चाचा की चाल – मुकुन्द लाल

 हितेश जैसे ही कंपनी के दफ्तरर से ड्यूटी करके लौटा तो देखा कि डेरा में खामोशी छायी हुई है। उसकी पत्नी भूमिका जो दरवाजे के पास उसके इंतजार में मौजूद रहती थी, वह बेड-रूम में पड़ी हुई है और उसके चेहरे पर क्रोध की लकीरें उभर आई है।

  उसने उसकी खुशामद करते हुए उसकी कलाई पकड़ ली, फिर उसने कहा, ” क्या बात है?… मुझसे कोई गलती हो गई है क्या?”

  एक झटके से अपनी कलाई छुड़ाते हुए कहा,

“गलती तो मुझसे हुई है, जो तुम्हारी हर बातों को मानती गई। और तुम्हारे चाचा, जिसको तुम देवतुल्य समझते हो, उनके ऐसे विचार जानकर क्रोध नहीं आएगा तो क्या खुशी होगी, जो जमीन विरासत में मिली है, उस पर हमलोगों का भी हक बनता है। जमीन के बंटवारे के मुद्दे पर उनकी नीयत में खोट है। “

 ” ऐसी बातें हैं!… खैर छोङो!…चाय-वाय पिलाओ, फिर बातें करते हैं इस संबंध में। “

  वह तमककर उठी और किचन में चली गई। वह कपड़े बदलने लगा।

  कुछ मिनटों में ही वह चाय बनाकर ले आई। चाय की प्याली हाथ में पकड़ाते हुए उसने हितेश से कहा,” तुम्हारे चाचा की जुबान जितनी मीठी है न दिल उतना ही कड़वा है। धूर्त हैं। उनका तुम्हारे प्रति स्नेह की चाशनी में पगा हुआ व्यवहार मात्र दिखावा है, ढोंग के सिवाय कुछ नहीं है। उनके आचरण से स्वार्थ की बू आती है। उनका नाम रमाकांत नहीं कैंचीकांत होना चाहिए।”

  “चुप!.. बिना मतलब के बक-बक कर रही हो। एक शरीफ आदमी के बारे में ऊल-जलूल बक रही हो। मेरे चाचा बड़े दयालु और परोपकारी आदमी हैं। वह दूसरों की भलाई के सिवाय बुराई सोच ही नहीं सकते हैं। तुम्हें भ्रम है उनके बारे में, भलाई उनके खून में रची-बसी है। “




 ” वाह! वाह!…कमाल है। मुझे तो खबर मिली है कि तुम्हारे करिश्माई चाचा अपने जादूई शब्दों के इन्द्रजाल में आदमी को फांँसकर ऐसा बेबस बना देते हैं कि उसको उनका जिन्दगी भर गुण-गान करने के सिवा कोई चारा नहीं होता है। यही उनकी सबसे बड़ी खासियत है। आप प्रारम्भ से ही धोखा खाते आ रहे हैं। फिर भी आंँखें नहीं खुली है। जब सब कुछ लुट जाएगा, जमीन, खेत-खलिहान, सब हाथ से निकल जाएगा तब हाथ मलकर रह जाइएगा। “

  बात-चीत के शोर में उसका सोया हुआ छोटा बच्चा जागकर रोने लगा। भूमिका अपने बच्चे को गोद में लेकर चुप कराने लगी।

  रमाकांत शहर में एक दफ्तर में सर्विस करता था। दो दशक पहले जब वह दशहरे की छुट्टी में गांँव गया था तो दो-चार दिन गांँव में ठहरा था। उस बीच उसने अपनी जमीन और खेत-खलिहान का मुआयना किया था जो बटाई पर दिये गए थे। लौटते वक्त अपने छोटे भाई भुवनेश के पुत्र हितेश को अपने साथ शहर ले आया था, यह कहकर कि यहाँ रहने से उसका करियॅर बर्बाद हो जाएगा। उस पिछड़े हुए गांँव में पढ़ाई-लिखाई की भी उचित व्यवस्था नहीं है। वहांँ उसके दोनों पुत्रों और पुत्री के संरक्षण में उनके साथ पढ़ेंगे। वह तरक्की करेगा। वह भी उसको हर तरह से सहयोग करेगा। भतीजा और बेटा में क्या अंतर है, कुछ भी नहीं। सारी सुख-सुविधाएं जो वह अपने बच्चे को देता है, वह उसको भी मिलेगा।

