तोहफा – संगीता श्रीवास्तव

खुशी आंखें बंद किए आराम कुर्सी पर बैठी भूली बिसरी यादों में खोए अनुभव का इंतजार कर रही थी । तरह-तरह के विचारों में खोई, कभी पीड़ा, कभी आनंद के मननशीलता से विचारों के प्रवाह में बहती जा रही थी। क्यों न बहे? जीवन में तरह-तरह के उतार -चढ़ाव होते जो रहे हैं! कैसे -कैसे दौर से गुजरी है, कैसे-कैसे रूप उभरकर सामने आते रहे हैं, कभी हंसाती, कभी रुलाती ,कभी बिजली सी कड़क वाली घोर डरावनी रातें ….।

‌ वह सोच रही थी,जीवन के इस डगर में कब ,कहां और कैसे क्या घटना हो जाएगी कोई नहीं जानता। जीवन की राह सीधे-साधे कब होते हैं भला? कैसे-कैसे झंझावात को झेला है मैंने। मुझे तब भी नहीं पता था और आज भी नहीं पता है कि क्या होगा। यदि मुझे पता होता कि कौन- सा डगर जीवन के लिए सहज है तो उसी रास्ते पर चलते न? लेकिन नहीं, होता कहां है यह? यही तो नहीं पता हमें। आखिर उम्र ही क्या थी मेरी? कितना लाड़- प्यार मिला था मुझे। मां -पापा की शादी के 10 साल हुआ था जन्म मेरा। ददिहाल और ननिहाल खुशियों में डूबा हुआ था और  दादी ने मेरा नाम ‘खुशी’ रखा। मेरे जरा‌ सा भी रोने पर सारा घर दौड़ पड़ता था। “क्या हुआ? क्यों रो रही?”और दादी झट से गोद में उठा चुमने लगती थी। आए दिन मेरी नजरें उतारी  जाती थी। मैं जब बड़ी हुई तब मां ये सारी बातें बताती थी। ऐसी थी मैं सबकी लाडली! दादा -दादी मेरे जन्म के कुछ साल बाद स्वर्गवासी हो गए।

कोई भी मुझे किसी बात के लिए दुखी नहीं करता था। लोगों से सुना करती थी कि ज्यादा लाड़-प्यार से बच्चे बिगड़ जाते हैं पर मैं नहीं बिगड़ी, पर मेरी किस्मत जरूर बिगड़ गई।




  खुशी कुर्सी पर बैठी एक-एक  घटना को याद कर रही थी।सब कुछ बढ़िया चल रहा था । अचानक से ,सब कुछ बदल गया।एक रोड एक्सीडेंट में मेरे मां-पापा चल बसे थे। चार बहनों में मैं सबसे बड़ी , 21 साल की थी। बी .ए. पास कर चुकी थी मैं। सामने दुखों का पहाड़ खड़ा था और संभालने वाला कोई नहीं। जैसे -तैसे करके….. खैर..। पापा के अकाउंट में कुछ रुपए जमा थे जोकि शुरुआत में हमारे काम आए। इस मायने में मैं धनी जरूर थी कि हम सभी बहनों में बेहद प्यार था और बड़े होने के नाते मेरी रजामंदी के बगैर एक तिनका भी इधर- उधर नहीं होता था। हालांकि मैंने उनपर बड़े होने का हवाला कभी नहीं दिया। ये  शायद ,हमारे मां -पापा का संस्कार था जो हमारे रगों में प्यार बनकर दौड़ता है।

सबसे बड़ी राहत कि मेरे दादाजी का बनाया हुआ दो मंजिला बड़ा मकान था। मां पापा के गुजर जाने पर हमने ऊपर वाले मंजिल में किराया लगा दिया जिससे हमें बहुत राहत मिली।

