खुशियों की बहार – पुष्पा जोशी

जिंदगी बहुरंगी होती है, सुख-दु:ख का मेला है.मनुष्य सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहता है.कई बार समझ ही नही पाता कि सच्चा सुख कहाँ है?कहाँ मिलेगा? उसकी तलाश में भटकता रहता है,  जैसे वह नायाब हीरा हो और उसे वह खोज रहा हो.कई बार इस खोज में ही सारी जिन्दगी बीत जाती है, क्योंकि समय तो अपनी रफ्तार से चलता है.कुछ ऐसी ही जीवन गाथा है हमारे गिरिराज बाबू की.एक  गरीब परिवार में जन्में गिरिराज बाबू के माता,पिता मजदूरी करते थे, और अपने तीनों बच्चों की परवरिश कर रहै थे. गिरिराज बाबू की दो बड़ी बहनें थी और बहुत मान मंगत के बाद गिरिराज बाबू का जन्म हुआ. उन्हें अपने माता पिता और बहनों का बहुत प्यार  मिला.मगर, वे धन के अभाव को जिन्दगी का दु:ख समझते रहै.कभी उस खुशी को महसूस ही नहीं कर सके जो परिवार के प्रेम से उन्हें मिल रही थी.

वे मन लगाकर पढ़ाई करते, उन्हें एक ही जुनून था कि पढ़ लिखकर अच्छी नौकरी कर बहुत पैसे कमाएंगे और जिन्दगी में पैसो का अभाव कभी नहीं आने देंगे.उनकी मेहनत रंग लाई और वे उच्चत्तर माध्यमिक विद्यालय में उच्च श्रेणी शिक्षक बन गए, अच्छा सरकारी वेतन मिलता था, मगर सुकून से कभी नहीं बैठे, दो, तीन शिफ्ट में बच्चों की ट्यूशन करते, न समय पर खाते न पीते बस पैसो के पीछे भागते रहै.उनका विवाह हो गया था, सुन्दर सुशील पत्नी थी सुलेखा. दो होनहार बच्चे थे विपिन और नितिन. माता,पिता का देहान्त हो गया था.

कई बार उनकी पत्नी और बच्चे उनसे कहते कि वे, घर में परिवार के साथ समय बिताए, कुछ आराम करें, सब कुछ तो है हमारे पास .मगर, वे नहीं मानते बच्चों की सुख सुविधा के साधन जुटाने की लगन में वे ये भी भूल गए कि बच्चों  का लगाव उनसे कम हो रहा है.बच्चें उनका सानिध्य चाहते थे.घर में किसी बात की कमी नहीं थी. दोनों बच्चों की नौकरी लग गई.उनका विवाह भी गिरिराज बाबू  ने बड़ी धूमधाम से किया. सबकुछ था उनके पास मगर फिर भी वे असंतुष्ट रहते, हर खुशी उनके हाथों से फिसलती जा रही थी.





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दोनों का तबादला महानगर में हो गया.वे वहीं बस गए. जब तक उनकी पत्नी थी, तबतक बच्चों का आना-जाना चलता रहा.माँ के साथ उनका दिली जुड़ाव था. पत्नी के देहांत के बाद तो वे साल दो साल में कभी आते हैं.बस कुछ सामान्य सा वार्तालाप होता.गिरिराज बाबू की शारिरिक क्षमता भी कम होती जा रही थी, वे चाहते कि उनके बेटे उनके पास बैठे, बातें करें.मगर, न कभी वे उनसे कह पाए और न बच्चे समझ पाऐ.और जिन्दगी    यूँही  चलती रही.शासकीय पद से निवृत्ति के बाद पैसो की कमी बिल्कुल नहीं थी.अच्छी पेंशन मिलती थी, मगर एक खालीपन पसरा हुआ था उनके चारों ओर

    आज मन कुछ भारी हो रहा था, मंदिर दर्शन करने के लिए गए. गिरिराज बाबू न ज्यादा पूजा पाठी थे और न नास्तिक थे.वे हमेशा सिर्फ दर्शन करते थे कभी ईश्वर से कुछ नहीं मांगा.आज उनकी ऑंखें नम थी, उन्होंने ईश्वर से प्रार्थना की कि वे उन्हें सुकून प्रदान करे.

दर्शन करने के बाद वे मंदिर के बाहर बगीचे मे बनी बैंच पर बैठ कर कुछ विचार कर रहै थे, तभी उनकी नजर एक फटेहाल व्यक्ति पर पड़ी उसका चेहरा दमक रहा था.उसके हाथ में एक प्लेट में दो समोसे थे.वह उस बैंच के पास लगे छायादार पेड़ के नीचे बैठकर कर उसे खाने ही वाला था, कि एक छोटा सा बालक रोता हुआ उसके पास आया,बहुत भूखा नजर आ रहा था, उस व्यक्ति ने वे समोसे उसे दे दिऐ वह बालक बहुत भूखा था, उसने तुरन्त उन समोसो को खा लिया,उसके चेहरे पर तृप्ति के भाव थे और वह व्यक्ति भी प्रसन्न नजर आ रहा था .यह वही बालक था जो कुछ देर पहले गिरिराज बाबू से पैसे मांग रहा था, कह रहा था कि वह बहुत भूखा है, पैसे होते हुए भी उन्होंने उसे भगा दिया था..

