पापाजी…बस अब और नहीं!! – मीनू झा

भाभी…सुहानी और सोम आएं तो उन्हें घर की ये चाबियां दे दीजिएगा प्लीज़…अचानक से एक कॉल आ गई है तो मुझे जाना होगा…पर हां उनसे कह दीजिएगा कि शाम पांच छह तक मैं आ जाऊंगी और उनको पक्का बाहर लेकर जाऊंगी–सुलक्षणा ने अपने घर की चाबियां पड़ोसन को थमाते हुए कहा।

ठीक है भाभी दे दूंगी…–पड़ोसन के लिए ये चीज कोई नई नहीं थी अक्सर सुलक्षणा जब तब अपने घर की चाबी उसे थमाकर निकल जाती..और कभी खुद नहीं ले जाती थी ये भी रेकार्ड ही था…अक्सर पति या बच्चे आते और चाबी ले जाते…!

दरअसल सुलक्षणा एक बड़ी राजनीतिक पार्टी के महिला आयोग की जिला अध्यक्ष थी और सामाजिक कार्यकर्ता भी…शादी के वक्त सीधी सादी घरेलू पर अति महत्वाकांक्षी सुलक्षणा में राजनीति का ये बीज उसके ससुर का बोया हुआ था..जो खुद भी कभी छोटे मोटे नेता हुआ करते थे पर कभी बड़े नहीं बन पाए और अब हिम्मत हारकर अवसादग्रस्त हो गए थे…

बहू… महिलाओं के लिए यहां स्थान बनाना आसान है क्योंकि प्रतिस्पर्धा कम है… मैं चाहता हूं मैं जो ना कर पाया वो तुम करो…और किसी से तो मैं उम्मीद भी नहीं रख सकता—टूटे हुए ससुरजी के स्वर में आग्रह था और इशारा अन्य दोनों बहुओं की तरफ था जो नौकरीपेशा और अपनी दुनिया में मग्न रहने वाली थी।

ससुरजी के सहयोग से सुलक्षणा की महत्वाकांक्षा भी सर उठाने लगी क्योंकि अब तो नौकरी की उम्र भी निकल चुकी थी और पहचान बनाने के सारे रास्ते खत्म हो चुके थे, बेटी और बेटा दोनों स्कूल जाने लगे थे…।





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शुरूआत में ससुरजी ने पहले उसे एक दो सामाजिक संगठनों और एनजीओ से जोड़ दिया..फिर शुरू हुई सुलक्षणा की व्यस्ततम दिनचर्या…सुबह दोपहर शाम कभी भी किसी भी वक्त फोन आ जाता…

सुलक्षणा जी…फलाने जगह पर आधे घंटे में पहुंचिए…फलानी मीटिंग है दो घंटे में…आज धरना है…आज जुलूस है….!

सुलक्षणा घर में जो करती रहतीं वहीं रोककर जाने की तैयारी में लग जाती… नतीजतन संगठन और पार्टी में स्थान पाते पाते सुलक्षणा कब पति-बच्चों के दिलों में और घर में अपना स्थान खोती गई उसे भी समझ में नहीं आया…!

ससुर जी तो वैसे भी गांव में ही रहते थे क्योंकि वहां उनकी लंबी चौड़ी खेती घर गृहस्थी थी, जानने पहचानने वाले थे…और भले ही छुटभैये ही सही पर नेताजी कहने वालों के बीच रहना उन्हें पसंद था…।

तीन साल हो गए थे इस तरह से…बच्चे अब बड़े होने लगे थे उन्हें मां के साथ,प्रेम और सानिध्य की इच्छा होती थी पर मां को तो समाज,जिला,राज्य और देश के बाद उनको देने के लिए कुछ बचता कहां था.?

पर कल जब दिन ब दिन चिड़चिड़ी होती सुहानी ने गुस्से से बड़ा सा फुलदान उठाकर फेक दिया तो वो सोच में पड़ गई…छोटा सा सोम भी हद से ज्यादा जिद्दी होता जा रहा है…पति को तो ऑफिस का ही इतना लोड होता है कि सर उठाने तक की फुर्सत नहीं होती…





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सुहानी…बेटा बस कुछ दिनों की बात है मैनेज कर लो…आप तो बड़ी हो समझदार हो ना…एकबार मुझे पार्टी से टिकट मिल जाए फिर सब ठीक हो जाएगा..