मुझे अपनी पढ़ाई को बी .ए .के बाद विराम देना पड़ा। मैंने एक स्कूल में पढ़ाना शुरू किया। ट्यूशन भी देने लगी जिससे कि हमारी गाड़ी सही ढंग से चल सके। मेरे बाद की दोनों बहनें क्रमशः बैचलर और इंटर में थी और सबसे छोटी अभी स्कूल में ही थी। समय का ऐसा चक्र चला कि जिम्मेदारियों के आगे उम्र से पहले ही बूढ़ी हो गई। जैसे तैसे बहनों को पढ़ाया। सभी एक दूसरे का हर तरह से सपोर्ट करते थे। बहनें पढ़ने में बहुत ही अच्छी थी। सभी एक दूसरे की फिक्र करते थे। दिन में तो सभी अपने अपने स्कूल-कॉलेज के अनुसार खाते पीते थे लेकिन रात में सभी इकट्ठे खाते थे। सभी मिलजुल कर हर एक काम को अंजाम देते थे। सबसे छोटी तन्नू, सबकी लाडली थी। मां पापा के चले जाने से वह विक्षिप्त सी हो गई थी। जैसे तैसे उसको हमने संभाला। समय अपनी रफ्तार से चल रहा था और हम समय के साथ…। मेरे बाद की छाया b.a. b.ed कर एक सरकारी स्कूल में पढ़ाने लगी और इसके बाद की छवि बी.ए.  कर प्रतियोगिता परीक्षाओं की तैयारी करने लगी । भगवान की कृपा से उसे भी सरकारी नौकरी मिल गई। ब्लॉक में बाल विकास पदाधिकारी के पद पर कार्यरत हो गई। छोटी वाली तन्नू भी ग्रेजुएशन के बाद बैंकिंग की तैयारी में लग गई । समय बीतता चला जा रहा था। दोनों बहनें अपने अपने पैर पर खड़ी हो गई थी । मुझे उनके शादी की चिंता होने लगी थी। बहनें तैयार नहीं थी शादी के लिए। उनका कहना था, तुम्हारी शादी के बाद ही हम‌ शादी करेंगे लेकिन मेरी जिद्द के आगे उनकी नहीं चली । चलेगी भी कैसे? मां -पापा मुझ पर जो ज़िम्मेदारियां छोड़ गए थे। जिम्मेवारियों को पूरा किए बगैर मैं अपनी शादी कैसे कर लेती । खैर,भगवान की महिमा कि दोनों बहनों की शादी अच्छे परिवार और अच्छे लड़के से हो गई। दोनों लड़के सरकारी नौकरी में थे और बहुत ही सज्जन। दोनों लड़के मुझे बहनों की तरह ही बड़ी बहन मानते थे। मुझे बहुत सुकून मिला इन रिश्तों से। तन्नू मेरे साथ रह गई थी। तन्नू इतनी बड़ी होने के बावजूद पहला निवाला मेरे हाथ से ही खाती थी। बहनों की शादी के बाद तन्नू मुझसे रात का खाना नहीं बनवाती थी। कहती थी, “दीदी अपने लाड़ में मुझे निकम्मा बना दोगी। इसलिए रात का खाना तो मुझे बनाने दो।” मैं भी उसके आदेशानुसार किचेन में कुर्सी डाल बैठ जाती और उससे गप्पे लड़ाती। उस दिन




मुझे बहुत गर्व हुआ जब तन्नु दौड़ कर मुझसे लिपट चुमने लगी,फिर उसके बाद रोने लगी। मैंने घबराहट में पूछा,”क्या हुआ क्यों रो रही है तू, बता मेरी बहना।”मैं आतुर हो उठी। तो उसने अपना रिजल्ट सीट दिखाया। “मैंने क्वालीफाई कर लिया दीदी, मैं बैंक पी.ओ.बन गई।”मैं भी खुशी से रोने लगी। अगले दिन दोनों बहने और उनके पति इस खुशी में शामिल होने पहुंचे और सबने अपनी लाडली तन्नू के लिए जमकर पार्टी की और फिर वापस चले गए।

