संवेदनहीन दुनिया – संजय मृदुल

#जादुई_दुनिया

आरव नींद में कसमसा रहा है, एक साई फाई फ़िल्म देखी है सोने के पहले, बंद आंखों में कुछ तैर रहा है।

इक्कीसवीं सदी का पचासवाँ दशक, भारत का नक्शा बदल गया है। समुद्र के किनारे के अधिकांश शहर सागर तल में जा मिले हैं। अधिकांश धरती रेगिस्तान में बदल गयी है। लोग पहाड़ों पर जा बसे हैं। हिमालय की कोई भी ऐसी चोटी नही हैं जहां शहर न बसा हो। जो हिमालय कुछ दशक पहले दुर्गम माना जाता था वह आज हवाई मार्ग से यूँ जुड़ गया है कि छोटे छोटे विमान कारों की तरह आकाश में दिखाई देते हैं। पहाड़ों से निकलने वाली नदियों पर बांध बने हुए हैं जिनसे बिजली और पानी की व्यवस्था शहरों के लिये की गई है। जंगल पूरी तरह साफ हो चुके हैं। ग्लेशियर इस गति से पिघले की गंगा जमुना के किनारे बसे शहर तबाह हो गए और असंख्य मौतें भी हुई।

देश की जनसंख्या बमुश्किल एक करोड़ है जिसमे से आधे बुजुर्ग हैं। सारा देश टेक्नोलॉजी के सहारे चलता है। न कोई संसद न कोई जनतंत्र। सब कुछ तकनीकी पर निर्भर है, लोगो का जीवन, काम दिनचर्या सब कुछ। लोग घर से काम करते हैं, ऐसा जरूरी नहीं कि यहां रहने वाला यहीं काम करे, वो घर बैठे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया की नौकरी कर सकता है। देश, भाषा, जाति, धर्म की कोई सीमा बंधन नही है। 

आरव अब बुजुर्ग हो गया है और बेटा बहू और पोते के साथ कुछ साल पहले ही यहां आए हैं। आरव के लिए इस तरह जीना आसान नही है।पहाड़ों के बीच एक सौ मंजिला इमारत की पिचासी मंज़िल के फ्लैट में रहने वाला ये परिवार आरव के बेटे का है। सारा दिन पति पत्नी काम करते हैं। पोता अभी कॉलेज की पढ़ाई कर रहा है। 



कोई किसी से बात नही करता, सब अपने में व्यस्त। रोबोट की सहायता से घर का सारा काम हो जाता है। सब अपने अपने कमरे में रहते जीते हैं।

आरव को वो बीते दिन याद आते हैं। देश के मध्य में नदी किनारे बसे शहर में उनका घर, मोहल्ला, और अपने से लगने वाले लोग। सारा दिन चहल-पहल, चिल्ल पों करता शहर कितना अच्छा लगता था। मानवता थी जहां, थोड़ी इंसानियत भी थी। फिर एक दिन रातो-रात सब बदल गया। शहर के शहर नष्ट हो गए। जो बचे उनका कोई आसरा न था। सरकार पूरी तरह नाकाम, व्यवस्था पंगु। जो सक्षम थे वो इसी तरह का जीवन जीने के लिए आ गए और बाकी लोगो को मरने के लिए छोड़ दिया गया।

अपने लोगो की याद, उनकी आवाज़ बुलाती है उसे। वो शहर वो गलियाँ खिंचती हैं अपनी ओर। उनके लिए ये घर जेल की तरह है, बस जी रहे हैं।

एक सुबह काफी समय के बाद जब बालकनी से धूप देखी उन्होंने, मन हुआ धूप का आनन्द लिया जाए। लिफ्ट से नीचे आ गए। रोबोट गार्ड ने जरूरी औपचारिकता पूरी कर हिदायत दी कि खुले में न जाएं, उनकी उम्र के लिए ठंड सही नहीं है।



बिल्डिंग के बाहर ग्लास हाउस में बैठे वो बाहर देखते रहे, उनकी नजर बर्फ से ढंके हुए चट्टान की दरार से झांकते हुए एक छोटे से पौधे पर पड़ी।

उन्हें लगा ये बाहर रहा तो निश्चित ही मर जाएगा। गार्ड की चेतावनी को अनदेखा करते हुए धीरे से वो बाहर निकले। माईनस टेम्परेचर में वो पहाड़ी पौधा बर्फ में भी सर उठाये खड़ा था, मानो मरना नही है उसे ये तय कर लिया है उसने। जैसे-तैसे उन्होंने उसे निकाला और वापस आ गए। 

सीधे अपने कमरे में जाकर एक गमले में लगाया और उसे अपने साथ लेकर आराम  कुर्सी में बैठ गए। पौधे की नर्माहट उसकी महक उन्हें जीवन का अनुभव करा रही थी।

रात जब देर तक वो कमरे से बाहर नहीं आये तो बेटे ने झांक कर देखा, वो उसी आराम कुर्सी में मरे पड़े थे। पौधा उनकी गोद में था, उनकी अधखुली आंखों में चमक थी, शायद उस पौधे को जीवन दान देने की।

बेटे ने सिक्युरिटी ऑफिस में फोन लगाया। उनके अंतिम संस्कार के लिए आवश्यक कार्यवाही करने के निर्देश दिए और जाकर सो गया।

आरव की नींद खुल गयी। पसीने में डूबा आरव भविष्य को सपने में देख कर डरा हुआ था। क्या सचमुच भविष्य ऐसा होगा?

संजय मृदुल

मौलिक एवम अप्रकाशित

रायपुर

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