“संघर्ष सफर का” – डॉ. अनुपमा श्रीवास्तवा

तालियों की गड़गड़ाहट से समूचा हॉल गूँज उठा। तभी माईक पर आवाज गूंजी……

डॉ. स्मृति आप यहां आयें और अपनी मंजिल आपने कैसे पाया कृपया उसके बारे में दो शब्द कहें ।

यहां उपस्थित सभी मेहमान तथा मेडिकल कॉलेज के छात्र आपके यहां तक के सफर और संघर्ष की कहानी आपकी ही जुबानी सुनना चाहते हैं।

डॉ स्मृति यानि (छुटकी )ने देखा सामने उसके ससुराल वाले बैठे हुए थे। बगल में पिताजी भी थे और उनके बगल में बुआ थीं जिनपर नजर पड़ते ही वह पल भर के लिए अतीत में खो गईं।

“कोने में बैठी पोथी -पतरा खोल कर क्या कर रही है छुटकी ?”

जो काम दिया था वह हुआ की नहीं अभी तक।”

बुआ की कर्कश आवाज सुनते ही छुटकी सहम गई। जल्दी से कॉपी कलम को अलमारी में कपड़े के नीचे छुपाया और दौड़ कर कमरे से बाहर आ गई। बुआ की आँखें लाल पीली हो रही थी। छुटकी ने झट कपड़े से भरी हुई बाल्टी उठाया और उसे फ़ैलाने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगी।

बुआ दहाड़ते हुए बोली -” जल्दी आना कपड़े फैलाकर,  बैठ कर तारे मत गिनने लगना समझी नहीं …तो सारा गणित  झाड़ दूँगी। “

“जी बुआ”

बारह साल की छुटकी सीढियां चढ़ते हुए सोच रही थी कि बुआ की समस्या क्या है?

पढ़ने के लिये ही तो लाई थी अपने साथ शहर में। ताकि मैं अच्छी तरह से पढाई कर सकूँ। तो फिर मुझे पढ़ते देख बौखला क्यूँ जाती हैं। मेरे कॉपी किताब से इतनी नफरत है कि देखते ही आग बाबूला हो उठती हैं।  जब तक पिताजी मेरे साथ यहां थे तब तक पढ़ने बैठो, पढ़ने बैठो करते नहीं थकती थीं और जब से वो गये हैं बुआ के तो तेवर ही बदल गये हैं।

कोई बात नहीं पिताजी ने कहा था कि मुझे पढ़ना है शहर में रहकर तो थोड़ा सहना पड़ेगा । छुटकी ने जल्दी-जल्दी कपड़े फैलाय और नीचे उतर गई। सुबह से कुछ खाया नहीं था सो पेट में चूहे कूद रहे थे।

“छुटकी सिंक में कुछ बर्तन पड़े हैं तू धोकर निकाल मैं तेरे लिए खाना निकाल लेती हूँ।”

छुटकी के छोटे-छोटे कंधे पहले से ही थके हुए थे सिंक में बर्तनों को देख आँखें भर गईं ।लेकिन क्या बोलती भूख लगी थी सो भीड़ गई बर्तनों के साथ।




पंद्रह-बीस दिनों में वह समझ गयी थी कि पढ़ाई की कीमत इतनी सस्ती नहीं है। धीरे-धीरे उसके ऊपर काम का बोझ बढ़ता गया। सुबह उठकर बुआ के इकलौते बेटे को स्कूल के लिए तैयार करने की जिम्मेदारी छुटकी पर थी जो उससे दो साल ही मात्र छोटा था। उसके नखरे इतने बड़े थे कि जिसको उठाते -उठाते छुटकी परेशान हो जाती थी ।

कभी-कभी तंग आकर वह रोने लगती थी तो बुआ कहती थी कि-” तुझे नहीं पढ़ना  है तो बोल भाई को बुलाकर गाँव भिजवा देती हूँ।”

छुटकी झट अपने हाथों से अपना आंसू पोंछ लेती थी। उसे अपने पिताजी का मान जो रखना था। उसे पढ़ लिख कर डॉक्टर बनना था। तभी तो वह किसी की माँ को बचा पाएगी। वह सोचने लगती गाँव में डॉक्टर ही तो नहीं था वर्ना आज मेरी माँ जिंदा होती! मेरी प्यारी माँ!!

