अनंत यात्रा, – उमा वर्मा

दीदी की बीमारी की खबर सुनकर मन बेचैन सा हो गया ।इस बार तो जरूर जाउंगी ।हर बार अपने पैर के दर्द से परेशान रहने के कारण मेरा कहीं जाना मुश्किल हो गया था ।मेरे घुटने का दर्द मुझे यात्रा करने की इजाज़त नहीं देता ।फिर भी अपनी दीदी से मिलना होगा यह सोच ही मेरे लिए बहुत था।अनंत जी से कहा तो बोले” अन्नू तुमने अपने पैर की हालत देखी है, कहीं भी जाओ तो थोड़ा बहुत तो चलना ही पड़ेगा ” ” नहीं जी मै तो अवश्य जाउंगी इसबार।” बहुत दिनों से नहीं मिल पायी उनसे “। ठीक है तुम तैयारी करो,मै टिकट के लिए देखता हूँ ।मेरी खुशी का ठिकाना नहीं था ।आखों के सामने कयी  दृश्य घूम रहे थे ।जब कम उम्र में ही छोटी सी बीमारी में पापा हम सब को छोड़ कर चले गये ।छोटी सी थी मै,कुल दस साल की और भाई चार साल का ।

माँ अकेले परदेश में क्या करती ।तब दीदी ने ही आगे बढ़ कर सहारा दिया हमे।माँ और हम भाई बहन को जाकर जीजा जी ले आए थे अपने यहाँ ।नहीं पता कि यह दीदी के मर्जी से हुआ या जीजा जी के मन से ।माँ असहाय और बेसहारा थी लेकिन उनका   कहना था कि किसी के आगे हाथ नहीं पसारने है ।मेहनत मजदूरी करके बच्चे को पाल लेंगे ।परिवार के लोगों ने कहा ” जो हम खायेंगे, वह खिलायेंगे।पर केवल खाने की समस्या नहीं थी ।खाना, कपड़े, शिक्षा, शादी ब्याह सभी कुछ तो बाकी था ।बहुत कोशिश के बाद माँ की नौकरी लगवा दी थी दीदी ने ।तब दीदी की दिन चर्या कुछ ऐसी शुरू हो गई वह अपने बच्चों के साथ हमे नहलाती, खिलाती, पढाती,सब कुछ चलने लगा ।माँ को सुबह नाश्ता  खाना तैयार मिलता, वे अपने ऑफिस जाती, फिर जीजा जी के लिए टिफ़िन  तैयार करना और हम बच्चों की कंघी, चोटी, जूते मोजे ,स्कूल बैग सब कुछ तो उन्ही के जिम्मे था ।लगता दीदी थकती नहीं कभी? मै छोटी जरूर थी पर उतनी भी नहीं कि समझ नहीं सकती थी ।बहुत दया आती उनपर जब सर्दियों में पूरा परिवार  रजाई तान कर सोया रहता तो वे सुबह  चार बजे उठकर कोयले की अंगीठी  जलाती ।सबका नाशता  खाना  तैयार करती ।


मै देखती वह सर्दी में थरथर कांपती रहती और काम में लगी रहती ।माँ बहुत नियम कानून वाली थी  और डिसिपलीन  वाली थी जो हमे जरा भी अच्छा नहीं लगता ।तब हर जगह वह हमे बचाती ।और भाई तो स्कूल से लौटता तो अक्सर  उसके पैंट-शर्ट  गन्दे  हो जाते तब बहुत प्रेम से दीदी सफाई में जुट जाती।उन्हे  घिन भी नहीं लगती क्या? घर में कुछ टूट फूट हो जाता कुछ बिगड़ जाता तो माँ के अनुशासन से ढाल बन कर हमे बचाती ।सीधे सारे दोष अपने माथे पे ले लेती।सबसे दुख मुझे लगता जब माँ के रहने के कारण ननिहाल और दादी का परिवार डेरा जमाये रहता तो पसीने से तर बतर ,ससुराल पक्ष से  डरते हुए  सब के भोजन के तैयारी में लग जाती।किस मिट्टी की बनी हुई है कि न किसी से शिकवा न शिकायत ।सबका इतना खयाल रखने वाली मेरी दीदी बीमार है तो मुझे जाना होगा ।शाम को अनंत जी टिकट ले आए ।,” अनु, तैयारी कर लो सुबह ही निकलना है ।घर में अम्मा जी का हस्तक्षेप हुआ, ” उम्र हो जाने पर हारी बीमारी तो लगी रहती है, अब अपना भी तो  देखना है, तुम ठीक से  चल नहीं पाती,कैसे जाओगी?


मै भी जिद पर आ गई मुझे जाना है किसी भी  तरह ।माँ बनकर जिसने सहारा दिया उसे छोड़ दूँ? जीजा जी अब नहीं रहे।बच्चे सुदूर विदेश में हैं, जिसने अपने बच्चों के साथ हमारी भी परवरिश की,शादी ब्याह निबटाया उम्र के इस समय अकेले  हो गई ।नहीं उन्हे नहीं भुला सकती।हालांकि दीदी आर्थिक रूप से मजबूत ही थी।जीजा जी के न रहने पर पेंशन मिलने लगा था और आधे मकान को किराए पर लगा दिया था लेकिन वे भला कब बैठने वाली थी अपने बच्चों को खुशी खुशी विदेश भेज दिया जहां रहो खुश  रहो उनकी सर्विस ही वहां की थी तो रहना ही था ।मन लगाने के लिए अनाथ बच्चों को शिक्षित करने की तैयारी कर रही थी ।कितना कुछ बिखर गया उनके जीवन में ।भाई पूना में अपनी  गृहस्थी में मगन हो गया ।अम्मा और जीजा जी भी नहीं रहे,दीदी के बच्चे विदेश चले गए ।सब को समेटने वाली आज सब को कैसे छोड़ सकती है ।तुम ने  माँ की कमी महसूस नहीं होने दी ।अपनी छत्र छाया में लेकर चली।दरवाजे पर पहुंची तो भीड़ देखकर दिल धक से हो गया ।” बहुत देर कर दी आने में बिटिया ” बगल वाली सोना काकी थी ।अब कहाँ भेंट होगी ।देवी थी वह ।सब का भला करने वाली ।मै पछाड खा कर गिर पड़ी।क्यो  छोड़ कर चली गई तुम? तुम तो मेरी जिंदगी थी दीदी ।अनंत जी भी रो रहे थे ।दीदी शांत चित्त कितनी सुन्दर लग रही थी ।” आप के बिना अनु अधूरी है दीदी वे बुदबुदा रहे थे ।” जानती हो दी,अनु कहती है मै दीदी से मिलती हूँ तो लगता है माँ से मिल रही हूँ ।मुझे बहुत शान्ति मिलती है दीदी से मिल कर ।कहाँ चली गयी आप? अर्थी तैयार हो गई थी ।उनको ले जाने की तैयारी होने लगी बस बच्चों का इन्तजार था ।वे भी पहुचने वाले होंगे ।और मेरी प्यारी दीदी अनंत यात्रा को चल पड़ेगी ।दूर कहीँ बज रहा था, ” जीवन चलने का नाम—– ।”

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