  भुवनेश को मात्र एक पुत्र और एक पुत्री थी। खाने-पीने की किसी प्रकार की दिक्कत नहीं थी। किसी चीज की कमी भी नहीं थी। वह नहीं चाहता था कि उसका पुत्र उनके नजरों से दूर रहे किन्तु उसके बड़े भाई ने प्रभावशाली तरीके से समझाया, बच्चे के स्वर्णिम भविष्य का ऐसा सब्जबाग दिखाया कि वह विवश हो गया कलेजे पर पत्थर रखकर रमाकांत के साथ शहर भेजने के लिए।




  शहर में पहुंँचने के बाद सबसे पहले एक स्कूल में हितेश का नामांकन करवा दिया। उसके दोनों पुत्र और एक पुत्री अपनी-अपनी उम्र के अनुसार अगली कक्षाओं में पढ़ रहे थे।

  कुछ दिनों तक तो वह भी उसके पुत्र की तरह स्कूल जाता था और घर में भी पढ़ाई करता था किन्तु उसके बाद उसके चाचा और चाची मृदुला उससे छोटे-मोटे काम करवाने लगे। वर्ष-दो वर्ष लगते-लगते उसे घर की साफ-सफाई, पालतू कुत्ते के मल-मूत्र की सफाई और अन्य घरेलु कामों की जिम्मेवारी उसके सिर पर आ गई। जब उसने एक बार काम नहीं किया तो मृदुला ने उसके सामने एलान कर दिया, पहले काम तब भोजन और पढ़ाई, जबकि उसके चचेरे भाई-बहन कोई काम नहीं करते थे। वेलोग पढ़ाई करने में ही अधिक से अधिक समय व्यतीत करते थे। उनके लिए काम करने का कोई नियम नहीं था। ऐसी स्थिति में असंतुष्ट हितेश और भाइयों में मन-मुटाव होता रहता था काम नहीं करने के मुद्दे पर, जिसको वाक्-पटुता से अक्सर सुलझा लिया करता था हितेश को सांत्वना देकर।

  उसने हितेश को समझा-बुझाकर शिक्षण-संस्थानों में गार्जियन(पिता) के काॅलम में अपना नाम लिखवा दिया था यह तर्क देकर कि स्कूल में काम पड़ने पर बार-बार भुवनेश को बुलाना, कष्ट देना ठीक नहीं है। वह ही उसके बदले सारे आवश्यक कामों को संपन्न कर देगा लेकिन उसकी आंतरिक मंशा पिता- पुत्र में दूरी बनाए रखना था।

  पांँच-दस वर्षों के बाद दुनिया जानने लगी कि हितेश रमाकांत का तीसरा छोटा पुत्र है।

  कलांतर में स्नातक करने के बाद वह अपने माता-पिता को लगभग भूल ही गया। मात्र उसके दिमाग में उनकी यादों की हल्की सी परछाईं भर रह गई थी। उसके माता-पिता की जगह चाचा-चाची ने ले ली थी। वह न तो अपनी माँ और न अपने पिता की खोज-खबर लेता। लोग-बाग प्रायः कहते कि रमाकांत इतना चालाक और धुरंधर है कि वह हितेश को कौन लकड़ी सुंघा दिया है कि वह अपने चाचा को ही हमेशा भजता रहता है।

   रमाकांत के दोनों पुत्रों को नौकरी लग गई। बड़े पुत्र को दूसरे शहर में और दूसरे को वहीं के एक शिक्षण-संस्थान में।




  भतीजा नाखुश नहीं हो इसको ध्यान में रखते हुए उसने एक स्थानीय प्राइवेट कंपनी में उसको भी नौकरी लगवा दी। 

  साल-दो साल के अंदर उसके दोनों पुत्रों,पुत्री और हितेश की भी शादी हो गई।

  दशकों बाद शादी के उपरांत वह वहीं अलग डेरा लेकर अपनी पत्नी के साथ रहने लगा मकान बनने की प्रत्याशा में। 

  गांँव में रमाकांत और भुवनेश के बीच घर-मकान और खेतों का बंटवारा तो बहुत पहले ही हो चुका था परन्तु पन्द्रह कट्ठा के एक जमीन का एक प्लॉट जो गांँव से पांँच-सात किलोमीटर की दूरी पर था, उसका बंटवारा नहीं हुआ था।