एक दिन उसने सकुचाते हुए कहा-” बुआ आप मेरा भी नाम सोनू के स्कूल में लिखवा दो। मैं भी उसके साथ इंग्लिश स्कूल में पढ़ने जाऊँगी। “

सुनते ही बुआ की भृकुटी तन गई ।

बुआ छुटकी की ओर देख कर बोलीं-” बचपन से मनोहर पोथी पढ़ा है न तूने, तुझे क्या पता कि इंग्लिश क्या होता है जो इंग्लिश स्कूल में पढ़ेगी। सोनू की नकल करने की जरूरत है क्या? गांव से तुझे यहां बुला लिया वही बहुत है। साल भर घर में ही पढाई कर अगली बार सोचूंगी। “

छुटकी बुआ के आश्वासन पर जी जान लगाकर सारा काम करती और मौका मिलते ही सोनू की किताबों से पढ़ने की कोशिश करती।  उसकी आंखों में सोनू के जैसे  स्कूल ड्रेस पहन कंधे पर बैग लटकाये स्कूल जाने के सपने थे। दो साल बीत चुके पर उसके एडमिशन के लिए अगली बार कभी नहीं आया। उस समय फोन की सुविधा न के बराबर थी।  फिर कैसे वह अपने पिता से दिल की बात करती। वैसे भी माँ थी नहीं, पिताजी आर्मी में थे और उसमें भी उनकी पोस्टिंग दूर -दूर होती रहती थी। तभी तो उन्होंने छुटकी को बहन के पास पढ़ने के लिए रख छोड़ा था।

पिताजी जब भी मिलने आते तो बुआ छुटकी की हजारों कमियां गिनाने लगती। कहती कि भईया यह पढ़ना ही नहीं चाहती है। अगली बार कोशिश करूंगी नाम लिखाने की। छुटकी बुआ की नीयत देख अचंभे में पड़ जाती।




गाँव में दादा दादी थे। वे छुटकी पर लार- प्यार लुटाते थे पर पांचवीं के बाद स्कूल नहीं भेज पाये क्योंकि छठी के बाद स्कूल गाँव से दूर हो गया था। छुटकी की पढ़ने की जिज्ञासा देख उन्होंने ही पिताजी को तैयार किया था कि छुटकी को बुआ के पास रख दे। 

एक दिन गर्मियों में अचानक से पिताजी बुआ के घर मिलने आ पहुंचे देखा तो छुटकी बरामदे में पोछा लगा रही थी। उन्हें समझते देर नहीं लगी। उन्होंने बिना कुछ कहे छुटकी को लेकर सीधे गाँव आ गये। उसके बाद छुटकी की पढ़ाई- लिखाई लगभग ठप सी होने गई । 

अठारह साल होते -होते वह शादी के बंधन में बंध गई। ससुराल भी जेल से कोई कम नहीं था। उनलोगों को बिन माँ की बच्ची बहू नहीं एक आया मिल गई थी।चौबीस घंटे काम ही काम। अपने लिए उसके  पास चार घंटे सोने के अलावा कोई वक्त नहीं था।

 लेकिन कहते हैं न कि किसी चीज की चाहत हो तो पूरी कायनात तुम्हारा साथ देने के लिए तैयार रहती हैं। छुटकी को सास के  रूप में साक्षात माँ मिली थी। उन्होंने उसकी इच्छाओं को समझ लिया था। सारे परिवार को दरकिनार करते हुए उन्होंने छुटकी का हौसला बढ़ाया उसे उसके सपनों को पंख दिया। जब भी कोई उसका विरोध करता वह दीवार बनकर खड़ी हो जातीं। कई बार वह बहू की पढ़ाई के लिए बेटे से भी लड़ चुकी थीं। 

भगवान ने वक्त से पहले उन्हें भी उठा लिया। एक बार फिर छुटकी छाया विहीन हो गई। पर उसने हार नहीं मानी और  अपना  संघर्ष जारी रखा। छुटकी के संघर्षो ने उसे मंजिल तक पहुंचने में अहम भूमिका निभाई और आज वह एक डॉक्टर के रूप में यहां  खड़ी है। पिछे से किसी ने उसके कान में कुछ कहा। छुटकी  जैसे भूत से वर्तमान में वापस आई। उसने सबसे पहले सभी का अभिवादन किया और बोली-” मंजिल तब और प्यारा लगता है जब रास्ते कठिन हो।”

 उसने एक नजर सामने  बैठे रिश्तेदारों पर डाला और  बोली-“मेरे संघर्षों की कहानी भी कुछ ऐसी ही है लेकिन मैंने रास्ते की कठिनाइयों पर नहीं बल्कि मंजिल पर अपना ध्यान केंद्रित रखा।

धन्यवाद ।”

स्वरचित एवं मौलिक

डॉ अनुपमा श्रीवास्तवा

मुजफ्फरपुर, बिहार

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