पापा का वादा – डा. चंद्रकान्ता वर्मा

रोली एक साधारण परिवार में पली बड़ी पर उसके सपनें बड़े बड़े थे।

चार बहन दो भाई थे किसी से पटती नहीं थी थोडा देखनें में अच्छी थी रंग साफ था।मां भी हमेशा कहतीं ये बेटी तो राजकुमारी है फटा फट कोई राजकुमार इसे ले जायेगा, और इस तरह बचपन से ही उसके मन में अहंकार के भाव पनपते रहे ।

पडनें में साधारण थी

पिता को लड़कियों की शादी की बडी फिक्र रहती,इतनीं मंहगाई में कैसे पड़ायें शादी करें।

एक दिन अपनें बचपन के दोस्त के पास उदास बैठे थे शर्मा जी दोस्त नें पूंछा क्या हुआ दोस्त बोले लडकियां शादी लायक हो रहीं क्या करें।उनके दोस्त विजय नें कहा चलो तुम्हारी एक लडकी से मैं अपनें लडके की शादी करूंगा मेरा वादा है।

बात आई गई हो गई,

दो साल बाद विजय बाबू का लडका डेंटिस्ट बन गया।शर्मा जी तो सोच भी नहीं सकते कि डाक्टर से दोस्त अब मेरी लडकी की शादी करेंगे।

एक दिन विजय ने शर्मा जी को फोन किया कि हम पत्नी और बेटे के साथ शाम आ रहे।

शर्मा जी सोचे मिलने आ रहे पर आकर बैठे और बोले रोली बिटिया को बुलाओ सौरभ बेटा मिल ले।

पर बेटा बीच में ही बोला नहीं पापा आपनें जो कहा पत्थर की लकीर है।रोली आई विजय बाबू की पत्नी नें उसे चैंन पहनां कर बोला अब ये मेरी बहू है।

अब तो रोली के अहंकार की सीमा नहीं,बहनों  से हमेशा गुरूर से बात करती मेरे ये कपड़े तुम सब ले लेनां अब मेरा स्टेट्स है,ये नहीं चलेंगे।

सौरभ से जब बात करती उसकी बात में अहंकार टपकता पूंछती आपके पास कौन सी कार है?

घर कैसा है अपनां कमरा कितनां बडा है?एसी, फ्रीज कमरे में है,कितनें नौकर हैं।

सौरभ थोडा खीज गया बोला फ्रीज रसोई में है,



सोचनें लगा ये इतनी घमंडी लालची है आगे क्या होगा मां बाबू से पटेगी कि नहीं।

फिर पापा का वादा याद आता, सौरभ के लिये उसका बडा महत्व था,

शादी हुई अब तो रोली सातवें आसमांन पर नये कपड़े नया घर।

काम नहीं करनां चाहती थी सौरभ बोला सुबह ऊठकर मम्मी पापा को चाय दिया करो मम्मी उठतीं हैं ठीक नहीं लगता।

रोली बोली क्यों ?मेरा पति डा. है मैं क्यों बनाउं?सौरभ का माथा घूम गया बोला वो डा. की मां है, पहले मां फिर तुम।

सौरभ नें उसको घुमांना पिक्चर दिखानां और पैसे देनां बंद कर दिया।

और रूखा व्यवहार करता सोचता ये समझ जाये अपनीं गल्ती।

पर एक दिन सहेलियों को फोन पर बता रही मेरे घर चार नौकर है,ड्राइवर है मैं जब चाहे शोपिंग करती हूं घर पर पार्टी आये दिन होतीं हैं।

घर के कोई काम मुझसे नहीं करवाये जाते कल ही एक हीरे का हार लिया है, सौरभ सुन रहा था फोन छीन कर सबको नमस्ते की और बोला तुम्हारी सहेली सब बातें गुरुर से जो कर रही झूठ है।

मेरे घर कुछ नहीं जो उसनें बोला हम साधारण लोग है।

अब तो रोली रो पडी उसका अहंकार चकनाचूर हो गया और वो एक अच्छी गृहणी की तरह रहनें लगी।

सौरभ अब उसका बहुत ध्यान रखता है,दोनों खुश हैं।

सौरभ की अक्लमंदी नें रोली का अहंकार भी तोड़ा और स्वाभिमान से रहनां सिखाया। 

पापा का वादा जो दोस्त को दिया थी उसको भी नीचे नहीं गिरनें दिया।

सोचता मैंरे पापा नें जो पत्थर पर लकीर खींची थी उसकी आन रख ली।

मैंने पापा का वादा मिथ्या नहीं होनें दिया।

 

स्वरचित

डा. चंद्रकान्ता वर्मा

लखनऊ

 

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