  जब सरकारी पक्की सड़क उस जमीन के बगल से गुजरने लगी और शहर का फैलाव उस इलाके में होने लगा तो हजारों रुपये कट्ठे वाली जमीन का भाव लाखों रुपये कट्ठे हो गये। सड़क के बगल की जमीन का भाव आसमान छूने लगा। वहाँ पर की जमीन के मालिक बैठे-बैठे करोड़पति हो गये।

  जब रमाकांत को इसकी जानकारी हुई तो वह तुरंत गांँव पहुंँच गया जमीन को बांटने की नीयत से। उसने अपने भाई के सामने जमीन के बंटवारे का प्रस्ताव रखा।  उसने यह भी कहा कि हमलोगों के कुल तीन लड़के हैं इसलिए जमीन तीन बराबर-बराबर हिस्सों में बंटनी चाहिए। भुवनेश ने हृदय-रोग से ग्रस्त होने का वास्ता देकर कहा कि इस संबंध में वह उसके पुत्र से ही बात-चीत करे। उसकी पत्नी ने भी अपने पति की बातों का समर्थन किया।

  भुवनेश ने सारी बातों की जानकारी विस्तार से मोबाइल के माध्यम से हितेश को दे दी।

   जब रमाकांत को वहाँ से निराशा हाथ लगी तो वह पुनः लौटकर हितेश को राजी करने के लिए शहर लौटकर चला आया। 

  जब इस बात की जानकारी भूमिका को हुई कि चाचा ससुर जमीन को तीन हिस्सों में बांटना चाहते हैं तो उनके प्रति दिल में गुस्सा उमड़ने लगा जिसको उसने नियंत्रित कर लिया था सुबह हितेश को ड्यूटी पर जाने के कारण।

  जब वह ड्यूटी पर से लौटा तो सारा गुस्सा अपने पति पर निकाल दिया। 

  “सुन लीजिए!… अगर बात-चीत से मसला हल नहीं हुआ तो कोर्ट जाएँगे। अदालत के कटघरे में जब चाचाजी को खड़ा होकर जवाब देना पङेगा तब समझ में आएगा” उसने आवेश में कहा।

  “तुम शांत रहो, इसकी नौबत नहीं आएगी।”

  “आप जैसे ही सीधे-साधे और भोले-भाले मेरे ससुरजी भी हैं, इसी का चाचा ससुरजी नाजायज फायदा उठाना चाहते हैं। चाचाजी की चाल में फंँसकर आप जीवन भर धोखा खाते रहे हैं, उन पर विश्वास करके। “

 ” आज मैं जो कुछ हूँ, उनकी बदौलत ही हूँ। “

 ” यही तो आपकी भूल है, कैसे समझावें आपको, हे भगवन, इनको ज्ञान दीजिए परिस्थितियों को समझने का। कभी सोचा है आपने पन्द्रह कट्ठे जमीन में आधे के हम हकदार हैं। तीन हिस्सों में बंँटने पर मुझे सिर्फ पांँच कट्ठे मिलेंगे। जबकि चाचाजी दस कट्ठे के मालिक बन जाएंँगे बिना मेहनत मशक्कत के कितनी आसानी से करोड़पति बन जाएंँगे… आप हाथ मलते रह जाइएगा। “

    उस दिन गांँव से लौटकर रमाकांत और उसका छोटा लड़का सीधे हितेश का डेरा पहुंँच गया। हितेश ने चाचाजी का चरण-स्पर्श किया। उनकी आवभगत की, आदर-सत्कार किया। चाय-नास्ता की औपचारिकता के बाद बात की शुरुआत रमाकांत ने की। उन्होंने कहा कि वह हितेश के प्रति अपने पुत्र से ज्यादा स्नेह रखता है। बचपन से लेकर स्नातक की डिग्री हासिल करने तक वह मेरे संरक्षण में रहा। ईश्वर करे वह दिनों-दिन तरक्की करता जाए, मैंने सदा उसको तीसरे पुत्र का दर्जा दिया है… “

  ” तो चाचाजी!… अब आप जमीन को तीन हिस्सों में बांटकर उसकी कीमत वसूल करना चाहते हैं? “

 ” ऐसा क्यों कहती हैं बहू!… इस तरह का बर्ताव करना आपको शोभा नहीं देता है, कुछ लाज-लिहाज आपके पास है या उसकी तिलांजलि दे दी है आपने। “




 ” आप बटवारा नहीं सौदेबाजी करना चाहते हैं, आपने हितेश जी को पढ़ाया-लिखाया तो हर बच्चे को उसका बाप-चाचा ही न पढ़ाता है।”

