उधार की खुशियां – सारिका चौरसिया

सुधाकर की नौकरी पक्की हो गयी थी और यह सूचना ले कर वह सबसे पहले आरती के पास पहुंचा था।आता भी क्यों न? एक आरती ने ही तो उसके इस उलझन भरे हतोत्साहित करने वाले समय में उसके हिम्मत को बढ़ाये रखा था।अंतर्मुखी सुधाकर मेघावी होते हुए भी हर बार जब एक-एक नम्बर से पीछे रह जाता या साक्षात्कार में छंट जाता, तब अगली बारी के लिये आरती ने ही तो ढेरों हौसले बनाये थे उसके। आज के दिन का बहुत धैर्य से इंतजार किया था दोनों ने। बचपन से दोनों साथ ही पढ़े थे और यह दोस्ती आपसी तालमेल का अद्भुत उदाहरण थी। सुधाकर के माता-पिता को भी आरती पसन्द थी और मन ही मन अपनी बहू के रूप में स्वीकार भी चुके थे उसको। वैसे भी सुधाकर और आरती दोनों ही एक दूसरे के साथ इतने सहज और एक दूसरे के इतने आदि हो चुके थे कि कोई और दूसरा किसी एक कि भी जगह अगर ले भी लेता तो शायद रिश्ता निभना कठिन ही रहता…जैसे दोनों एक दूसरे के लिये ही बने थे।

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आरती स्वयं भी कॉम्पिटिशन की तैयारी कर रही थी। किन्तु आरती की माँ विवाह में अब और विलंब नहीं चाहती थी।आरती के माता-पिता भी सुधाकर को पसन्द करते थे। बहुत ही शांत सौम्य संस्कारी सुधाकर सीमित आमदनी वाले नौकरीपेशा परिवार से था किंतु संतुलन बना कर चलने वाले इस सम्पन्न परिवार में किसी तरह की कोई कमी न थी। इधर पुराने व्यवसायिक घराने से सम्बद्ध आरती का चाचा ताऊओं से संयुक्त परिवार आमदनी से अधिक खर्चों का आदि रहा था समय के साथ आर्थिक स्तर में  कमी भी आयी थी लेकिन आन-बान और शान में कोई कमी न थी। यद्दपि वे जातपात आदि न मानते थे फिर भी पारिवारिक रुतबे को देखते हुए झिझक स्वभाविक थी।यह भी जानते थे कि स्वजातीय विवाह में जितनी ज्यादा योग्यता वर की होगी उतना ही वर का मोल भी।साथ ही बेटी का मन भी टटोल चुके थे, पति के रूप में आरती को सुधाकर से अच्छा शायद हो कोई और मिले यह स्वयं आरती ने भी स्वीकार किया था।





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हार कर उन्हें भी सुधाकर ही सुयोग्य वर के रूप के नज़र आ रहा था किन्तु झूठी शान में उच्च स्तर का ब्याह करने पर आमादा थे। अंततः सुधाकर और आरती के विवाह को दोनों पक्ष की सहमति से स्वीकृति मिल गई तो सुधाकर की नौकरी पक्की होने का ही इंतजार था। और आज जब दोनों पक्ष इस खुशी के मौके पर इकट्ठे हुए तो बातों-बातों में विवाह की बात स्वयं निकल कर आ ही गयी और विवाह कैसे सम्पन्न हो यह मुद्दा बहस का विषय बन गया। सुधाकर के माता-पिता सादगी से अपने खास परिचितों रिश्तेदारों के बीच ही कम खर्चीले विवाह के पक्ष में थे और आरती के पिता अपने विस्तृतसम्बन्धों का गान कर रहे थे।

अमूमन शांत रहने वाली मन ही मन पिता की वास्तविक आर्थिक स्तिथि जानती आरती यकायक बिफर पड़ी…कौन से रिश्तेदार! और कौन से आपके मित्र!! पिताजी? वे मित्र जिन्होंने आपकी युवावस्था में आपकी गाड़ी रुपये और रुतबे का इस्तमाल जी भर कर किया। तब आपके आगे पीछे दुम की तरह नाचते रहे। और जब आपका बुरा वक्त आया तो सब गधे के सिर पर से सींग की तरह गायब होने लगे थे? और रिश्तेदार जो आपको देख रास्ता बदल लेते थे? सगे सम्बन्धी जो पीठ पीछे माँ को ताने देते थे हमारी हँसी उड़ाते थे??

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माँ के अलावा क्या कभी किसी ने आपका साथ दिया?? और अब जब आप पुनः स्वयं के दम पर अपनी स्तिथि मजबूत कर चुके तो पुनः सब आपके सगे बन गए??

नहीं पिताजी! आप भूल सकते हैं क्योंकि वे आपके सगे हैं।पर मैं और माँ अपमान की उन घड़ियों को नहीं भूल सकती। और अगर इन बातों को पीछे छोड़ भी दूँ पिताजी!तो भी मैं आपके मेहनत से कमाए पैसे को उन लोगों के लिये उड़ता नहीं देख सकती जो सिर्फ समारोह में आये, खाये और बाद में हर कार्यक्रम में ढेर सारी कमियां, बुराइयां और शिकायत के ढेर लगाएं। या फिर और कुछ नहीं तो हाय ही लगा जायँ। और निश्चय ही एक बहुत विस्तृत स्तर के ब्याह के लिये उधार पर ही धन की व्यवस्था होती है। जो धीरे-धीरे कर के ही चुकाए जाते हैं और यह लगभग हर भव्य विवाह समारोह के पीछे का कटु सत्य है। पिताजी मैं अपने नए जीवन की शुरआत उधार! अथवा हाय!दोनों से ही नहीं करना चाहूंगी, मुझे उधार से खरीदी खुशियां नहीं चाहिए। कहते हुए आरती ने हाथ जोड़ लिए।  इस लिये आपसे आग्रह है कि सिर्फ उन लोगों को और उतने ही लोगों को बुलाएं जो सच्चे दिल से हमारे हितैषी रहें हैं और जो सच में हमारी खुशियों से प्रसन्न होंगे हमें आशीष देंगे। ना कि उनको जो दूल्हा दुल्हन को आशीर्वाद देना तो दूर जानते भी न हों बल्कि औपचारिक मित्रता निमंत्रण पर शामिल हुए हों। साथ ही रीत रिवाज के नाम पर बिना मतलब के हुड़दंग वाले कार्यकर्मों की जगह सुनियोजित पारिवारिक रीति रिवाज ही किये जायँ।

दोनों ही परिवार कुछ देर को स्तब्ध रह गए। किन्तु शीघ्र ही सुधाकर के पिता ने आगे बढ़ कर आरती को गले लगा लिया और गर्व से भावी समधी की ओर देखते है कहा…विवाह सबंधित रीति रिवाज तो महज सामाजिक खानापूर्ति है। आरती को तो हमने हमेशा से अपने घर की लक्ष्मी माना है, और इससे बड़ा सौभाग्य कुछ और हो ही नहीं सकता। आरती के पिता ने होने वाले समधी के चरण स्पर्श कर लिये। और अब गले मिल कर अब दोनों परिवार हँसी खुशी के माहौल में विवाह की तारीख़ पर विमर्श कर रहे थे।।

सारिका चौरसिया

मिर्ज़ापुर उत्तरप्रदेश।

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