बाल-विधवा – पुष्पा पाण्डेय

काकी थकी हारी हाट से आई, लेकिन उसके चेहरे पर खुशी की चमक थी। आज उसके सारे अमरूद, नींबू बिक चुके थे। उसकी टोकरी में जो दो अमरूद बचे थे उसे काकी हाट के गेट पर बैठी उस बच्ची के  हाथ में थमा दिया जो माँ के साथ भीख मांग रही थी। काकी घर आकर सीधे बीचला घर में गयी। वही कमरा जब शादी करके आई थी सासु माँ ने काकी लिए निर्धारित किया था। सबने अपने-अपने कमरे पक्के करा लिए सिर्फ काकी का कमरा ही मरम्मत पर चलता था। काकी का भोजन पानी अपने देवर के घर से मिलता था। विधवा भाभी का पेट भरना वो अपना कर्तव्य समझते थे। काकी बाल-विधवा थी। कोई संतान भी नहीं थी।

काकी को शुरू से ही पूजा-पाठ में लगा दिया गया जब वह पूजा का सही अर्थ भी नहीं समझती थी। अब काकी की दिनचर्या तो मंदिर से शुरू होकर मंदिर में ही खत्म होती है। भगवान की भक्ति में रम चुकी थी। गाँव में एक बड़ा- सा लक्ष्मी-नारायण  का मंदिर था। उस मंदिर की ख्याति आस-पास के दस गाँवों तक फैली हुई थी। अक्सर वहाँ भजन-कीर्तन,  प्रवचन आदि होते रहते थे। काकी कभी नागा नहीं करती थी। अब तो उसके जीवन का मकसद ही नारायण भक्ति ही थी। लगभग सारे वैष्णव त्योहार करती थी। उसने सुन रखा था कि एकादशी करने वालों को इसका उद्यापन करना जरूरी होता है, वरना सारे पुण्य धरती पर ही रह जायेंगे। 

काकी ने अपनी बात घर में सबको बतायी, लेकिन सभी ने मदद से इनकार कर दिया। काकी घर के आगे की जमीन में बरसों पहले कुछ वृक्ष लगाए थे। उसके फल पर अपना अधिकार समझते हुए उसे ही अपनी इच्छा पूर्ति का साधन बनाया। 




 मौसम में दिनभर बैठकर उसकी रखवाली करती और जब वे पक जाते थे तो उसे गाँव की हाट में बेच आती थी। उसे न पूजा में होने वाले खर्च  का अनुमान था और ही इस गिलहरी प्रयास का अंदाजा।था तो सिर्फ एक विश्वास। 

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पोटली में पैसे रख  एक साँस में एक लोटा पानी गटक गयी और मंदिर के संध्या- भजन में शामिल हो गयी। मंदिर का पुजारी पंडित रामफल ने काकी को देखकर कहा-

काकी! आज तो बड़ी मुस्कुरा रही हो?”

“हाँ पंडित जी, लगता है अमरूद के अगले मौसम के बाद मुझे भी एकादशी उद्यापन का मौका मिले।”

काकी दो साल का पैसा इक्कठा कर चुकी थी।

” क्यों नही, ईश्वर चाहा तो सब हो जायेगा।”

पंडित रामफल मंदिर के पुजारी होने के साथ-साथ दस गाँवों में जजमनीका भी करते थे। उस मंदिर के खन्दानी पुजारी थे, लेकिन लोगों में इनकी छवि वैसी नहीं थी जो पिता जी की थी। कलयुग के प्रभाव से ग्रसित थे। अंधविश्वास आडम्बर को बढ़ावा ही दे रहे थे। पूजा को व्यवसाय की नजर से देखने लगे थे। उनका एकलौता बेटा राघव इनके इस व्यवहार से क्षुब्ध था। बहुत कहने के बाद भी वह  पुजारी बनना  नहीं चाहता था और गाँव के स्कूल में ही संस्कृत का शिक्षक बना। वह नास्तिक नहीं था, लेकिन लीक का फ़कीर भी नहीं था। गरीबों और बेसहारों के लिए उसके दिल में विशेष जगह थी। पिता ने उसे नालायक, माता-पिता की इज्जत नहीं करने वाला घोषित कर चुके थे। रोज- रोज का झिक-झिक, तनाव से मुक्ति के लिए गरम खून घर छोड़कर चला गया। 

 गाँव वालों की नजरों में भी उसकी छवि ठीक नहीं थी। जो माँ-वाप का न हो सका वह किसका होगा?

