बदनुमा दाग ( भाग 3)- माता प्रसाद दुबे : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi :

“लेकिन मैं सब कुछ जानकर तुम्हारी शादी राकेश से नहीं कर सकता” रामप्रसाद जी मालती को डांटते हुए बोली। “पापा !मैं राकेश से ही शादी करूंगी,नहीं तो मैं कुछ गलत कर लूंगी जिसके जिम्मेदार आप लोग होंगे” मालती धमकी देते हुए बोली।

“ऐसे बात करते हैं अपने पिताजी जी से, क्यों तूं हम सब लोगों के मुंह पर दाग लगाना चाहती है?” कहते हुए शांति देवी रोने लगी। गीता शांति देवी को पकड़कर उन्हें बच्चों की तरह चुप कराने का प्रयास कर रही थी। “ठीक है मैं तुम्हारी शादी राकेश से करवा दूंगा,मगर मेरी एक शर्त है,शादी के बाद कभी भी तुम अपने माता-पिता भाई के घर पर क़दम नहीं रखोगी,तुम्हें सुख दुख जो भी मिले,अपना जीवन व्यतीत करना, पलटकर कभी हमारे पास मत आना,हम समझेंगे कि मेरी बेटी मालती जो हमारी थी,

वह शादी के बाद हमारे लिए मर गयी उससे हमारा कोई भी संबंध नहीं रहेगा “कहते हुए रामप्रसाद जी की आंखें छलकने लगी। “ठीक है पापा!यदि आप ऐसा चाहते है तो ऐसा ही होगा मैं राकेश से शादी के बाद कभी आपके पास नहीं आऊगी

” कहकर मालती अपने बिस्तर पर लेट गई वह राकेश के इश्क में इस तरह अंधी हो चुकी थी कि उसे अपने माता-पिता भाई भाभी सब दुश्मन नजर आ रहे थे।
राकेश और मालती की शादी के तीन साल बीत चुके थे, मालती एक नन्ही बच्ची की मां बन चुकी थी।उसका जीवन खुशियों से परिपूर्ण था, गाड़ी बंगला सारे सुख साधन उसके पास मौजूद थे,इन तीन सालों में वह कभी भी अपने पिता के घर नहीं गई ना ही उससे मिलने उसके पिता भाई मां भाभी उसके पास कभी आए वह अपने घर को लगभग भूल चुकी थी।

उसी समय एक खबर ने उसके घोंसले को एक पल में उजाड़ कर फेंक दिया। उच्च अदालत में राकेश दोषी साबित हुआ उसे उम्र कैद की सजा सुनाई गई वह जेल चला गया,दो तीन साल तक मालती के साथ उसके साथ सब कुछ अच्छा था,मगर धीरे-धीरे उसके ससुराल वालों का व्यवहार उसके प्रति बदलने लगा।

राकेश के जेल में जाने के कारण मालती का मददगार कोई नहीं था,कल तक जो लोग उसे सिर पर बैठाते थे,वह उसे अब अपने पैरों पर भी नहीं बैठाना चाहते थे,मालती की जिंदगी बीच भंवर में उलझ चुकी थी जिसका कोई किनारा नहीं था।

कम उम्र में ही पति का दशकों के लिए साथ छूट जाना उसकी जिंदगी का नासूर बन गया था,उसकी ओर गलत निगाहें उठने लगी थी,वह चाहकर भी आज कुछ नहीं कर सकती थी।
सात साल बीत चुके थे,मालती को अपने पिता व भाई की बातें याद आ रही थी।

जिनके स्नेह को ठुकराकर उसने राकेश को जीवन साथी बनाया था,आज उन्हीं अपनों की कही बातें उसको झकझोर रही थी।

जिन्होंने उसकी जिंदगी में आने वाले तुफान को भांपकर उसे उससे दूर रखने का भरसक प्रयास किया मगर उसने उनकी भावनाओं को कुचल दिया और चमक-दमक देखकर अपने जीवन को दल-दल में फंसा दिया जिससे निकलना उसके लिए संभव नहीं था।

उसके ससुराल वालों का जुल्म उसके प्रति बढ़ता जा रहा था। वह सोच रही थी, कि शायद उसकी समस्या को देखते हुए उसके पापा मां और भैया उसे माफ कर दें, आखिर वह उसके पिता मां भाई भाभी ही तों थे, उसने अपने पैर पर खुद ही कुल्हाड़ी मारी थी,वह अपनी मां पापा भाई भाभी से मिलकर उनके पैरो में गिरकर माफी मांगना चाहती थी।

उसे उम्मीद थी कि वे उसे जरूर माफ कर देंगे,यही सोचकर मालती अपने ससुराल की गाड़ी न लेकर प्राइवेट टैक्सी लेकर अपनी नन्ही बच्ची के साथ अपने मायके की ओर जा रही थी।
टैक्सी उसके भाई प्रभात की दुकान के पास पहुंच चुकी थी,जो बंद थी।

मालती ने ड्राइवर को टैक्सी रोकने के लिए कहा और टैक्सी से उतर गई उसने अपनी साड़ी का पल्लू अपने मुंह के ऊपर डाल लिया था जिससे उसे कोई पहचान न सके गोद में बच्ची को लिए मालती प्रभात की दुकान के बगल की दुकान पर पहुंची वह जानती थी कि वह दुकान नयी खुली थी,वह दुकानदार उसे अच्छी तरह नहीं पहचानता है।

बदनुमा दाग ( भाग 4)

बदनुमा दाग ( भाग 4)- माता प्रसाद दुबे : Moral stories in hindi

 

बदनुमा दाग ( भाग 2)

बदनुमा दाग ( भाग 2)- माता प्रसाद दुबे : Moral stories in hindi


माता प्रसाद दुबे
मौलिक स्वरचित अप्रकाशित कहानी लखनऊ

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