 ” देख रहे हो न हितेश, कैसी बातें कह रही हैं, कुछ भी शिष्टाचार नहीं जानती हैं कि कैसे बड़ों के साथ बात-चीत की जाती है” उसने तल्ख आवाज में कहा।

  कुछ क्षण तक सभी  खामोश रहे। फिर उसको भंग करते हुए रमाकांत ने कहा,” आप सुन लीजिए बहू!… मैं कोई जोर-जबरदस्ती नहीं कर रहा हूँ इस मुद्दे पर मैं तो समानता के दृष्टिकोण से राय दी थी कि तीनों भाइयों को पाँच-पाँच कट्ठे जमीन मिल जाएगी… अगर हितेश कह देगा कि जमीन मात्र दो हिस्सों में ही बंटेगी तो उसके लिए भी हम तैयार हैं। लेकिन आपको इन बातों पर भी आपको ध्यान देना चाहिए, मैंने बचपन से उसको पढ़ाया-लिखाया, मेरे साथ बचपन से रहा, शादी-विवाह कर दिया… क्या नहीं किया इसके लिए, इसके माता-पिता से बढ़कर किया…इन बातों पर भी गौर करें… “कहते-कहते उसकी आंँखें गीली हो गई।

  वातावरण में सन्नाटा छा गया था। 

  हितेश किंकर्तव्यविमूढ़ सा खड़ा रहा। अपने चाचाजी के सामने उसको कोई उत्तर नहीं सूझ रहा था। 

  उसकी वाक्-पटुता और नाटकीयता से सम्मोहित होकर पुनः उसके अदृश्य जाल में पति-पत्नी फंँस गए।

  उसने अंतिम पाशा फेंका यह कहते हुए,

“जैसा होगा हितेश आपस में विचार-विमर्श करके खबर कर देना, हम तुम्हारे शुभचिन्तक हैं, तुमसे अलग नहीं हैं, न तुम्हारे  खिलाफ है” कहते हुए वह डेरा से बाहर निकला और एक ही बाइक पर  पिता-पुत्र सवार होकर वहाँ से प्रस्थान कर गया।

   हितेश ने अपनी पत्नी से कहा, ” वास्तव में चाचाजी की समानता का विचार सराहनीय है। तीनों भाइयों को पाँच-पाँच कट्ठे जमीन मिलेगी। उनके विचार से हम सहमत हैं, चलो चलकर अभी ही खबर कर देते हैं।”

  भूमिका ने भी हितेश की राय से सहमति जताई।

        घर पहुंँचने पर उसके छोटे पुत्र ने रमाकांत से पूछा,” क्या हुआ पापा मुझे तो कुछ समझ में ही नहीं आया। “

 ” चुप! चुप!… बोलेंगे और प्रचार हो गया तो वर्षों से बना बनाया खेल बिगड़ जाएगा… वेट ऐंड वाच(रुको और इंतज़ार करो)”

  उसने आगे कहा, ” मेरा भाई भुवनेश, वह तो बैल है, उसको रात-दिन थोड़े ही  कुछ समझ में आता है, चुप्पी साधे रहो। सुबह तक मामला साफ हो जाएगा, उस जमीन के प्लाॅट के आधे हिस्से के मालिक हम बन जाएंँगे। “

  उनके बात-चीत समाप्त होने के कुछ मिनटों के बाद ही दरवाजे पर दस्तक होने लगी।

  दरवाजा खोला तो सामने हितेश और भूमिका खड़े थे। उनलोगों ने पिता-पुत्र के बीच चल रही सारी बातें सुन ली थी। उनकी आंँखों से अंगारे निकल रहे थे।

  जिन्दगी में पहली बार अपने चाचा पर विफरते हुए कहा, “मैं नहीं जानता था कि जिस व्यक्ति को मैं देवतुल्य समझता था, वह इतना घटिया किस्म का इंसान है, जिसके दोहरे-चेहरे हैं। मैंने आपका आज असली चेहरा देख लिया और इस चेहरे से मुझे घृणा है।… सुन लीजिये चाचाजी!… उस जमीन के टुकड़े के आधे हिस्से पर कानून मेरा हक बनता है। अगले सप्ताह ही बंटवारा हो जाएगा। “

   उनलोगों को काटो तो खून नहीं वाली स्थिति बन गई थी।

 भूमिका के चेहरे पर भी नफरत की लकीरें साफ दिखलाई पड़ रही थी। 

    स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित

#दोहरे_चेहरे

                 मुकुन्द लाल 

                हजारीबाग(झारखंड)

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