क्या ठीक होगा मम्मा…आपको टिकट मिलेगा फिर प्रचार में व्यस्त हो जाओगी अभी तो शाम को वापस आ जाती हो फिर कई कई दिन नहीं आओगी,जीत गई तो फिर महीनों में आओगी घर और देश स्तर तक पहुंच गई फिर तो….–सब समझ रही थी सुहानी मां के ख्वाब भी और उनके पूरे होने के बाद की परिस्थितियों भी…

तत्क्षण सोच लिया था सुलक्षणा ने सप्ताह में दो दिन परिवार का चाहे जो भी हो जाए…कल को कुछ बनने के चक्कर में बच्चे ही हाथ से निकल गए तो उस सफलता का क्या अचार डालेगी वो…।

मैं कल कहीं नहीं जाऊंगी… तुम दोनों के साथ रहुंगी…तुम्हारी पसंद का लंच बनाऊंगी और शाम में पापा के आने के बाद हमलोग बाहर घुमने जाएंगे और डिनर करते हुए लौटेंगे –सुलक्षणा की इस घोषणा पर दोनों बच्चे मासूमियत से खिलखिला उठे।

स्कूल भैजकर खाने की तैयारी ही कर रही थी वो कि फोन आ गया…

मैडम..राष्ट्रीय अध्यक्ष आ रहे हैं 

पर वो तो अनाथाश्रम के उद्घाटन के लिए दो दिन बाद आने वाले थे ना..

आगामी चुनाव की हमारी तैयारियों के औचक निरीक्षण के लिए आज ही आ रहे हैं,शायद अनाथाश्रम की विजिट भी हो जाए आज ही आप आज आ जाइए आपका आना जरूरी है…

पर मैंने तो कल ही मैसेज कर दिया था ना आज मैं…

मैडम… इसमें आपका ही भला है…जो ना आने पर नुकसान में भी बदल सकता है…!

हारकर सब काम को छोड़कर घर में ताला लगाकर पड़ोसन को चाबी देकर तो निकल गई सुलक्षणा पर मन बहुत दुखी था उसका…अपनी खुशी,ससुरजी की खुशी..समाज की खुशी देश की खुशी सबके लिए सोचने का वक्त है उसके पास पर अपने ही बच्चों की खुशी के लिए समय नहीं, अनाथाश्रम के बच्चों को गोद में लेकर फोटो खिंचवाएगी जो कल पेपर में भी आएगा पर मां बाप के होते हुए जो उसके बच्चे अनाथों की तरह दिन रात काट रहे हैं उसका क्या? …कैसा दोहरा चरित्र जी रही है…कैसा दोहरा चेहरा लिए घुम रही है..समाज की फ़िक्र है पर परिवार की नहीं…!!

अरे मैडम…बैठो ना..टैंपो रूकवाकर किस दुनिया में खोई हो??–टैंपो वाला गुर्राया जो उसके इशारे से सामने आ रूका था।

भैया…साॅरी आप जाओ मैं नहीं जा रही..–कहकर सुलक्षणा घर की तरफ लौट पड़ी।

पड़ोसन के चेहरे पर भी आश्चर्य का सागर था…तीन सालों में पहले दिन खुद की दी हुई चाबी सुलक्षणा खुद ले रही है वो भी मात्र पंद्रह मिनट बाद ही…उसे विस्मित करती हुई सुलक्षणा गुनगुनाती हुई अपने घर का ताला खोलने लगी।

उसे पता है कल पेपर पढते ही ससुरजी का फोन आएगा–

बहू ना तुम्हारा नाम है कहीं पेपर में, ना ही फोटो में कहीं दिख रही तुम… नेताजी की विजिट में पीछे थी क्या तुम…सौ बार कहा है कि आगे आगे रहा करो हर चीज में…कब समझोगी तुम?

समझी तो अब हूं पापाजी…मेरे आगे होने के चक्कर में मेरे बच्चे पीछे रह गए तो कहां की रह जाऊंगी मैं… नहीं जीना मुझे अब दोहरा चेहरा…दोहरा चरित्र…मेरे घर पति और बच्चों के बाद बचे समय में अगर किसी के लिए कुछ कर पाऊं तो वहीं बहुत है…अपने दो बच्चो को अच्छा इंसान बना लूं ये भी तो देशसेवा और समाज सेवा ही है ना…और अपने मन का संतोष अपना सुख अपनी सेवा…अब और नहीं पापाजी—कह ही देगी वो पापाजी से…!!

#दोहरे_चेहरे

मीनू झा

अप्रकाशित मौलिक व स्वरचित

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