगी पढ़ा लिखा बड़ा आदमी बनाएगी।

एक रात में लक्ष्मी ने अपने पति से कहा  मैंने सुना है आप इतना अच्छा भटूरे बनाते हो, आप का दुकान जहां पर आप काम करते हो आसपास के एरिया में बहुत फेमस है।  लेकिन दुकान भले ही फेमस है लेकिन भटूरे तो आप ही बनाते हो मैं तो कहती हूं अपना खुद की छोले भटूरे की दुकान खोल लें।   महेंद्र बोला ज्यादा बड़े बड़े सपने क्यों देखती हो यह सब हमारे बस की बात नहीं है जो चलता है बस चलने दो ज्यादा अपना दिमाग मत चलाया करो।



इस बार लक्ष्मी मानने को तैयार नहीं थी और उसने महेंद्र को आखिर में मना लिया। उसके बाद महेंद्र  दुकान से नौकरी छोड़ दी और उन्होने एक सेकंड हैंड ठेला खरीदा। दिल्ली में ही एक मेट्रो स्टेशन के पास में अपना ठेला लगाने लगे।  शुरू में तो यह हालत हो गई पूरे दिन में 10 प्लेट से ज्यादा नहीं बिक्री होता था लक्ष्मी और महेंद्र को भी लगने लगा था कि निराश होकर दुकान बंद करना पड़ेगा।

एक दिन एक ग्राहक उसके दुकान पर छोले भटूरे खा रहा था और उसने बोला अरे तुम तो वही होना जो फेमस भटूरे की दुकान है वहीं पर काम करते थे।  महेंद्र बोला हां साहब मैं ही हूं। ग्राहक ने बोला तब तो तुम छोले भटूरे बहुत ही अच्छा बनाते होगे। उसके बाद उस ग्राहक ने अपने कई जानने वाले को भी इस बारे में बता दिया धीरे-धीरे महेंद्र का ठेला भी फेमस होने लगा और ग्राहक धीरे-धीरे बढ़ने लगे।

दोनों पति-पत्नी मिलकर दुकान को अच्छी तरह से से चलाने लगे।

लक्ष्मी दुकान के साथ साथ एक एनजीओ से भी जुड़ गई थी.  लक्ष्मी इस एनजीओ की सहायता से जिस झुग्गी झोपड़ी कॉलोनी में रहती है वहां पर ब्यूटीशियन और सिलाई कटाई का प्रशिक्षण केंद्र खोल दिया था और जो महिलाएं दिन भर घर में रहती थी उनको वहां पर लाकर ट्रेनिंग दिलवा ना शुरू कर दिया था।  जो थोड़ी पढ़ी-लिखी महिलाएं थी उनका द्वारा एक छोटा सा स्कूल भी ओपन करवा दिया था जहां पर झोपड़ी के बच्चों की पढ़ाई की जाती थी।

उनके पास बड़े-बड़े स्कूलों की तरह छत नहीं थी लेकिन पढ़ाई बिल्कुल ही प्राइवेट स्कूलों की तरह करवाई जाती थी।



कई बार लक्ष्मी को लोगों ने नीचा दिखाने की कोशिश भी किया बड़े बड़े सपने देखने से कुछ नहीं होता है जिसके किस्मत में जो लिखा होता है वही होता है।  लेकिन लक्ष्मी ने इन सब की परवाह नहीं की उन्होंने हमेशा बड़ा सोचा और धीरे-धीरे लोगों को प्रशिक्षित करना शुरू कर दी थी।

 धीरे-धीरे लक्ष्मी और महेंद्र के पास जब पैसे जमा हो गए तो उन्होंने मेट्रो के पास भी एक दुकान किराए पर ले लिया और अब अपनी छोले भटूरे की दुकान खोल दिया।  आमदनी भी पहले से ज्यादा बढ़ गया था लेकिन लक्ष्मी ने यह सोच लिया था वह अपने आमदनी का आधा पैसा सामाजिक कार्यों में लगाएगी।

लक्ष्मी अपने सपने तो पूरा कर ही रही थी साथ  में अपने आत्मविश्वास के कारण दूसरे लोगों के सपने को पूरा करने में भी सहायता कर रही थी।

अंत में मैं एक रामधारी सिंह दिनकर की कविता से इस कहानी को समाप्त करना चाहता हूं।

” सच है विपत्ति जब आती है कायर को ही दहलाती है,

शुरमा नहीं विचलित होते ,क्षण एक नहीं धीरज खोते”

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