गलती से भी मुझे कमजोर मत समझना- निभा राजीव “निर्वी”

मानसी के पिता के असामयिक निधन के बाद उनका अंतिम संस्कार और सभी क्रिया कर्म हो चुके थे। आज सभी मेहमान भी जा चुके थे। माँ अब भी दीवार से पीठ टिकाए हौले हौले सिसक रही थी। मानसी की आंखों में भी बेबसी के आंसू भर आए।

            पिता के मृत्यु के एक दिन पूर्व ही तो उसके स्नातक का परीक्षा फल आया था।… वह प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुई थी। कितने खुश थे उसके पिता……उन्होंने तो मिठाई खाते खाते उसके और उसकी छोटी बहन के भविष्य को लेकर कितनी योजनाएं भी बना डालीं। परंतु पता नहीं काल की कैसी कुदृष्टि पड़ी और उसी रात हृदय गति रुक जाने से उसके पिता का निधन हो गया….क्या सोचा था और क्या हो गया। काल के निर्मम प्रहार से उनकी छोटी सी दुनिया छिन्न-भिन्न हो गई।

              मानसी ने अपनी आंखें पोंछकर अपना दिल कड़ा किया और अपने टूटे हुए घर को फिर से संभालने के लिए स्वयं को मानसिक रूप से तैयार करने लगी। अब वही सब कुछ संभालेगी और अपनी मां और छोटी बहन का सहारा बनेगी।……. वह उठकर मां के पास पहुंची और मां के आंसू पोंंकर उनके सिर को अपने कंधे पर रख लिया और हौले हौले थपकियां देने लगी और कहने लगी, “-तुम किसी बात की चिंता मत करो मां, मैं हूं ना.. मैं सब संभाल लूंगी…” तभी दरवाजे पर दस्तक हुई…

“इस समय कौन हो सकता है”…बुदबुदाते हुए मानसी ने दरवाजा खोला तो सामने उसके पिता के बाॅस नरेंद्र जी खड़े थे। मानसी ने फीकी सी मुस्कान के साथ हाथ जोड़कर उनका स्वागत किया “- ओह अंकल आप! आइए, अंदर आइए… नरेंद्र जी अंदर आ गए और मानसी की मां को हाथ जोड़कर नमस्कार किया। मानसी मां की ऐसी अवस्था देखकर द्रवित स्वर में बोले “-भाभी जी, आप किसी भी बात की चिंता मत कीजिए। मैं हूं ना… मैं आपके घर को बिखरने नहीं दूंगा। मुझसे जो बन पड़ेगा,मैं अवश्य करूंगा।”




                 मानसी ने पानी का ग्लास नरेंद्र जी को थमाते हुए कहा,”- अंकल, पापा के जाने के बाद मुझे ही सब संभालना है। आपने हमारे विषय में इतना सोचा इससे हमें बहुत बड़ा संबल मिला है। आपका बहुत-बहुत धन्यवाद! अगर मुझे आप के कार्यालय में कोई काम मिल सके तो आपकी बड़ी कृपा होगी।”

                नरेंद्र जी उठकर खड़े हो गए और स्नेह से उसके सिर पर हाथ फेरते हुए कहा,”- मेरे होते हुए तुम किसी भी बात की चिंता मत करो बेटा, मैं तुम्हें कोई ना कोई काम अवश्य दिलवा दूंगा।”

            मानसी का स्वर आर्द्र हो गया,”- मैं आपका कैसे धन्यवाद करूं अंकल! आपने डूबते को सहारा दिया है” और उनके चरणों में झुक गई…

नरेंद्र जी ने हड़बड़ा कर अपने कदम पीछे कर लिये, “-यह क्या कर रही हो बिटिया….तुम तो मेरी बेटी जैसी हो बेटियों से पांव नहीं छुआते…. आज तुम लोग से मिलकर बहुत अच्छा लगा… तुम तो जानती ही हो तुम्हारी आंटी के जाने के बाद से मैं भी कितना अकेला हो गया हूं…. चलो जाने दो, मैं भी क्या बातें लेकर बैठ गया… तुम ऐसा करो कल शाम को अपने सारे कागजात लेकर मेरे घर आ जाओ। वहां मैं तुम्हें काम से संबंधित सारी जानकारियां दे दूंगा और ऑफिस के माहौल के बारे में भी सब कुछ समझा दूंगा। चलो सारी चिंता छोड़ कर मां को संभालो, मैं चलता हूं।”…और माँ को हाथ जोड़कर चले गए। मानसी का मन उनके प्रति श्रद्धा से भर उठा। आज के जमाने में इतने सहृदय लोग मुश्किल से ही मिलते हैं।