उत्सुकतावश गिरिराज बाबू ने उस व्यक्ति से पूछा -‘यह बालक कौन था, क्या तुम इसे जानते हो?’  ‘नहीं, पर आप क्यों पूछ रहे हैं?’. ‘वैसे ही पूछ लिया.’  ‘यही सोच रहे हैं ना कि अब मैं क्या खाऊँगा?’ फिर कुछ रूककर बोला बाबूजी मैंने जिन्दगी के कई रंगों को देखा है. भूख को करीब से महसूस किया है, वह बालक मुझसे ज्यादा भूखा था,उसकी ऑंखें बता रही थी.उसे खिलाकर मैं संतुष्ट हूँ.कुछ देर बाद हम मंदिर के कर्मचारियों को भोजन मिलेगा, मैं वह खा लूंगा. मगर उस बच्चे को पता नहीं कब कुछ खाने को मिलता.’ उसकी आवाज में खुशी थी.





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गिरिराज बाबू के मन में जिज्ञासा हुई उसके बारे में जानने की.उन्होंने पूछा -‘क्या अपने बारे में कुछ बताओगे मुझे? ‘

‘जरूर बताऊँगा बाबूजी, मैं पास के गाँव किसौनी का रहने वाला हूँ. मेरे माता पिता खेती बाड़ी का काम करते थे,ज्यादा जमीन नहीं थी एक बड़ा भाई और एक बहिन, सब मिलजुलकर प्यार से रहते थे. बहिन की शादी हो गई, वह अपने परिवार में खुश थी.अभावों से भरी जिंदगी थी हमारी.जिस वर्ष फसल अच्छी नहीं होती, भूखे रहने की नौबत आ जाती मॉं कही से कुछ उधार लेकर पहले हम बच्चों को खिलाती.माता-पिता की छत्रछाया में मुझे अपनी जिंदगी हमेशा खुशनुमा लगती. माता-पिता कब तक साथ देते उनका देहांत हो गया.बड़े भैया की शादी हो गई, भाभी को मैं कांटे की तरह खटकता था,

भैया का प्यार तो था मगर वे भी, भाभी के व्यवहार के कारण परेशान रहते.मुझे सुकून नहीं मिल पा रहा था, मैं उस गॉंव को छोड़ कर, यहाँ आ गया.एक सज्जन ने इस मंदिर में काम दिलवा दिया.मैं यहाँ साफ सफाई का काम करता हूँ, रहने के लिए एक कमरा है, जो वेतन मिलता है आराम से जिंदगी चल रही है.और रिश्तेदार? मंदिर में आने वाले हर व्यक्ति से मेरे दिल का रिश्ता है, किसी को काका, किसी को मामा किसी को भुआ बना लेता हूँ, सब मुझे प्यार करते और मैं सबसे रिश्ता रखता हूँ.बाबूजी जिन्दगी से बस यही सीखा है हर हाल में खुश रहो.खुशी का स्तोत्र तो हमारे अन्दर ही है, उसे बाहर कहॉं ढूंढने जाऐ.आज आपसे बात करके बहुत शांति मिली, आपका समय जरूर खराब किया मैनें. एक बात कहूँ बाबूजी क्या मैं आपको भाई कह सकता हूँ,कभी-कभी भाई की याद बैचेन कर देती है.’

‘जरूर कह सकते हो, आगे से मुझे भाई ही कहना.’

गिरीश बाबू के हाथ जोड़ कर वह व्यक्ति चला गया, मंदिर के कर्मचारियों के भोजन करने की घण्टी बज गई थी.

गिरिश बाबू के दिमाग की घण्टी बज रही थी.वे पूरी जिंदगी विद्यार्थियों को पढ़ाते रहै, मगर सही जिंदगी जीने का पाठ आज इस व्यक्ति ने उन्हें समझाया.कुछ नहीं हैं उसके पास मगर फिर भी कितनी खुशी से जी रहा है वह. और एक वे हैं, इतनी बड़ी हवेली, बैंक बैलेंस फिर भी उदास हैं.आज मंदिर में ईश्वर ने उनकी फरियाद सुनी.उनका मन शांत था, उनकी जीवन दृष्टि ही बदल  गई थी.घर जाने के बाद उन्होंने सिर्फ दो कमरे और कुछ जरूरी सामान अपने लिए रखा और बाकी एक प्राइमरी स्कूल के लिए दान में दे दिया.उन्हें सबका प्यार और सम्मान मिल रहा था. छोटे-छोटे बच्चों की किलकारियों से वह घर गूंजने लगा, उचित रखरखाव से घर के आगे लगे छोटे से बगीचे के फूल भी महकने लगे .और गिरिराज बाबू की जिंदगी में भी जैसे खुशियों की बहार आ गई थी.

प्रेषक-

पुष्पा जोशी

स्वरचित, मौलिक, अप्रकाशित, अप्रसारित

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