  संयोग बस तन्नु की पोस्टिंग इसी शहर में हो गया। तन्नू भी चाहती थी कि वह दीदी के साथ ही रहे। मैं सुबह स्कूल जाती और तन्नू बैंक। शाम में मेरे आने के बाद वह आती। हम दोनों साथ ही चाय नाश्ता करते। रात में मेरे लाख कहने पर भी किचेन में मुझे काम करने नहीं देती। कहती ,”दीदी तुम यही बैठकर बातें किया करो। तुम तो अपने लाड़ में निकम्मा बना दोगी इसलिए मुझे रात का खाना तो बनाने दो!”मैं भी उसके आदेशानुसार किचेन में कुर्सी डाल बैठ जाती और गप्पे लड़ाती। समय रफ्ता- रफ्ता चल रहा था और हम उसके पीछे- पीछे। तन्नू की भी शादी कर देनी चाहिए, मेरे मन में विचार चल रहे थे। मैंने उसके लिए एक लड़का जो दूर के रिश्तेदार है और बैंक मैनेजर है,सोच रखा था। मैंने इस संबंध में तन्नू से बात की तो वह बिफर पड़ी और बोली,”मैं शादी नहीं करूंगी। तुम्हारे साथ रहूंगी।”मेरी बातों का उस पर कोई असर नहीं हो रहा था। मैंने भी अपना हथियार उपयोग में लाया। मैंने उससे बातचीत ही बंद कर दी। वह भला मुझसे बातचीत किए बिना रह पाए! दो-चार दिनों के बाद हामी भर दी। नियत समय पर उसकी भी शादी धूमधाम से हो गई। दोनों के परिवार ने हर तरह से सहयोग किया।

शादी के बाद बहनें, सारे रिश्तेदार चले गए।रह गई तो सिर्फ मैं, यादें और मेरा एकाकीपन …..। दर्द सहते -सहते बहुत कठोर हो गई थी मैं।

सभी बहनें छुट्टियों में आ जाया करती थी। मैं भी कभी-कभी उनलोंगो से मिलने जाया करती थी।अब तो स्कूल से घर और घर से स्कूल यही रूटीन था मेरा।कहीं भी आने- जाने का मन नहीं ‌होता था।

आज खुशी अनुभव का इंतजार कर रही थी जो ‌इन्टरव्यू देने गया था। जब स्वयं 45 साल की हुई तो भगवान ने उसकी गोद में, अनुभव के रुप में एक बेटा डाल दिया।3 साल का था वह जब खुशी को एक गली में बैठे मिला था। बहुत कोशिश के बावजूद खुशी उसको उसके मां बाप से मिलवा ना सकी। पूछने पर बताया था कि वह अपने दो भाईयों के साथ मेले में गया था और भटक गया।उसे बस ,केवल और केवल अपना नाम पता था। उसे अपने घर ले आई। उसे याद आ रही थी कि मैं कैसे आल्हादित हो गई थी जब बिना सिखाये पहली बार अनुभव ने मुझे ‘मां’कह संबोधित किया। बड़े लाड- प्यार से मैंने उसे बड़ा किया। भगवान ने शायद मुझे मेरे एकाकीपन से बचाने के लिए उम्र के इस पड़ाव पर अनुभव को मुझसे मिलवा दिया।




उसकी ‌पढ़ाई-लिखाई में मैंने कोई कसर नहीं छोड़ी। अनुभव है भी बहुत प्रतिभाशाली और लायक लड़का।उसे पढ़ाई के लिए स्कॉलरशिप भी मिल रहे थे। अनुभव का सानिध्य ने मुझे जीने के लिए प्रेरित किया, वरना  मैं जिम्मेवारियों को पूरा करने के बाद जीना नहीं चाहती थी, पर अनुभव मेरे जीने का जरिया बन गया।

उस दिन बेचैन हो खुशी अनुभव का इंतजार कर रही थी इंटरव्यू देने गया था वह। पता नहीं ,क्या होगा! इसी उधेड़बुन में जिंदगी के यादों के पन्नों को आराम कुर्सी पर बैठी  उलट-पलट कर रही थी तभी उसकी कानों में अनुभव की आवाज आई -“मां …. मैं इंटरव्यू पास कर गया। तुम्हारा बेटा आईएएस बन गया मां!!!”

  ‌खुशी आराम कुर्सी से उठ उसे अपनी बांहों में कसकर समेट लिया। दोनों की आंखों से प्यार की बरसात होने लगी थी …..।

#मासिक_अप्रैल 

स्वरचित, अप्रकाशित

संगीता श्रीवास्तव

लखनऊ।

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