             दूसरी शाम मानसी अपनी फाइल लेकर नरेंद्र जी के घर पहुंची। उसने कॉल बेल बजाया तो नरेंद्र जी ने दरवाजा खोला। वह बरमूडा और टीशर्ट में थे। उसे देखकर आत्मीयता से मुस्कुराए और उसे अंदर बुलाया।




मानसी अंदर आकर बैठ गई। उसने नरेंद्र जी से कहा,”-अंकल, मैं अपनी फाइल लेकर आई हूं। कृपया आप एक बार देख लें।” नरेंद्र जी ने उसके हाथ से फाइल लेकर टेबल पर रख दी, “-अरे, इतनी क्या जल्दी है आराम से बैठ कर देख लेंगे। नौकरी तो तुम्हें मिल ही जाएगी, मैं हूं ना… कहते कहते उन्होंने उसके कंधे पर हाथ रखा। उनके हाथ में कुछ असहज सा दबाव पाकर मानसी चौक गई और उनकी ओर देखा तो वह विचित्र सा भाव आंखों में लिए मुस्कुरा दिए और उसकी पीठ सहलाने लगे। मानसी को जैसे एक ही पल में सब कुछ समझ में आ गया और झटके से उठ खड़ी हुई। उसने कहा,”- यह आप क्या कर रहे हैं अंकल? आपने तो कहा था कि मैं आपकी बेटी जैसी हूं…..”

नरेंद्र जी ने बेशर्मी से हंसते हुए कहा,”- बेटी जैसी.. बेटी तो नहीं…!! देखो मानसी बेवकूफ मत बनो। तुम भी जानती हो कि इस नौकरी की तुम्हें कितनी सख्त जरूरत है, तुम्हें अपना और अपने परिवार का ध्यान रखना है….और  कुछ पाने के लिए कुछ खोना भी पड़ता है। तुम बस मुझे खुश कर दो और मैं यह नौकरी तो क्या तुम्हें बहुत जल्द प्रमोशन भी दिलवा दूंगा। और तुम इत्मीनान रखो, किसी को कुछ पता नहीं चल पाएगा… सब कुछ हम दोनों के बीच रहेगा। तुम तो जानती ही हो आजकल इस हाथ ले उस हाथ दे का जमाना है…” वह बेहयाई से फिक्क करके हँसे और उसे अपनी और खींच कर बाहों में भरने का प्रयास करने लगे। उनकी आंखों में लाल डोरे तैर रहे थे.. शायद उन्होंने पी भी रखी थी। उनकी आंखों में वासना का सागर लहरा रहा था।

              मानसी ने घृणा से तिलमिला कर उन्हें इतनी जोर का धक्का दिया कि वह लड़खड़ा कर नीचे गिर पड़े। मानसी ने टेबल पर पड़ा गुलदान उठाया और  उसे टेबल पर मारकर तोड़ दिया और रौद्र रूप धारण करते हुए नरेंद्र जी से बोली,”- एक कदम भी आगे बढ़ाया तो सीने के पार कर दूंगी। मुझे और मेरे परिवार को चाहे सड़क पर भीख क्यों ना मांंगनी पड़े, पर तुम जैसे लोगों की घिनौनी मंशा मैं कभी पूरी नहीं होने दूंगी। गलती से भी मुझे कमजोर मत समझना। औरत अगर अपनी पर आए तो वह दुर्गा और काली का रूप धर सकती है और तुम जैसों राक्षसों का सर्वनाश कर डालती है। दोबारा मेरे घर की तरफ अपना घिनौना मुंह मत करना। जहां तक नौकरी की बात है मुझे आज नहीं तो कल मिल ही जाएगी, इतना विश्वास है मुझे खुद पर”…. और नरेंद्र जी के दोहरे चेहरे पर पिच्च से थूक कर दरवाजा खोलकर बाहर निकल गई।

#दोहरे_चेहरे

निभा राजीव “निर्वी”

सिंदरी धनबाद झारखंड

स्वरचित और मौलिक रचना

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