स्कूल के गार्ड वाले कमरे में रहना मंजूर था, लेकिन पिता के इस काम को करने के लिए आत्मा तैयार नहीं थी, पर माँ से मिलने रोज आता था।————




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दूसरे दिन काकी आरती से पहले ही आकर मंदिर में बिछे कालीन के एक छोर पर बैठकर सुबक रही थी।

“अरे काकी! कल इतनी चहक रही थी और आज क्या हुआ?”

पंडित रामफल की आवाज सुनते ही काकी और फफक पड़ी।

“मेरे सारे पैसे चोरी हो गये?”

“कैसे?”

आगे दादी कुछ बोल न पाई और पुजारी जी आगंतुक भक्त में उलझ गये। आज रामनवमी में राघव अपने एक मित्र के साथ दर्शन को आया था। भीड़ शुरू होने से पहले ही निकल जाना चाहता था, लेकिन काकी को रोते देखकर ठीठक गया। पूछने भर की देर थी, दादी अपने मन की सारी व्याथा सुना डाली।——–

राधव की आँखों में नींद नहीं थी। यही सोचता रहा काकी का उद्यापन कैसे हो? सामने से तो कुछ कर नहीं सकता, न काकी ही स्वीकार करेगी।एक योजना के तहत कोशिश करनी चाही।

गाँव से अपरिचित अपने दोस्त को काकी के घर भेजा।

” काकी! आप एक महीना मंदिर की साफ-सफाई की नौकरी कर सकती हैं? एक सेठ ने खबर भेजवायी है।”

“हाँ,क्यों नहीं? मुझे उद्यापन के लिए पैसों की जरूरत भी है”

“लेकिन आपको पैसे नहीं मिलेंगे। आप जो चाहेंगी वो वस्तु मिल सकती है।”

” तो क्या सारी सामग्री मिल जायेगी?”

“हाँ,क्यों नहीं।”

दादी सोचने लगी- दोनों में ही फायदा है।यदि धोखा मिलता है तो भी भगवान की सेवा तो हो ही जायेगी।

और लग गयी काकी अपने सपने सजाने में। एक महीने बाद एकादशी के एक दिन पहले जब सुबह- सुबह मंदिर गयी तो पंडित रामफल ने कहा- 

“काकी, कल तुम एकादशी का उद्यापन करने जा रही हो और मुझे बताया भी नहीं? तुम्हारा सारा सामान आ गया है।” 

“अरे पंडित जी मुझे भी अभी पता चला।”

रास्ते में दोस्त बता दिया था कि सेठ जी ने सामान भेजवा दिया है। काकी का सपना पूरा हो रहा था। उसके मेहनत के पैसे थे। सेठ कौन है, क्यों,लेकिन,  परन्तु की सोच से परे पूजा की तैयारी में लग गयी।

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अब चौकने की बारी पंडित रामफल की थी। 

पूजा की सामग्री में जो लक्ष्मी जी की श्रृंगार-सामग्री थी उसमें वही सिन्दूर की डिबिया थी जो उन्होंने राघव की माँ के लिए लेकर आये थे। सोचने लगे-

तो क्या ये सब कुछ राधव का किया- कराया है?

मेरी सहायता के लिए मंदिर की साफ-सफाई  के लिए काकी को नौकरी…… और बदले में घर की सामग्री से …… ।

आज उन्हें अपने बेटे पर गर्व हुआ। इस दोहरे चेहरे को आज पहचान पाये।

#दोहरे_चेहरे

स्वरचित

पुष्पा पाण्डेय 

राँची,झारखंड।

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